मंगलवार, 27 जुलाई 2010

मीडियायुग में किताब को जिंदा रखो

       स्त्री और पुरूष दोनों किस्म के लेखन में संरक्षक का बड़ा महत्व है। वर्जीनिया वुल्फ ने संरक्षक के सवाल पर विचार करते हुए लिखा है कि आम तौर पर स्त्री पुरूष दोनों ही अव्यावहारिक सलाह के आधार पर लिखते हैं। सलाह देने वाले यह सोचते ही नहीं हैं कि उनके दिमाग में क्या है। लेखक चाहे या न चाहे वे अपनी सलाह दे देते हैं।
      लेखक को अपना आश्रयदाता,संरक्षक,सलाहकार सावधानी के साथ चुनना चाहिए। लेखक को लिखना होता है जिसे अन्य कोई पढ़ता है। आश्रयदाता आपको सिर्फ पैसा ही नहीं देता बल्कि यह भी बताता है कि क्या लिखो,इसकी प्रच्छन्न रूप में सलाह या प्रेरणा भी देता है। अत: आश्रयदाता या संरक्षक ऐसा व्यक्ति हो जिसे आप पसंद करते हों।लोग जिसे पसंद करें।यह पसंदीदा व्यक्ति कौन होगा ? कैसा होगा ?
       प्रत्येक काल में पसंदीदा व्यक्ति की अवधारणा बदलती रही है। मध्यकाल से लेकर आधुनिक काल तक लेखक के आश्रयदाता और पसंदीदा व्यक्ति का विवेचन करने के बाद वर्जीनिया वुल्फ ने लिखा है प्रत्येक लेखक की अपनी जनता होती है। अपना पाठकवर्ग होता है। यह पाठकवर्ग आज्ञाकारी की तरह अपने लेखक का अनुसरण करता है। उसकी रचनाएं पढ़ता है।लेखक अपनी जनता के प्रति सजग भी रहता है। उससे ज्यादा श्रेष्ठ बने रहने की कोशिश भी करता है। लेखक की अपनी जनता में जनप्रियता अपने लेखन के कारण होती है। क्योंकि लेखन ही संप्रेषण है।
          आधुनिक लेखक का संरक्षक उसका पाठकवर्ग है,जनता है।आधुनिक काल में पत्रकारिता का लेखक पर दबाव होता है कि वह प्रेस में लिखे,पत्रकारिता पूरी कोशिश करती है कि किताब में लिखना बेकार है, कोई नहीं पढ़ता,अत: प्रेस में लिखो। वुल्फ ने लिखा है कि इस धारणा को चुनौती दी जानी चाहिए। किताब को हर हालत में जिन्दा रखा जाना चाहिए।किताब को पत्रकारिता के सामने जिन्दा रखने के लिए जरूरी है कि उसकी गुणवत्ता पर ध्यान दिया जाए।
      हमें ऐसे संरक्षक की खोज करनी चाहिए जो पढ़ने वालों तक पुस्तक ले जा सके। हमें किताब के साथ खेलने वालों की नहीं पढ़ने वालों की जरूरत है। ऐसा साहित्य लिखा जाए जो अन्य युग के साहित्य को निर्देशित कर सके,अन्य जाति के लोगों को आदेश दे सके।लेखक को अपने संरक्षक का चुनाव करना चाहिए,यह उसके लिए बेहद महत्वपूर्ण है। सवाल यह है कि उसे कैसे चुना जाए ? कैसे अच्छा लिखा जाए ? वर्जीनिया वुल्फ ने सवाल उठाया है कि हमारे साहित्य में स्त्री का चेहरा तो आता है।किन्तु उसकी इच्छाएं नहीं आतीं। उसके भाव नहीं आते। उसके प्रति सबके मन में सहानुभूति है,वह सब जगह दिखाई भी देती है। किन्तु उसकी इच्छाएं कहीं भी नजर नहीं आतीं।
         वुल्फ कहती है पुस्तक कैसे पढ़ें इसके बारे में कोई भी निर्देश नहीं दिए जा सकते। प्रत्येक पाठक को जैसे उचित लगे पढ़ना चाहिए। उसे अपने तर्क का इस्तेमाल करना चाहिए और अपने निष्कर्ष निकालने चाहिए। हमें स्वतंत्रता का प्रयोग करना चाहिए। किन्तु कहीं ऐसा न हो कि इसका दुरूपयोग होने लगे। पाठक की शक्ति का सही इस्तेमाल करने के लिए उसके प्रशिक्षण की भी जरूरत है।
     पुस्तक पढ़ते समय यह ध्यान रखा जाए कि हम कहां से शुरूआत करते हैं ? हम पाठ में व्याप्त अव्यवस्था में कैसे व्यवस्था पैदा करते हैं, उसे कैसे एक अनुशासन में बांधकर पढ़ते हैं। जिससे उसमें गंभीरता से आनंद लिया जा सके। पुस्तक पढते समय हमें विधाओं में प्रचलित मान्यताओं का त्याग करके पढ़ना चाहिए।
     मसलन् लोग मानते हैं कि कहानी सत्य होती है। कविता छद्म होती है। जीवनी में चाटुकारिता होती है, इतिहास में पूर्वाग्रह होते हैं। हमें इस तरह की पूर्व धारणाओं को त्यागकर साहित्य पढ़ना चाहिए। आप अपने लेखक को निर्देश या आदेश न दें। बल्कि उसे खोजने की कोशिश करें। लेखक जैसा बनने की कोशिश करें। उसके सहयात्री बनें। यदि आप पहले से ही किसी लेखक की आलोचना करेंगे तो उसकी कृति का आनंद नहीं ले पाएंगे। यदि खुले दिमाग और व्यापक परिप्रेक्ष्य में कृति को पढ़ने की कोशिश करेंगे तो कृति में निहित श्रेष्ठ अंश को खोज पाएंगे।
       निबंध विधा के बारे में वर्जीनिया वुल्फ का मानना था निबंध छोटा भी हो सकता है और लंबा भी।गंभीर भी हो सकता है और अगंभीर भी। वह पाठक को आनंद देता है। वह किसी भी विषय पर हो सकता है। निबंध का अंतिम लक्ष्य है पाठक को आनंद देना। निबंध को पानी और शराब की तरह शुध्द होना चाहिए। अपवित्रता का वहां कोई स्थान नहीं है।निबंध में सत्य को एकदम नग्न यथार्थ की तरह आना चाहिए।सत्य ही निबंध को प्रामाणिक बनाता है।उसको सीमित दायरे से बाहर ले जाता है।सघन बनाता है।विक्टोरियन युग में लेखक लंबे निबंध लिखते थे ? उस समय पाठक के पास समय था।वह आराम से बैठकर लंबे निबंध पढ़ता था। लंबे समय से निबंध के स्वरूप में बदलाव आता रहा है। इसके बावजूद निबंध जिन्दा है। अपना विकास कर रहा है।वुल्फ का मानना था कि निबंध सबसे सटीक और खतरनाक उपकरण है।इसमें आप भगवान के बारे में लिख सकते हैं।व्यक्ति के जीवन के दुख,सुख के बारे में लिख सकते हैं।निबंध ही था जिसके कारण लेखक का व्यक्तित्व साहित्य में दाखिल हुआ। निबंध शैली का बडा महत्व है। किसी लेखक के बारे में लिख सकते हैं।यह भी सच है कि इतिहास का उदय निबंध से हुआ है।










शुक्रवार, 18 जून 2010

संघ परिवार के विचार मुसोलिनी से क्यों मिलते हैं ?

