रविवार, 7 फ़रवरी 2010

हिन्दी साहित्य का इतिहास और हाइपरटेक्स्ट की समस्याएं -1-

     हाइपरटेक्स्ट आज हमारे देश की ठोस वास्तविकता है। हमें इसके साहित्यिक परिणामों के बारे में जागरूक बनना चाहिए। हाइपरटेक्स्ट मूलत: कम्प्यूटर रचित पाठ है।  इस पाठ का आधार साहित्यिक गद्य रहा है। जिन लोगों ने हाइपरटेक्स्ट का निर्माण किया उन विचारक वैज्ञानिकों ने साहित्य को कम्प्यूटर की भाषा के निर्माण का आधार बनाया। हिन्दी में संभवत: आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी अकेले लेखक हैं जिनका गद्य हाइपरटेक्स्ट की विशेषताएं अपने अंदर समेटे हुए है। ''हिन्दी साहित्य का आदिकाल'' और ''मध्यकालीनबोध का स्वरूप'' उनकी ये दो  कृतियों में हाइपर टेक्स्ट के समस्त लक्षण उपलब्ध हैं। जबकि ये दोनों उनके व्याख्यान की किताबें हैं, पाठ हैं। 
 

जिस समय हजारीप्रसाद द्विवेदी लिख रहे थे वे कम्प्यूटर के प्रयोग के बारे में नहीं जानते थे। जिस दौर में उन्होंने हिन्दी में हाइपरटेक्स्ट की विशेषताओं वाला गद्य लिखा उस समय भारत में चंद संस्थानों में कम्प्यूटर का प्रयोग होता था।  
       
 हाइपरटेक्स्ट क्या है ? हाइपरटेक्स्ट के निर्माता टेड नेल्सन के अनुसार ''यह गैर-आनुक्रमिक लेखन है। यह ऐसा पाठ है जो पाठक को विभिन्न शाखाओं में चयन की अनुमति देता है। इसे बेहतर ढ़ंग से इंटरेक्टिव स्क्रीन पर पढ़ सकते हैं। यह सीरीज में फैला हुआ पाठ है। इसके अनेक लिंक हैं। ये पाठक को रास्ता सुझाते हैं।''

''एकरेखीयता और एक ही व्याख्या को हाइपरटेक्स्ट अस्वीकार करता है। हाइपर टेक्स्ट का ही यह प्रभाव है कि आज सारी दुनिया में एकरेखीयता की जगह गैर-रेखीयता केन्द्र में आ गई है। गैर-रेखीयता एक नियम बन गयी है। अब विमर्श एक ही दिशा और एक ही दृष्टिकोण की बजाय विभिन्न दृष्टियों से किए जा रहे हैं। सभी दृष्टियां समान हैं।''
   
हाइपरटेक्स्ट की छह केन्द्रीय विशेषताएं हैं प्रथम, गैर-आनुक्रमिक लेखन। द्वितीय , विकेन्द्रित पाठ, तीसरा , पाठ में अनेक स्रोत और लिंक की मौजूदगी ,चौथा , विकेन्द्रित अकादमिक समाज का गठन, पांचवां, एक ही दृष्टिकोण की बजाय अनेक दृष्टिकोणों पर जोर, छठा, खुला पाठ, विमर्श के ऐसे वातावरण का निर्माण जिसमें नियंता कोई नहीं होगा। पाठ ही नियंता होगा। पाठक ही सर्जक होगा। पाठ की एकायामिता की बजाय बहुआयामिता की हिमायत। कमोबेश ये सारी विशेषताएं द्विवेदीजी के पाठ में हैं। जिन दोनों किताबों का मैंने किया है उन किताबों में ये सभी विशेषताएं हैं।
    
उदाहरण देखें- '' आज से कोई अड़सठ वर्ष पूर्व सन् 1883ई. में शिवसिंह सेंगर ने प्रथमबार हिन्दी साहित्य के इतिहास का एक ढ़ाँचा तैयार करने का प्रयास किया था। इस प्रयत्न से कोई छह वर्ष बाद सुप्रसिध्द भाषाविज्ञानी डा.(बाद में सर) जार्ज ग्रियर्सन ने ऍंग्रेजी में एक ऐसा ही प्रयत्न किया। उनकी पुस्तक का नाम है-'मॉडर्न वरनाक्यूलर लिटरेचर ऑव नार्दर्न हिन्दुस्तान'। ये दोनों पुस्तकें बहुत थोड़ी सामग्री के आधार पर लिखी गई थीं। इनमें कवियों और रचनाओं के विवरण संग्रह कर दिए गए थे; पर उनको किसी एक ही जीवन्त प्रवाह के चिह्नरूप में देखने का प्रयत्न नहीं था। उन दिनों यह बात सम्भव ही नहीं थी। ''...
    
