बुधवार, 10 फ़रवरी 2010

दूसरी परंपरा की तलाश में

हजारीप्रसाद द्विवेदीजी के आलोचना कर्म की केन्द्रीय उपलब्धि है आलोचना की असंख्य अवधारणाओं का निर्माण। उनकी बनायी अवधारणाएं आलोचना-इतिहास ग्रथों से लेकर उपन्यास तक फैली हुई हैं। मजेदार बात यह है कि प्रत्येक अवधारणा के साथ उसका परिप्रेक्ष्य भी साथ में दिया गया है। जहां मौका मिला है अवधारणा से जुड़ी बहस को खोला है। अवधारणा बनाते हुए उनकर दृष्टि के केन्द्र में वर्तमान है,उनकी बनायी अधिकांश अवधारणाएं वर्तमान आलोचना में प्रासंगिक है।

इस प्रसंग में उदाहरण स्वरुप 'मध्यकालीनबोध का स्वरूप' (1970) को लिया जा सकता है। इस किताब के पहले व्याख्यान में आलोचना क्या है ? और आलोचना में किन तत्वों का इस्तेमाल किया जा सकता है,इस पर प्रकाश डालते हुए द्विवेदीजी ने आलोचना को 'साहित्यबोध' से जोड़ा है। इस क्रम में आलोचना के लिए साहित्य और लोकप्रिय साहित्य दोनों की उपयोगिता की ओर संकेत किया है।

इसके अलावा साहित्यबोध के लिए 'कभी-कभी बाहर जाने की भी जरूरत' पर जोर दिया है। द्विवेदीजी के अनुसार सबसे बड़ी चीज है साहित्य को समझने के लिए 'बृहत्तर परिप्रेक्ष्य।' आधुनिक जमाने को पुराने जमाने से अलगाते हुए लिखा '' आधुनिक युग विज्ञान की देन है।

      मशीनों के आने बाद ही इस युग में नयी समस्याएं और उनके समझाने के लिए नये प्रयत्न सामने आने लगे। राजनीतिक,सामाजिक और आर्थिक स्तर पर मनुष्य परिवर्तित होने के लिए बाध्य हुआ और तेजी से उस युग का जन्म हुआ जिसे हम 'आधुनिक' कहते हैं।

     पश्चिम के देशों से हमारा सम्पर्क होने के बाद हम इस युग में प्रविष्ट हुए।इस नये युग में व्यक्ति क्रमश: स्वतंत्र होता गया है और भी स्वतंत्र होता जा रहा है। इससे से पहले के युग में मनुष्य और मनुष्य का सम्बन्ध सीधा और प्रत्यक्ष होता था,लेकिन नए युग का सम्बन्ध बाजार के माध्यम से होने लगा है। प्रत्येक व्यक्ति सामाजिक,राजनीतिक दृष्टि से स्वतंत्र तो हो रहा है परन्तु योग्यता और स्वाधीनता बाजार के मूल्यों के द्वारा नियंत्रित होती है। इसके पहले व्यक्ति या तो मालिक होता था,नौकर होता था,दास होता था,मित्र होता था, कवि होता था या आश्रयदाता होता था।आज वह ठीक ऐसा नहीं है।मध्यकालीन युग की चर्चा करते समय हमें इन सम्बन्धों का भी विश्लेषण करना पड़ेगा।''

   मध्यकाल का मूल्यांकन करते हुए द्विवेदीजी ने इसमें निहित सांस्कृतिक संवत्तियों का उद्धाटन किया। साथ ही काल-विभाजन के प्राचीन नामकरण (सतयुग वगैरह)में निहित सांस्कृतिक फिनोमिना क नए रूप में विश्लेषित किया है