      भारत में फासीवाद सबसे गंभीर राजनीतिक चुनौती है। मनमोहन सिंह की सरकार जिस आर्थिक एजेण्डे पर चल रही है उससे देश में अनुदारवादी विचारधाराओं के फलने-फूलने का पूरा वातावरण बन रहा है। अनेक मोर्चों पर कांग्रेस पार्टी की नीतियों की असफलता साफ नजर आ रही है। कांग्रेस पार्टी की कारपोरेट घरानों की पक्षधर जनविरोधी नीतियों का ही दुष्परिणाम है कि आज देश में विभाजनकारी,फासीवादी और आतंकी ताकतें देश में चारों ओर सिर उठाए घूम रही हैं।
     कांग्रेस पार्टी के राजनीतिक कार्यक्रम की सबसे बड़ी असफलता है देश में फासीवादी- साम्प्रदायिक ताकतों को न रोक पाना। कांग्रेस की 125 साल की राजनीतिक असफलता है आरएसएस ,भाजपा आदि फासीवादी-साम्प्रदायिक संगठनों का राजनीतिक शक्ति के रूप में विकास। हमें गंभीरता के साथ उन विचारधारात्मक कारणों की खोज करनी चाहिए जिसके कारण फासीवाद फलता-फूलता है।
       हिन्दी में ग्रंथ शिल्पी प्रकाशन के द्वारा प्रकाशित एक शानदार किताब बाजार में आयी है। ‘फासीवादःसिद्धान्त और व्यवहार’, लेखक हैं रोज़े बूर्दरों। रोज़े ने फासीवाद को व्यापक फलक पर विचार किया है, लिखा है, ‘‘फासीवादी, नात्सीवादी और फलांजवादी कार्यक्रम राजनीतिक कर्म के अर्थ में 'हर पार्टी के सारभूत सिद्धांतों की दिशा को अभिव्यक्त या सार संकलित करते हैं। अब हमें सैद्धांतिक दिशा को सुस्पष्ट करना है ताकि फासीवादी विचारधारा की पहचान करने वाले समान आधारों को विश्लेषित किया जा सके। स्रोतों की कमी नहीं है । मुसोलिनी के भाषण और लेखन, विचारक जेंतील का लेखन, इतालवी विश्वकोष, प्रेत्सोलीनी वालेंजियानी या गारजुलेनी जैसे लोकप्रिय विचारकों की कृतियां फासीवादी विचारधारा के अध्ययन के लिए अनिवार्य हैं।
        नात्सीवाद के लिए रोजेनवर्ग लिखित पुस्तक 'बीसवीं शताब्दी का मिथक' (ल मिथ द वंतियम सिएक्वल) के पहले माइन कांप्फ (मेरा संघर्ष), नात्सी पार्टी के विचारधारात्मक पाठ और संस्थापन के विचारों पर नात्सी पार्टी के अन्य नेताओं के विमर्श। स्पेन के फ्रांकोवाद के लिए भी दस्तावेजों की बहुलता है।
      गृह-युद्ध के पहले के लिए अंतोनियो प्रिमो का लेखन हैं जो फ्रांकोवाद के प्रारंभिक दिनों को परिभाषित करता है। फ्रांको और उसके अनुयायियों के भाषण भी स्रोत हैं। पी.ए. मारकोथ ने भी राष्ट्रवादी-सिंडीकलवादी स्पेन' पर पर्याप्त प्रकाश डाला है। इसके अलावा, फलांज कार्यक्रम फासीवादी और नात्सीवादी कार्यक्रमों से भी ज्यादा विचारधारात्मक सरोकार प्रस्तुत करते हैं।
इसके बावजूद कि दस्तावेजों की प्रचुरता है, कार्य ठीक से नहीं हुआहर आंदोलन अपने राष्ट्रीय मूल से गहराई से प्रभावित है, और विचारधारा के स्तर पर विशिष्ट लगता है। नात्सीवाद में नस्लवाद की व्याप्ति, जो और कहीं नहीं है, आंदोलनों की विशिष्टता को चिन्हित करती है। शैली और प्रस्तुति की विभिन्नता उन्हें अलग करती है। जेंतील की सूक्ष्म और बारीक टिप्पणियों और रोजेनबर्ग के भडक़ीले लेखन के बीच कोई समानता नहीं हैं। इसी तरह इतालवी विश्वकोष में फासीवादी विचारों की प्रगतिशील प्रस्तुति और 'माइन कांफ' के तथ्यों और विचारों (उदारवाद विरोध) या तो किसी दूसरे सिध्दांत के रू-ब-रू एक नकारात्मक सैध्दांतिक अवस्थिति (जैसे 'वर्ग संघर्ष' के रू-ब-रू सभी के उत्पादक होने की अवधारणा) मनुष्यों की समानता के रू-ब-रू श्रेणी बध्दता का सिध्दांत है।
समाहार करते हुए मुझे लगता है कि इन आंदोलनों के बीच एक वांछित विचारधारात्मक समान आधार चिह्नित कर पाना कठिन होगा। एक ही संभावना दिखती है। इन तीनों ही आंदोलनों में किसी एक दूसरे सिद्धांत के प्रति एक उग्र प्रतिकार है।
यहां एक तथ्य उल्लेखनीय है। विचारधारात्मक लेखन में प्राय: राष्ट्रवाद अंतर्राष्ट्रीयतावाद के प्रति और राष्ट्र का विनाश करने वाले वर्ग संघर्ष के प्रति संपूर्ण प्रतिकार के माध्यम से ही परिभाषित होता है, कम से कम इसी अर्थ में वह सद्गुण संपन्न लगता है। क्या आंदोलन किसी के पक्ष में होने के पहले, और मुख्य रूप से, विपक्ष में नहीं होते? क्या मुख्य विचारधारा किसी विशेष विरोधी के विरोध में ही नहीं विकसित होती?’’
 रोज़े ने लिखा है फासीवाद का प्रधान लक्ष्य है मार्क्सवाद को पीछे धकेलना। विभिन्न रंगत के फासीवादी संगठन भारत में भी कम्युनिस्टों को परास्त करने के लिए एकजुट हो जाते हैं। खासकर संघ परिवार और उससे जुड़े संगठनों का एकमात्र लक्ष्य है मार्क्सवाद के खिलाफ जहर उगलना।
रोज़े ने सही लिखा है कि ‘‘जहां तक मार्क्सवाद और मार्क्सवादी पार्टियों का संबंध है, फासीवादी आंदोलनों में प्रयुक्त शब्द बहुत सटीक नहीं है। फासीवादी जानबूझ कर गोलमोल शब्दों का इस्तेमाल करते हैं। और 'मार्क्सवाद' 'समाजवाद' 'कम्युनिज्म' के बीच फर्क नहीं करते और कम्युनिस्ट आंदोलन और सोशल-डेमोक्रेसी के बीच भी फर्क नहीं करते। इन आंदोलनों के संस्थापक और विचारक जब अपने आंदोलन के सिद्धांत परिभाषित करते हैं तो मार्क्सवादी विचारों के नकार से ही शुरू करते हैं। इसके अनगिनत उदाहरण हैं।
    रोज़े ने सही लिखा है कि फासीवादी संगठनों का लक्ष्य है मार्क्सवाद का विरोध करना,साथ मार्क्सवादी  धारणाओं को विकृत करना और उनके बारे में विभ्रम पैदा करना। रोज़े ने अपनी किताब में विस्तार के साथ इटली.जर्मनी,स्पेन आदि के फासीवादी नेताओं के विचारों को उद्धृत करते हुए फासीवाद के विश्वव्यापी साझा कार्यक्रम का उदघाटन किया है।
    रोज़े ने इटली के फासीवादी शासक मुसोलिनी को उद्धृत करते हुए जिन बातों की ओर ध्यान खींचा है ,वे बातें आए दिन संघ परिवार के नेता अपने प्रकाशनों और राजनीतिक कार्यक्रम में व्यक्त करते हैं। रोज़े ने लिखा है-
‘‘21 जून 1921 को सत्ता प्राप्ति के पहले मुसोलिनी ने संसद में मार्क्सवाद के विध्वंस को सारभूत उद्देश्य के रूप में चिह्नित किया था :
'हम अपनी पूरी शक्ति के साथ समाजीकरण, राज्यीकरण और सामूहिकीकरण की कोशिशों का विरोध करेंगे। राजकीय समाजवाद से हम भर पाए। हम आपके जटिल सिद्धांतों, जिन्हें हम सत्य और नियतिविरोधी करार देते हैं, के विरुद्ध अपना सैद्धांतिक संघर्ष छोड़ेंगे नहीं। हम नकारते हैं कि दो वर्गों का अस्तित्व है, क्योंकि और बहुतों का भी अस्तित्व है। हम नकारते हैं कि आर्थिक नियतिवाद के जरिए समस्त मानव-इतिहास की व्याख्या की जा सकती है। हम आपके अतंर्राष्ट्रीयतावाद को नकारते हैं। क्योंकि यह एक बुध्दि-विलास है। इसे केवल उन्नत वर्ग व्यवहार में ला सकते हैं जबकि आम जनता हताश है और अपनी जन्मभूमि से जुड़ी हुई हैं। ’’
     भारत में संघ परिवार का प्रधान एजेण्डा वही है जो एक जमाने में इटली में फासीवादी महानायक मुसोलिनी का था। संघ परिवार और उसके संगठन सरकारीकरण,राष्ट्रीयकरण,सामूहिकीकरण आदि का जमकर प्रतिरोध करते रहे हैं। वे यह भी नहीं मानते कि भारतीय समाज वर्गों में बंटा है। उनके अनुसार भारत में वर्गों का नहीं  जाति और वर्ण का अस्तित्व है। वे यह मानते हैं कि सामाजिक,सांस्कृतिक,राजनीतिक परिवर्तनों को देखने के लिए आर्थिक कारकों को प्रधान और निर्णायक कारक नहीं माना जा सकता। वे कम्युनिस्टों के अंतर्राष्ट्रीयतावाद का विरोध करते हैं लेकिन फासीवादी संगठनों की विचारधारात्मक विश्वव्यापी एकजुटता का प्रच्छन्नतःसमर्थन करते हैं।  