'' स्वर्गीय पण्डित रामचन्द्र शुक्ल ने इन पुस्तकों को 'कविवृत्तसंग्रह' कहकर इनका ठीक परिचय दिया था। ईसवी-सन् की उन्नीसवीं शताब्दी के बाद से काशी की सुप्रसिद्ध 'नागरी प्रचारिणी सभा' ने पुराने हिन्दी-ग्रन्थों की खोज का कार्य शुरू किया और थोड़े ही दिनों में सैंकड़ों अज्ञात कवियों और ग्रन्थों का पता लगा लिया। सभा की खोज रिपोर्टों के आधार पर मिश्रबन्धुओं ने सन् 1913 में 'मिश्रबन्धु विनोद' नामक अत्यन्त महत्वपूर्ण ग्रन्थ लिखा, जो अपनी समस्त त्रुटियों और खामियों के बावजूद अत्यन्त उपादेय है। लेकिन है यह भी कविवृत्तसंग्रह ही।''
      
''  हिन्दी साहित्य का सचमुच क्रमबध्द इतिहास पं.रामचन्द्र शुक्ल ने 'हिन्दी-शब्द सागर की भूमिका' के रूप में सन् 1929 ई. में प्रस्तुत किया।'' 

इतने लम्बे उध्दरण को देने के पीछे सिर्फ यह बताना था कि द्विवेदी का पाठ अनेक किस्म के स्रोतों की सूचनाओं से भरा है। आप इसमें कोई संदर्भ अथवा सूचना गायब करके पढ़ना चाहें तो पाठ नहीं टूटेगा और यदि एक सूचना से दूसरी सूचना के बीच में कुछ कहना चाहें तो पाठ का ढ़ांचा खुला हुआ है। 

इन उध्दरणों से यह भी पता लगता है कि हिन्दी साहित्य का इतिहास विकेन्द्रित संरचनाओं में तैयार हुआ था, इसके पीछे विकेन्द्रित तौर पर एक नहीं अनेक लोग सक्रिय रहे हैं। इस पूरे उध्दरण पर गौर करें तो पाएंगे कि हिन्दी साहित्य का इतिहास विकेन्द्रित इतिहास है। इस इतिहास की सूचनाओं के एकाधिक स्रोत हैं।
     
हजारीप्रसाद द्विवेदी जब हिन्दी भाषा की बात करते हैं तो पुन: हिन्दी भाषा के निर्माता के रूप में विकेन्द्रित संरचनाओं और भाषा के एकाधिक स्रोतों का उद्धाटन करते हैं। इस क्रम में चन्द्रधर शर्मा गुलेरी के निबंन्ध में आए हेमचन्द्र के व्याकरण में उदाहरण रूप में आए दोहों, प्रबन्ध चिन्तामणि और कुमारप्रतिपालप्रतिबोध में संगृहीत दोहों,शारंगधर पध्दति में प्राप्त हुए कुछ अपभ्रंश के वाक्यों का जिक्र करने के बाद विस्तार से उन तमाम स्रोतों का जिक्र करते हैं जिन्हें गुलेरीजी की मृत्यु के बाद खोजा गया था अथवा जिन्हें स्वयं द्विवेदीजी ने खोजा था। 

अपभ्रंश का प्रयोग संस्कृत के बड़े काव्यशास्त्रियों ने भी किया है।  द्विवेदी जी ने पिशेल के अपभ्रंश भाषा संबंधी योगदान का व्यापक उल्लेख किया है।  पिशेल ने हेमचन्द्र के व्याकरण का संपादित संस्करण तैयार करने में किन किताबों की मदद ली और यह काम कहां से और कब प्रकाशित हुआ। ये सारी सूचनाएं मात्र एक पृष्ठ में पेश की हैं। 

कहने का तात्पर्य यह है कि द्विवेदीजी के व्याख्यानों को पढ़ते समय  एक आख्यान वह पढ़ते हैं जो स्वयं द्विवेदीजी बनाते हैं और दूसरा आख्यान वह है जो इनके अंदर छिपा है जिसका उद्धाटन उस अर्थ को बदल सकता है। 

इन व्याख्यानों में इनसाइक्लोपीडिया की पध्दति अपनायी  गयी है। यही पध्दति हाइपर टेक्स्ट का मूलाधार है। जिसे हम सब इन दिनों इंटरनेट पाठ में देख सकते हैं।
    
इनसाइक्लोपीडिया पध्दति की मांग है कि निरंतर खोज और संवाद जारी रखें। द्विवेदीजी की उल्लिखित कृतियां यह मांग हिन्दी के पाठक के सामने भी पेश करती हैं। इन किताबों में कोई चीज अंतिम निष्कर्ष पर नहीं पहुँचती। कोई भी अध्याय संपूर्ण अध्याय नहीं है। कोई भी व्याख्यान संपूर्ण व्याख्यान नहीं है। प्रत्येक व्याख्यान खुला है आप चाहे तो इनका विस्तार कर सकते हैं। इन व्याख्यानों में 'संवाद' और 'खोज' को ही मूल आधार बनाया गया है। 'संवाद' और 'खोज' मूलत: इनसाक्लोपीडिया पद्धति का हिस्सा हैं,हाइपरटेक्स्ट की पध्दति का हिस्सा हैं। इस अर्थ में द्विवेदीजी हिन्दी में हाइपरटेक्स्ट की पध्दति के पहले प्रयोगकर्त्ता के रूप में सामने आते हैं।
    

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