    उन्होंने लिखा है '' 'मध्ययुग' शब्द का प्रयोग काल के अर्थ में उतना नहीं होता ,जितना एक खास प्रकार की 'पतनोन्मुख और जबदी हुई मनोवृत्तिा' के अर्थ में होता है। ऐसा माना जाता है कि मध्ययुग का मनुष्य धीरे-धीरे विशाल और असीम ज्ञान के प्रति जिज्ञासा का भाव छोड़ता जाता है तथा धार्मिक विचारों और स्वत: प्रमाण माने जाने वाले आप्त वाक्यों का अनुयायी होता जाता है। साधारणत: आप्त वाक्य समझे ाने वाले ग्रन्थों की बाल-की-खाल निकालने वाली व्याख्याओं पर अपनी समस्त बुध्दि खर्च कर देता है।''

 मध्यकाल के साहित्य से आधुनिक काल को अलगाते हुए द्विवेदीजी ने लिखा कि आधुनिक युग की विशेषता है 'सचेत परिवर्तनेच्छा।' भक्ति साहित्य में परिवर्तन की व्याकुलता है किंतु यह अपने आप में पर्याप्त नहीं है। क्योंकि उसका लक्ष्य है ''परलोक में मनुष्य को मुक्त करना।''

 भक्ति साहित्य की सीमा यह है कि इसके लेखकों के सामने परिवर्तन का लक्ष्य स्पष्ट नहीं था। मध्यकाल की केन्द्रीय उपलब्धि है ,''इसमें शब्द की अपेक्षा अर्थ पर अधिक ध्यान दिया गया है। जीवन को अधिक उपभोग्य और ग्राह्य बनाने पर अधिक बल है।शब्द शक्तियों का विचार किया गया है ,पर,बाल की खाल निकालने की प्रवृत्ति कम है। साहित्य और कला में उन वस्तुओं पर अधिक बल दिया गया है जो शब्दों द्वारा संकेतित होती हैं,स्वयं शब्द मात्र नहीं हैं। अजन्ता के चित्रों में और तत्कालीन साहित्य में जीवन का उमड़ता प्रवाह मिलता है।यहाँ जो भोग है वह शक्ति से पोषित और संयम से निर्देशित है। संयम लक्ष्य नहीं साधन है;और भोग भी लक्ष्य नहीं;बृहत्तर उपलब्धि का सहायक है। परवर्तीकाल में शब्द प्रधान होता गया है, अर्थ क्रमश: सिमटता गया है।अर्थ से क्रमश: कटता हुआ शब्द,स्तब्ध और प्रयोग-विरहित शैथिल्य को ही जन्म दे सकता है।''

 मध्यकालीन साहित्य के संदर्भ में हजारीप्रसाद द्विवेदी ने सबसे महत्वपूर्ण बात यह लिखी है कि इस युग के साहित्य के बारे में ''जानकारी के लिए सिर्फ यह जानना जरूरी नहीं है कि हम यह जानें कि इस काल के साहित्यिक लोगों ने क्या लिखा,बल्कि यह भी जानना जरूरी है कि वे किन बातों को आदर्श या श्रेष्ठ समझते थे।''साहित्य के इतिहास और आलोचना में इस पहलू का महत्वपूर्ण स्थान है।

आचार्य रामचन्द्र शुक्ल और उनके द्वारा लिखी गयी मध्यकाल के साहित्य की आलोचना इस परिप्रेक्ष्य के लिहाज से अधूरी है। शुक्लजी की आलोचना में विवरण हैं,व्याख्या है,किंतु मध्यकालीन लेखक के आदर्शों का समग्र मूल्यांकन गायब है। मध्यकालीन साहित्य की आलोचना पध्दति के लिहाज से भी यह पहलू महत्वपूर्ण है।
     
दूसरी महत्वपर्ण बात यह लिखी है कि '' इस काल में यह मान लिया गया था कि जो कुछ अच्छा था वह पहले के लोग कर गए हैं,नए सिरे से हम केवल उनकी व्याख्या कर सकते हैं। नया कुछ भी देने का दावा प्राय:खत्म हो चुका था।...  निस्संदेह व्याख्या करने के बहाने नयी चीज देने का प्रयत्न भी इस काल में किया गया,परन्तु आदर्श बराबर पुराने लोगों की कृतियां ही रही हैं।''
            




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