  फासीवाद : सिद्धांत और व्यवहार
  लेखक-  रोजे बूर्दरों
प्रकाशक- ग्रंथ शिल्पी, बी-7,सरस्वती काम्प्लेक्स,सुभाष चौक,लक्ष्मी नगर,दिल्ली-110092
         मूल्य -275  

शनिवार, 15 मई 2010

रामचरित मानस की अर्थ संरचनाएं



       रामचरित मानस लोक-महाकाव्य है। इसके उपयोग और दुरूपयोग की अनंत संभावनाए हैं।लोक-महाकाव्य एकायामी नहीं बल्कि बहुआयामी होता है,इसमें एक नहीं एकाधिक विचारधाराएं होती हैं। इसका पाठ संपूर्ण और बंद होता है किंतु अर्थ- संरचनाएं खुली होती हैं, इसके पाठ की स्वायत्तता पाठ की व्याख्या की समस्त धारणाओं के लिए आज भी चुनौती बनी हुई है। लोक-महाकाव्य का अर्थ कृति में नहीं सामाजिक के मन में होता है।पाठक के इच्छित-भाव की तुष्टि का यह सबसे बड़ा स्रोत है,इतिहास की रचना में इसका व्यापक इस्तेमाल होता है।साथ ही इच्छित इतिहास के निर्माण के लिए इसका व्यापक स्तर पर उपयोग और दुरूपयोग होता रहा है।

हिन्दी में आलोचना खूब लिखी जाती है,किंतु ज्यादातर आलोचना 'कला के लिए कला' की तरह 'आलोचना के लिए आलोचना ' की तर्ज पर लिखी जाती है,हिन्दी में आलोचना की पध्दति और सैध्दान्तिकी का शास्त्र हम आज तक नहीं बना पाए हैं। हमारे पास अभी तक एक भी आलोचना की मुकम्मल किताब नहीं है,आलोचना के बारे में सम्मानजनक ढ़ंग से कहने के लिए कुछ निबंध हैं,कुछ समीक्षाएं हैं,कुछ बहस के लिए लिखी गयी वकीलों जैसी दलीलें हैं,जिनमें हमारे आलोचकगण अपने मुवक्किल की पैरवी करते नजर आते हैं। मसलन् हमारे यहां तुलसीदास के बारे में टनों पन्नो लिखे गए हैं, इसके बावजूद लेवीस्त्रास जैसी एक आलोचना की किताब नहीं है।जिसमें तुलसी के मिथकों का खुलासा किया गया हो और सैध्दान्तिकी भी बनायी गयी हो।

हमारे यहां आलोचना अभी 'केजुअल' कर्म है,मनमाना कार्य है। हिन्दी के आलोचक जब किसी विषय पर लिखते हैं तो 'केजुअल वर्कर' की तरह पेश आते हैं, उन्हें सिलटाने में दिलचस्पी ज्यादा है।वे अभी तक आलोचना को नियमित सैध्दान्तिकी के दर्जे तक नहीं पहुँचा सके हैं। उसका शास्त्र नहीं बना पाए हैं।यही वजह है कि हिन्दी में आलोचना लिखने के लिए अंग्रेजी में लिखी आलोचना के पास जाना होता है, हिन्दी का आलोचना साहित्य हमें किसी भी किस्म की आलोचनात्मक मदद या सलाह नहीं देता।हमें इस समस्या पर गंभीरता से सोचना चाहिए कि आखिरकार ऐसा क्यों हुआ कि हमारी आलोचना अभी तक गंभीर नहीं हो पायी।अंग्रेजी,जर्मन,फ्रेंच,रूसी आदि भाषाओं में आलोचना के महत्वपूर्ण स्कूल मिल जाएंगे,सैध्दान्तिक मॉडल मिल जाएंगे,शोध में सहारे के लिए अच्छे सैध्दान्तिक उध्दरण मिल जाएंगे,किंतु हिन्दी में इन सबका अकाल पड़ा हुआ है। आखिरकार आलोचना के क्षेत्र में हमसे कहां चूक हुई है ?इतनी बड़ी चूक को व्यक्तिगत मामला कहकर टाला नहीं जा सकता।इस दुर्दशा के लिए निश्चित रूप से आलोचकगण जिम्मेदार हैं,किंतु मामले का आलोचक एक छोटा सा हिस्सा है। आलोचना के लिए जिस तरह के संस्थान,अनुसंधान संरचना,माहौल,विवेक, और पध्दति की जरूरत होती है, अकादमिक अनुशासन ,इन्फ्रास्ट्रक्चर ,और शोधार्थी तैयार करने की जरूरत होती है,शोध को गंभीर बनाने और उसका सम्मान करने की जरूरत होती है,उसकी ओर हमने कभी ध्यान नहीं दिया। जबकि हिन्दी में सबसे ज्यादा अनुसंधान होता है,सबसे ज्यादा पीएचडी लिखी जाती हैं,साहित्य के क्षेत्र में हिन्दी में सबसे ज्यादा शिक्षक हैं,किंतु एक भी ऐसा अनुसंधान केन्द्र नहीं है जहां शोध की पध्दति और उसका शास्त्र सिखाया जाता हो ,और गंभीरता से अनुसंधान कार्य किया जाता हो।

हिन्दी में आलोचना का इन्फ्रास्ट्रक्चर तैयार करने की पहली शर्त है कि आलोचना और हिन्दी विभागों को गंभीरता से चेले बनाने,पट्ठे बनाने,पालने,उनकी नियुक्ति कराने के धंधे से मुक्त किया जाए,हिन्दी के विभागों में अकादमिक क्षमता और उसके आधार पर शोध के नए क्षेत्रों को खोला जाए,गंभीरता के साथ शोध की पध्दति और सैध्दान्तिकी के निर्माण की दिशा में प्रयास किए जाएं।

रामकथा के ऊपर विचार करते हुए रवीन्द्रनाथ टैगोर ने प्रश्न उठाया है कि 'राम का चरित्र ऊँचा है कि नीचा,लक्ष्मण का चरित्र हमें अच्छा लगता है कि बुरा,यह आलोचना काफी नहीं है।मौन होकर श्रध्दा के साथ विचा करना होगा कि समस्त भारतवर्ष में हजारों साल से इन्हें किस प्रकार ग्रहण किया है।' यानी रामकथा को किस प्रकार ग्रहण किया है।टैगोर ने लिखा है ' राम का चरित्र मनुष्य का चरित्र होने के नाते ही महिमा से मंडित है।' ... 'रामायण उसी नर चन्द्रमा की कथा है देवता की कथा नहीं।' रामायण में 'देवता ने अपने को छोटा करके मनुष्य को छोटा नहीं बनाया,मनुष्य ही अपने गुण से देवता हो उठा है।' इसी क्रम में रामकथा के एक नए आयाम को उद्धाटित करते हुए टैगोर ने लिखा 'रामायण की प्रधान विशेषता है कि उसने घर की बात को ही बड़ा करके दिखाया है।इसमें केवल कवि का परिचय ही नहीं ,भारतवर्ष का परिचय मिलता है।इससे समझ में आएगा कि गृह और गृहधर्म को भारतवर्ष कितना महत्व देता है।हमारे देश में गृहस्थ-आश्रम का जो इतना ऊँचा स्थान था,इस काव्य में उसी को प्रमाणित किया गया है।गृहस्थाश्रम हमारे सामने सुख के लिए सुविधा के लिए न था। गृहस्थाश्रम पूरे समाज को समेटकर रखता था और मनुष्य को सच्चे अर्थों में मनुष्य बनाता था।गृहस्थाश्रम भारतवर्षीय आर्य समाज की भित्तिा है।' इसी तरह मुक्तिबोध ने लिखा है, ' तत्कालीन मानव संबंध,विश्व-दृष्टि तथा जीवन-मूल्यों के सर्वोच्च प्रतीक राम की मानवता हमें प्रभावित करती है।'भक्ति- आंदोलन की तरह ही रामचरित मानस की केन्द्रीय अभिव्यक्ति प्रेम और ज्ञान केन्द्रित है। इन दोनों ही तत्वों का सामंतवाद से सीधा अन्तर्विरोध है।ज्ञान और प्रेम का संदेश आधुनिक बोध पैदा करता है।तुलसीदास को रामचरित मानस लिखने की प्रेरणा धर्मग्रंथों या देवोपासना से नहीं मिली थी,बल्कि दरिद्रता,भूख और सामाजिक उत्पीडन देखकर प्रेरणा मिली थी। आत्म सम्मान के साथ जीना और मनुष्य के आगे हाथ नहीं पसारना तुलसी की चिंताधारा का मुख्यबिंदु है।रामविलास शर्मा के अनुसार तुलसी की दृष्टि में सबसे बड़ा धर्म है दीनों की सेवा,सबसे बड़ा पाप है उनका उत्पीड़न।वे दुखानुभूति का साधारणीकरण करते हैं।

जिस समय हिन्दी भाषी क्षेत्र में आर्यसमाज के नेतृत्व में समाज-सुधार की लहर चल रही थी,उस समय स्वामी दयानंद सरस्वती की धूम मची हुई थी,सनातनियों के तर्कों का खण्डन करने के लिए उन्होंने उस समय एक किताब प्रकाशित की जिसका नाम था ''सत्यार्थप्रकाश'', इस किताब के अंत में स्वामीजी ने अस्पृश्य किताबों की एक सूची जारी की थी,इसमें तुलसीदास की कृति ''रामचरित मानस'' का पहला नम्बर था,यानी आर्यसमाज के नेता ''रामचरित मानस'' को समाज -सुधार में सबसे बड़ी बाधा मानते थे, वहीं दूसरी ओर आचार्य रामचन्द्र शुक्ल को अपनी इतिहास दृष्टि के लिए सबसे बड़े कवि के रूप में तुलसीदास और कृति के रूप में ''रामचरित मानस'' महत्वपूर्ण लगा।प्रगतिशीलों में रामविलास शर्मा को तुलसी सबसे प्रिय हैं,जबकि रांगेय राघव के लिए सबसे अप्रिय लेखक हैं।मुक्तिबोध को तुलसी का रामचरित मानस सवर्णों के वर्चस्व का औजार लगा और भक्ति-आन्दोलन की निम्नवर्णोंन्मुख धारा को पलटने वाली कृति।उन्होंने तुलसी को सवर्णों के वैचारिक प्रतिनिधि के रूप में व्याख्यायित किया ।

हिन्दी आलोचना की नजर में रामचरित मानस एक ऐतिहासिक पाठ है,ऐतिहासिक पाठ के रूप में ही उसे देखने और व्याख्यायित करने की परंपरा है।मजेदार बात यह है कि 'रामचरित मानस' को जो आलोचक ऐतिहासिक पाठ मानते हैं,वे पाठालोचन के सिध्दान्तों का पालन नहीं करते,यह स्थिति कमोबेश सबके यहां है। हम यह भी कह सकते हैं हिन्दी की आलोचना को उत्पादन के प्रति जितना आकर्षण है,उतनी आलोचना निर्माण,आलोचना पध्दति के निर्माण में उतनी दिलचस्पी नहीं है।यही वजह है कि हिन्दी में पाठालोचन का अकादमिक जगत में एक भी स्कूल निर्मित नहीं हो पाया। बल्कि इसके विपरीत अकादमिक आलोचना के प्रति खास तरीके से घृणा पैदा की गयी।जिससे आलोचना अपनी कमियों से ध्यान हटा सके।

हिन्दी में अकादमिक आलोचना को सम्मान की बजाय घृणा की नजर से देखा गया। दूसरी ओर अकादमिक जगत ने भी इस स्थिति को दुरूस्त करने के लिए कोई उल्लेखनीय कार्य नहीं किया। आलोचना के कठमुल्लेपन का ही यह परिणाम निकला कि जब नामवर सिंह ने 'दूसरी परंपरा' की बात कही तो रामविलासजी भड़क पड़े। यदि कोई व्यक्ति परंपरागत रामचन्द्र शुक्ल-रामविलास शर्मा पंथी आलोचना से इतर नयी साहित्य सैध्दान्तिकी के सहारे किसी कृति को पढ़ना चाहता है तो उसे त्याज्य घोषित कर दिया जाता है।आलोचना की इस मनोदशा में व्याख्या और पुनर्व्याख्या की दृष्टि से भिन्न खास किस्म का सामंतीभाव है जिसमें अन्य किस्म के नजरिए के लिए कोई जगह नहीं है।

हिन्दी में प्रगतिशील आलोचना में एक स्कूल ऐसे विचारकों का रहा है जिनके प्रतिनिधि रांगेय राघव हैं तो दूसरा ग्रुप रामविलास शर्मा का है,हिन्दी में रांगेय राघव की मूल्यांकन दृष्टि में तुलसी को गरियाने का भाव था,तुलसी को खारिज करने का भाव था,उपहास का भाव था,इसी के प्रत्युत्तर में रामविलास शर्मा ने अपने तुलसी संबंधी नजरिए का विकास किया और 'साहित्य समाज का दर्पण है' और 'साहित्य प्रतिबध्द' होता है ,इन दो धारणाओं के आधार पर तुलसी संबंधी अपने मूल्यांकन की आधारशिला रखी, इस क्रम में हिन्दी में मानस के बारे में प्रचलित अध्यात्मवादी मूल्यांकन और संकीर्णतावादी दृष्टियों का जमकर विरोध किया और तुलसी को लोकवादी और जन-जन के पक्षधर कवि के रूप में प्रतिष्ठित किया।

इस क्रम रामविलास शर्मा ने प्रगतिशील लेखक संघ के 1936 और 1938 के घोषणापत्रों में व्यक्त मध्यकालीन साहित्य संबंधी दृष्टिकोण्ा का भी खण्डन किया है। निश्चित रूप से आचार्य रामचन्द्र शुक्ल की आलोचना के पैराडाइम को बदलने में रामविलास शर्मा का महत्वपूर्ण अवदान है।वहीं दूसरी ओर नामवर सिंह ने 'दूसरी परंपरा की खोज' में कबीर को प्रतिष्ठित करने के बहाने आलोचना के परंपरागत रूझान को परंपरा से ही काटने की कोशिश की,नामवर सिंह इस अर्थ में भिन्न हैं कि उन्होंने आलोचना में लकीर के फकीर बने रहने से इंकार किया।यह मूलत: भिन्नता का मार्ग है।

परंपराओं के मूल्यांकन की एकाधिक पध्दतियों को स्वीकार करने का दुस्साहस है,किंतु इसकी भी सीमाएं हैं,इसकी सबसे बड़ी सीमा है द्विवेदीजी के प्रति अनालोचनात्मक भाव।

रामविलास शर्मा के यहां परंपरा एक ही है,नामवर सिंह साहस करके 'दूसरी परंपरा' तक पहुँचते हैं,किंतु इसमें उन्हें अपने गुरू हजारीप्रसाद द्विवेदी से भिन्न परंपरा दिखाई नहीं देती,वरन यह कैसे हो सकता है कि परंपरा का सारा विवाद शुक्ल -द्विवेदी जी के इर्द-गिर्द ही परिक्रमा कर रहा है।दोनों आलोचकों में कई बुनियादी साम्य हैं,पहला साम्य यह है कि दोनों मिथकीय आधार पर दो काव्य धाराएं मानते हैं,रामभक्ति और कृष्णभक्तिधारा। निर्गुण और सगुण और राम और कृष्णभक्ति काव्य परंपरा के नाम पर स्त्री-दलित विरोधी पैराडाइम तैयार किया गया,इस पैराडाइम की धुरी है पितृसत्तात्मक विचारधारा।इस पैराडाइम को समग्रता में उद्धाटित करने की जरूरत है। हिन्दी की पहली और दूसरी परंपरा को तरह-तरह से खाद -पानी देने का काम हिन्दी आलोचना करती रही है।कायदे से हिन्दी में साहित्य,दलित साहित्य और स्त्री साहित्य ये तीन परंपराएं मिलती हैं।इनका स्वतंत्र आधार है साथ ही इनमें संपर्क भी है।रामविलास शर्मा-नामवर सिंह की आलोचना में दूसरा साम्य यह है कि दोनों स्त्री और दलित काव्य परंपरा को अस्वीकार करते हैं, तीसरा साम्य यह है दोनों ने विचारधारा के रूप में पितृसत्ता की उपेक्षा की है।मजेदार बात यह है एक को तुलसी पसंद है तो दूसरे को कबीर, दोनों ने मीराबाई को केन्द्र में नहीं रखा, कबीर को महान् बनाने के नाम पर कबीर को दलित परंपरा के बाहर ले जाकर हजम करने का प्रयास किया गया,कबीर को साहित्य के पैराडाइम पर रखकर परखा गया,जबकि कबीर को दलित साहित्य के पैराडाइम पर रखकर देखा जाना चाहिए। सवाल यह है कि क्या साहित्य की आलोचना का धर्मनिरपेक्ष आधार स्त्री,दलित और पितृसत्ता के बिना तैयार होता है ?जी नहीं,धर्मनिरपेक्ष आलोचना परंपरा के निर्माण के लिए स्त्री,दलित और पितृसत्ता की उपेक्षा संभव नहीं है। इन तीनों से रहित आलोचना को धर्मनिरपेक्ष आलोचना नहीं कहा जा सकता है।

गुरुवार, 22 अप्रैल 2010

डिजिटल युग में लघुपत्रिकाओं की समस्याएं

        डिजिटल की दुनिया ने हमारे रचना संसार के सभी उपकरणों पर कब्जा जमा लिया है। लघुपत्रिका अथवा साहित्यिक पत्रकारिता जब शुरू हुई थी तो हमने यह सोचा ही नहीं था कि ये पत्रिकाएं क्या करने जा रही हैं। हमारी पत्रकारिता और पत्रकारिता के इतिहासकारों ने कभी गंभीरता से मीडिया तकनीक के चरित्र की गंभीरता से मीमांसा नहीं की। हम अभी तक नहीं जानते कि आखिरकार ऐसा क्या घटा जिसके कारण लघु पत्रिकाएं अभी भी निकल रही हैं।
      आर्थिक दृष्टि से लघु पत्रिका निकालना घाटे का सौदा साबित हुआ है। लघु पत्रिका प्रकाशन अभी भी निजी प्रकाशन है। इस अर्थ में लघु पत्रिका प्रकाशन को निजी क्षेत्र की गैर-कारपोरेट उपलब्धि कहा जा सकता है। संभवत: निजी क्षेत्र में इतनी सफलता अन्य किसी रचनात्मक प्रयास को नहीं मिली। लघु पत्रिकाओं क प्रकाशन को वस्तुत: गैर-व्यावसायिक पेशेवर प्रकाशन कहना ज्यादा सही होगा। समाज में अभी भी अनेक लोग हैं जो लघुपत्रिका को व्यवसाय के रूप में नहीं देखते, बल्कि उसे लघुपत्रिका आंदोलन कहना पसंद करते हैं। वे क्यों इसे लघुपत्रिका आंदोलन कहते हैं ,यह बात किसी भी तर्क से प्रकाशन की मीडिया कसौटी पर खरी नहीं उतरती।
   लघु पत्रिका प्रकाशन की अपनी दुनिया वहीं है जो प्रकाशन की दुनिया है। फ़र्क इसके चरित्र और भूमिका को लेकर है। आप जितना बेहतर और वैज्ञानिक ढ़ंग से प्रिंट टैकनोलॉजी के इतिहास से वाकिफ होंगे। उतने ही बेहतर ढ़ंग से लघुपत्रिका प्रकाशन को समझ सकते हैं। लघु पत्रिकाओं की आवश्यकता हमारे यहां आज भी है, कल भी थी, भविष्य में भी होगी। लघुपत्रिका का सबसे बड़ा गुण है कि इसने संपादक और लेखक की अस्मिता को सुरक्षित रखा है। हमें जानना चाहिए कि कैसे संपादक की सत्ता और लेखक की पहचान का प्रतिष्ठानी प्रेस अथवा व्यावसायिक प्रेस में लोप हो गया ?
    आज प्रतिष्ठानी प्रेस में संपादक है ,लेखक हैं ,किंतु उनकी कलम और बुद्धि पर नियंत्रण किसी और का है,विज्ञापन कंपनियों का है। संपादक लेखक,स्तंभकार और संवाददाता  की सत्ता को विज्ञापन एजेंसियों ने रूपान्तरित कर दिया है। आज विज्ञापन एजेंसियां तय करती हैं कि किस तरह की खबरें होंगी, किस साइज में खबरें होंगी, किन विषयों पर संपादकीय सामग्री होगी ? किस तरह की भाषा का इस्तेमाल किया जाना चाहिए। इस समूची प्रक्रिया के व्यवसायिक समाचारपत्र और पत्रिका जगत पर क्या असर हुए हैं, इसके बारे में हमने कभी गंभीरता के साथ विचार नहीं किया। हमने कभी यह सोचा ही नहीं कि जब पहलीबार समाचारपत्र आया तो उसने क्या किया और जब समाचारपत्र में विज्ञापन दाखिल हो गया तो क्या बदलाव आने शुरू हुए, लघु पत्रिका प्रकाशन भी इस प्रक्रिया से प्रभावित हुआ है। इन सबको लेकर हमारे पास कुछ अनुभव हैं, कुछ संस्मरण हैं। कुछ किंदन्तियां हैं। किंतु भारत के कम्युनिकेशन तकनीक के इतिहास और उसके परिणामों की कभी गंभीरता से पड़ताल नहीं की। लंबे समय तक हम साहित्य के एक हिस्से के तौर पर लघपत्रिकाओं अथवा साहित्यिक पत्रिकाओं को देखते रहे, उनमें प्रकाशित सामग्री का हमने मीडिया सैध्दान्तिकी अथवा आलोचना के नजरिए से कभी मूल्यांकन ही नहीं किया। यहां तक कि एक स्वतंत्र मीडिया रूप के तौर पर पत्रिकाओं की सत्ता को हमने कभी स्वीकार नहीं किया।
  आज जब हम बातें कर रहे हैं तो स्थिति में कोई मूलगामी किस्म का परिवर्तन नहीं आया है। सिर्फ एक परिवर्तन आया है हमने पत्र-पत्रिकाओं के इतिहास को साहित्य के इतिहास से अलग करके स्वतंत्र रूप से पत्रकारिता के इतिहास के रूप में पढ़ाना शुरू कर दिया है। पत्र-पत्रिकाओं को स्वतंत्र रूप से पढ़ाने से मामला हल नहीं हो जाता, बल्कि और भी पेचीदा हो उठा है।
    समाचारपत्र का इतिहास हो या लघुपत्रिका का इतिहा हो, इसकी सही समझ तब ही बनेगी जब हम कम्युनिकेशन तकनीक के इतिहास से वाकिफ होंगे। हमारी मुश्किल अभी यहीं पर बनी हुई है, हमें साहित्य से प्रेम है, पत्रिकाओं से प्रेम है, किंतु तकनीक से प्रेम नहीं है। अगर हमारा तकनीक से प्रेम होता तो हम उसके इतिहास को जानने की कोशिश करते।
    हिन्दी में संपादक - लेखकों का एक तबका तैयार हुआ है जो धंधेखोरों की तरह लघुपत्रिका आंदोलन के नाम पर टटुपूंजिया दुकानदारी कर रहा है। इसके बावजूद ये स्वनाम-धन्य विद्वान यह मानकर चल रहे हैं कि लघुपत्रिकाओं के सबसे बड़े हितचिन्तक वे हैं। जबकि सच यह है कि ऐसे संपादकों की बाजार में कोई साख नहीं है। वे अपनी किताबों की बिक्री तक नहीं कर पाते। अपनी पत्रिका को बेच तक नहीं पाते। हमें यह देखना होगा कि लघुपत्रिकाएं क्या साहित्यिक अभिरूचि पैदा करने का काम कर रही हैं अथवा कुछ और काम कर रही हैं ? क्या हमारी लघु पत्रिकाओं ने कभी इस तथ्य पर गौर किया कि कैसे विगत तीस सालों में भारत के पत्रिका प्रकाशन में विस्फोट हुआ है।
   आज पत्रिका प्रकाशन सबसे प्रभावी व्यवसाय है। एक जमाना था जब सारिका,दिनमान, धर्मयुग आदि को विभिन्न बहाने बनाकर बंद किया गया था, किंतु आज स्थिति यह है कि पत्रिका प्रकाशन अपने पैरों पर खड़ा हो चुका है। आज बाजार में सभी भाषाओं में पत्रिकाओं की बाढ़ आई हुई है। बड़े पैमाने पर पत्रिकाएं बिक रही हैं। अपना बाजार बना रही हैं। लघुपत्रिका का प्रकाशन अभी कम मात्रा में होता है। हंस,पहल,उद्भावना,आलोचना जैसी पत्रिकाएं पांच-सात हजार का आंकड़ा पार नहीं कर पायी हैं। जबकि छोटे से कस्बे से निकलने वाली धार्मिक पत्रिका लाखों की तादाद में बिक रही हैं। हमें बेचने की कला को धार्मिक पत्रिकाओं से सीखना चाहिए। बड़े प्रतिष्ठानी प्रेस ने धार्मिक पत्रिकाओं से यह गुण सीखा है और आज बाजार में हर विषय की एकाधिक पत्रिकाएं मिल जाएंगी ,जिनकी साधारण तौर पर इनकी बिक्री हमारी प्रतिष्ठित पत्रिकाओं से कई गुना ज्यादा है। धार्मिक पत्रिकाओं से सीखने की बात मैं इसलिए कर रहा हूँ कि आप पत्रिका निकालना यदि चाहते हैं तो दूसरों से सीख लें।
   लघुपत्रिका की सबसे बड़ी कमजोरी यह है कि वह अपने पाठक की अभिरूचियों को नहीं जानती, अपने पाठक को नहीं जानती, वह सिर्फ साहित्य ,विचारधारा और साहित्यकार को जानती है, उसमे भी वह संकुचित भाव से चयन करती है। यह तो कुल मिलाकर कंगाली में आटा गीला वाली कहावत चरितार्थ हो गयी।
    हमारी लघु पत्रिकाओं का समूचा नजरिया विधा केन्द्रित सामग्री प्रस्तुति पर ही केन्द्रित रहा है। हमने विधा केन्द्रित पैमाना 19वीं  शताब्दी में चुना था, वह पैमाना आज भी बरकरार है, उसमें परिवर्तन की रूरत हमने महसूस नहीं की। हम यह भूल ही गए कि पाठक की भी अभिरूचियां होती हैं। पाठक का भी नजरिया होता है, हम संपादक की रूचि जानते हैं, लेखक का नजरिया जानते हैं किंतु लघु पत्रिकाओं को पढ़कर आप पाठक को नहीं जान सकते। हमें इस सवाल पर गंभीरता के साथ विचार करना चाहिए कि क्या गैर-पेशेवर ढ़ंग से लघु पत्रिका प्रकाशन संभव है ? क्या उसका कोई भविष्य है।
   हमें पाठक की अभिरूचि और साहित्य की स्वायत्तता को केन्द्र में रखकर लघुपत्रिका प्रकाशन करना चाहिए। साथ ही इस पहलू पर भी गौर करना चाहिए कि साहित्य की परिभाषा बदल गयी है ? आज साहित्य की वही परिभाषा नहीं रह गई है जो आज से पचास या पच्चीस साल पहले थी। लघु पत्रिका का संसार साहित्य के बदले हुए स्वरूप को परिभाषित किए बिना आगे चला जा रहा है। इस संदर्भ में आलोचना पत्रिका के पुनर्प्रकाशन को प्रस्थान बिंदु के रूप में विश्लेषित करने की जरूरत है। आलोचना पत्रिका का जब पुनर्प्रकाशित हुई तो उसका पहला अंक फासीवाद पर आया। सवाल किया जाना चाहिए कि इस अंक से पहले भी अनेक राजनीतिफिनोमिना आए किंतु उन पर कभी आलोचना पत्रिका के संपाक का ध्यान नहीं गया। मेरा इशारा आपात्काल की तरफ है, आलोचना पत्रिका के द्वारा आपात्काल के बारे में एकदम चुप्पी और साम्प्रदायिकता पर  विशेष अंक इसका क्या अर्थ है ? इस प्रसंग को इसलिए सामने पेश कर रह हूँ कि आप यह जान लें कि विगत पच्चीस वर्षों लघु पत्रिकाएं आम तौर पर उन विषयों पर सामग्री देती रही हैं जो सत्ता प्रतिष्ठानों ने हमारे लिए तैयार किए हैं।
    लघुपत्रिका का विमर्श सत्ता विमर्श नहीं है। लघुपत्रिकाएं  पिछलग्गू विमर्श का मंच नहीं हैं। ये पत्रिकाएं मौलिक सृजन का मंच हैं। साम्प्रदायिकता का सवाल हो या धर्मनिरपेक्षता का प्रश्न हो अथवा ग्लोबलाईजेशन का प्रश्न हो हमारी पत्रिकाएं सत्ता विमर्श को ही परोसती रही हैं। सत्ता विमर्श कैसे परोसा जाता है इसका आदर्श नमूना है लघु पत्रिकाओं में चलताऊ ढ़ंग से सामयिक प्रश्नों पर छपने वाली टिप्पणियां। लघु पत्रिका का चरित्र सत्ता के चरित्र से भिन्न होता है, यह बात सबसे पहले भारतेन्दु ने समझी किंतु हमारे नए संपादकगण अभी तक नहीं समझ पाए हैं। लघुपत्रिका की हमारी अवधारणा में भी गंभीर समस्याएं हैं। लघु पत्रिकाओं में कारपोरेट जगत की पत्रिकाओं की समस्त बीमारियां घर कर गयी हैं। जिस तरह कारपोरेट घरानों की पत्रिकाओं में पक्षपात होता है,खासकर रचना के चयन को लेकर, लेखक के चयन को लेकर, जिस तरह कारपोरेट पत्रिकाओं के लिए विज्ञापनदाता महत्वपूर्ण और निर्णायक होता है। उसके आधार पर पक्षपात होता है ,ठीक वैसे ही लघु पत्रिकाओं में भी पक्षपात का गुण विचारधारा विशेष के प्रति आग्रह के रुप में कैंसर की तरह घर कर चुका है।
     लघुपत्रिकाओं को दो कमजोरियों से मुक्त करने की जरूरत है , पहला है 'विचारधारात्मक पक्षपात', दूसरा है ' निर्भरता'। ये दोनों ही तत्व लघुपत्रिकाओं के स्वाभाविक विकास में सबसे बड़ी बाधा हैं।  दूसरी प्रधान समस्या है जो लघुपत्रिका की धारणा से जुड़ी है। अभी हम जिस लघुपत्रिका को निकाल रहे हैं उसके केन्द्र में संस्कृति है। संस्कृति को ही संदर्भ बनाकर हम साहित्य का चयन करते हैं। जबकि सारी दुनिया में संस्कृति के संदर्भ के आधार पर चयन नहीं हो रह, बल्कि अभिरूचि और जीवनशैली के आधार पर सामग्री चयन हो रहा है।
    यदि लघुपत्रिकाएं साहित्य,राजनीति, अर्थनीति, विज्ञान आदि पर केन्द्रित सामग्री प्रकाशित करती हैं तो उन्हें इस संदर्भ में पेशेवर र विशेषज्ञता को ख्याल में रखना चाहिए। हिन्दी के लेखकों का आलम यह है कि वे सभी विषयों के ऊपर लिख सकते हैं और वेकिसी भी क्षेत्र की विशेष जानकारी हासिल नहीं कना चाहते। मौलिक लेखन के नाम पर प्रतिष्ठित लघुपत्रिकाओं में जिस तरह की घटिया और स्तरहीन सामग्री प्रकाशित होती है इसने पाठकों को लघुपत्रिकाओं से दूर किया है। आज स्थिति यह है कि विशेषज्ञान के बिना काम चलने वाला नहीं है। विशेषज्ञता हासिल किए बिना आप स्वीकृति नहीं पा सकते।
   आखिरी समस्या सबसे गंभीर समस्या है जिस  पर गौर किया जाना चाहिए। आज हम डिजिटल के युग में आ गए हैं। हमें पत्रिका को डिजिटल रूप में प्रकाशित करना चाहिए, सीडी और वेबसाइट पत्रिका के रूप में प्रकाशित करना चाहिए।  डिजिटल प्रकाशन पत्रिका प्रकाशन से सस्ता और व्यापक है। इसकी पहुँच दूर-दूर तक है। आप चाहें तो अपनी वेब पत्रिका के लिए सस्ते विज्ञापन भी ले सकते हैं। हमें यह तथ्य ध्यान में रखना चाहिए कि मौजूदा दौर लाइब्रेरी का नहीं है, डिजिटल लाइब्रेरी का है।          

रविवार, 18 अप्रैल 2010

अमेरिकी विरोध के तर्कों को छिपाते चैनल

      टेलीविजन चैनलों का अमेरिका के साथ मूलत: वैचारिक याराना है।शायद ही कोई चैनल हो जिस पर अमेरिका का भूत सवार न हो।समाचार चैनलों की अंतर्राष्ट्रीय खबरों में अमेरिकी विदेश नीति का समर्थन आम बात है।वहीं दूसरी ओर मनोरंजन कार्यक्रमों में अमेरिकी मूल्यों,विश्वासों और संस्कारों का देशज चरित्रों और देशज कथानकों की आड़ में व्यापक तौर पर इस्तेमाल सामान्य फिनोमिना है।चैनल संस्कृति वस्तुत: अमेरिकी संस्कृति का पर्याय बन चुकी है।ऐसी अवस्था में चैनलों में अमेरिकी विरोध के स्वर खोजना बेहद मुश्किल कार्य है। इसके बावजूद अल-जजीरा जैसे चैनल भी हैं जिनमें अमेरिकी विरोध को व्यापक अभिव्यक्ति का अवसर मिला है।
    अरब देशों की अधिकांश सरकारों के अमेरिकी समर्थक हो जाने के बावजूद अधिकांश अरब जनता अमेरिका विरोधी है। यह स्थिति तब है जबकि अरब देशों में जनतंत्र का विकास नहीं हो पाया है। चैनलों की दुनिया पर अमेरिकी बहुराष्ट्रीय कंपनियों की इजारेदारी है।इसके बावजूद विश्व स्तर और खासकर अरब जगत में अमेरिकी विरोध तेजी से बढ़ रहा है। इसके निम्न कारण हैं -
   (1)अमेरिका अबाधित उपभोग का प्रतीक है।यही वजह है कि मैकडोनाल्ड के रेस्तारांओं पर आए दिन हमले या विरोध प्रदर्शन होते रहते हैं। आए दिन अमेरिकी मालों के बहिष्कार की मांग उठती रहती है।अमेरिकी मालों या मैकडोनाल्ड के उपभोक्ता ऐसे वर्ग के लोग हैं जो सिर्फ खाते हैं। खाने के अलावा और कुछ नहीं करते। मैकडोनाल्ड संस्कृति ऐसी अवस्था की ओर संकेत करती है  जिसमें धनी लोग मरणासन्न अवस्था की ओर जा रहे हैं।शरीर को इकहरा बनाए रखने के लिए अरबों डालर की डाइटिंग इण्डस्ट्री का निर्माण किया गया है।एक अनुमान के अनुसार डाइटिंग इण्डस्ट्री का सालाना कारोबार 33 विलियन डालर से ज्यादा का है।धनी लोग डाइटिंग पर अरबों डालर ऐसी अवस्था में खर्च कर रहे हैं जब सारी दुनिया में सालाना लाखों गरीब बगैर भोजन के मर रहे हैं।यह एक तरह का आत्म विध्वंसक निहित स्वार्थ है जिसका विरोध किया जाना चाहिए।
     (2)अमेरिका ऐसी सत्ता है जिसे दण्डित नहीं किया जा सकता।इसे कैसे दण्डित किया जाए इस पर सोचा जाना चाहिए।बेल्जियम की अदालत में एक याचिका इराक में युद्धापराधों के संदर्भ में अमेरिकी गठबंधन सेना के प्रमुख टॉमी फ्रैंक एवं अन्य सैन्य अधिकारियों के खिलाफ दायर की है। जिसमें 21युद्धापराधों को सूचीबद्ध किया है। यदि इस याचिका के आधार पर अमेरिकी सैन्य अधिकारियों के खिलाफ कार्रवाई होती है तो बड़ी बात होगी। हमें सोचना चाहिए कि अमेरिका के खिलाफ आज तक कभी युद्धापराध का कोई फैसला क्यों नहीं हुआ ?निकारागुआ के मामले में एक मर्तबा फैसला हुआ था किंतु लागू नहीं हो पाया।अमेरिका विरोधी भावबोध के लिए यह जरूरी है कि युद्धापराध, मानवाधिकारों के हनन,किसी भी संप्रभु राष्ट्र की संप्रभुता पर हमले के खिलाफ मुकदमा चलाने का प्रावधान होना चाहिए।
     (3)अमेरिकी संस्कृति से घृणा का संभवत: यह भी कारण हो सकता है कि अमेरिकी चैनलों की पैकेजिंग की नकल संभव नहीं है।सीएनएन या फॉक्स जैसे चैनलों में समाचारों में रिपोर्टिंग के दौरान साफ-सुथरे,चमकीले दांतों वाले,चमकदार,सलीके से बाल काड़े हुए,सब समय मुस्कराते, हमेशा  प्रत्येक परिस्थिति में निर्भीक और सुंदर दिखने वाले संवाददाताओं को देखकर सिर्फ यही विचार पैदा होता है कि यह सब सिर्फ काले जादू से ही संभव है।ये ऐसे लोग हैं जो कभी बूढ़े नहीं होते,कभी मुरझाते नहीं हैं,उनके चेहरों पर कभी उदासी नहीं आती,कष्ट दिखाई नहीं देता,वे कभी थकते नहीं हैं,जनता से डरते नहीं हैं।
     (4)सारी दुनिया में अमेरिका के खिलाफ घृणा का यह भी कारण है कि अमेरिका ने धर्म का अपहरण कर लिया है। धर्म को साम्राज्यवाद और धार्मिक तत्ववादियों के हवाले कर दिया है।आज धर्म बंदूक की नोंक पर जिंदा है।यही वजह है कि धर्मप्राण जनता में अमेरिका के प्रति तीव्र घृणा दिखाई दे रही है।
     (5)बहुराष्ट्रीय चैनलों को गौर से देखें तो पाएंगे कि वहां पर वही जाने-पहचाने चेहरे रोज,प्रति घंटे आते हैं। और सिर्फ बातें करते हैं।उल्लेखनीय है कि अमेरिकी हमेशा बहस करते हैं, बातें करते हैंघटनाओं पर चर्चा करते हैं किंतु कभी एक्शन का सामना करते नजर नहीं आएंगे।वे ऐसे मनुष्य हैं जो गूंगे हैं।ये ऐसे लोग हैं जो झूठ बोलते हैं।सच को छिपाते हैं।साधारण और निर्दोष लोगों की हत्या के लिए किसी भी हद तक जा सकते हैं।इराक के मामले में यही सब कुछ देखा गया।
     (6)सच यह है कि अमेरिका के साथ रहकर कोई तटस्थ नहीं रह सकता।साथ ही अमेरिका का पक्ष लेकर सत्य भी नहीं बोल सकता।
    (7)अमेरिका का मानवाधिकारों को लेकर दोमुंहा व्यवहार रहा है।वह मानवाधिकारों पर किस तरह का रूख रखता है इसका सबूत यह है कि हाल ही में संयुक्त राष्ट्र संघ मानवाधिकार आयोग में अमेरिका ने इराक में मानवाधिकारों के हनन को लेकर पेश किए गए प्रस्ताव को ठुकरा दिया।यह प्रस्ताव रूस,सीरिया,सूडान,मलेशिया, लीविया, बुरखीना पासो,जिम्बाबे और अल्जीरिया ने पेश किया था। जबकि इसी संस्था ने चेचेन्या,यूगोस्लाविया,रवाण्डा,पूर्वी तीमूर,इजराइल द्वारा अधिकृत फिलिस्तीनी क्षेत्रों में मानवाधिकारों के उल्लंघन पर बहस की थी।किंतु यह खबर चैनलों से नदारत थी।
   समाचार चैनलों की मुश्किल यह है कि वे जो खबरें देते हैं उनके बारे में विस्तार से या विश्लेषण के साथ सूचनाएं नहीं देते। 
   

मंगलवार, 13 अप्रैल 2010

सामंतीभाव में कैद है हिन्दी आलोचना और आलोचक

हिन्दी आलोचना की नजर में रामचरित मानस एक ऐतिहासिक पाठ है,ऐतिहासिक पाठ के रूप में ही उसे देखने और व्याख्यायित करने की परंपरा है।मजेदार बात यह है कि 'रामचरित मानस' को जो आलोचक ऐतिहासिक पाठ मानते हैं,वे पाठालोचन के सिध्दान्तों का पालन नहीं करते,यह स्थिति कमोबेश सबके यहां है। 
   हिन्दी आलोचना को उत्पादन के प्रति जितना आकर्षण है,उतनी आलोचना निर्माण,आलोचना पध्दति के निर्माण में उतनी दिलचस्पी नहीं है। यही वजह है कि हिन्दी में पाठालोचन का अकादमिक जगत में एक भी स्कूल निर्मित नहीं हो पाया।  इसके विपरीत अकादमिक आलोचना के प्रति खास तरीके से घृणा पैदा की गयी।जिससे आलोचना अपनी कमियों से ध्यान हटा सके।हिन्दी में अकादमिक आलोचना को सम्मान की बजाय घृणा की नजर से देखा गया। 
     दूसरी ओर अकादमिक जगत ने भी इस स्थिति को दुरूस्त करने के लिए कोई उल्लेखनीय कार्य नहीं किया। आलोचना के कठमुल्लेपन का ही यह परिणाम निकला कि जब नामवर सिंह ने  'दूसरी परंपरा' की बात कही तो रामविलासजी भड़क पड़े। यदि कोई व्यक्ति परंपरागत रामचन्द्र शुक्ल-रामविलास शर्मा पंथी आलोचना से इतर नयी साहित्य सैध्दान्तिकी के सहारे किसी कृति को पढ़ना चाहता है तो उसे त्याज्य घोषित कर दिया जाता है।
    आलोचना की इस मनोदशा में व्याख्या और पुनर्व्याख्या की दृष्टि से भिन्न खास किस्म का सामंतीभाव है जिसमें अन्य किस्म के नजरिए के लिए कोई जगह नहीं है।हिन्दी में प्रगतिशील आलोचना में एक स्कूल ऐसे विचारकों का रहा है जिनके प्रतिनिधि रांगेय राघव हैं तो दूसरा ग्रुप रामविलास शर्मा का है,हिन्दी में रांगेय राघव की मूल्यांकन दृष्टि में तुलसी को गरियाने का भाव था,तुलसी को खारिज करने का भाव था,उपहास का भाव था,इसी के प्रत्युत्तर में रामविलास शर्मा ने अपने तुलसी संबंधी नजरिए का विकास किया और 'साहित्य समाज का दर्पण है' और 'साहित्य प्रतिबध्द' होता है ,इन दो धारणाओं के आधार पर तुलसी संबंधी अपने मूल्यांकन की आधारशिला रखी, इस क्रम में हिन्दी में मानस के बारे में प्रचलित अध्यात्मवादी मूल्यांकन और संकीर्णतावादी दृष्टियों का जमकर विरोध किया और तुलसी को लोकवादी और जन-जन के पक्षधर कवि के रूप में प्रतिष्ठित किया।इस क्रम रामविलास शर्मा ने प्रगतिशील लेखक संघ के 1936 और 1938 के घोषणापत्रों में व्यक्त मध्यकालीन साहित्य संबंधी दृष्टिकोण्ा का भी खण्डन किया है। निश्चित रूप से आचार्य रामचन्द्र शुक्ल की आलोचना के पैराडाइम को बदलने में रामविलास शर्मा का महत्वपूर्ण अवदान है।वहीं दूसरी ओर नामवर सिंह ने 'दूसरी परंपरा की खोज' में कबीर को प्रतिष्ठित करने के बहाने आलोचना के परंपरागत रूझान को परंपरा से ही काटने की कोशिश की,नामवर सिंह इस अर्थ में भिन्ना हैं कि उन्होंने आलोचना में लकीर के फकीर बने रहने से इंकार किया।यह मूलत: भिन्नता का मार्ग है।
     परंपराओं के मूल्यांकन की एकाधिक पध्दतियों को स्वीकार करने का दुस्साहस है,किंतु इसकी भी सीमाएं हैं,इसकी सबसे बड़ी सीमा है द्विवेदीजी के प्रति अनालोचनात्मक भाव। रामविलास शर्मा के यहां परंपरा एक ही है,नामवर सिंह साहस करके 'दूसरी परंपरा' तक पहुँचते हैं,किंतु इसमें उन्हें अपने गुरू हजारीप्रसाद द्विवेदी से भिन्ना परंपरा दिखाई नहीं देती,वरन यह कैसे हो सकता है कि परंपरा का सारा विवाद शुक्ल -द्विवेदी जी के इर्द-गिर्द ही परिक्रमा कर रहा है।
     दोनों आलोचकों में कई बुनियादी साम्य हैं,पहला साम्य यह है कि दोनों मिथकीय आधार पर दो काव्य धाराएं मानते हैं,रामभक्ति और कृष्णभक्तिधारा। निर्गुण और सगुण और राम और कृष्णभक्ति काव्य परंपरा के नाम पर स्त्री-दलित विरोधी पैराडाइम तैयार किया गया,इस पैराडाइम की धुरी है पितृसत्तात्मक विचारधारा।इस पैराडाइम को समग्रता में उद्धाटित करने की जरूरत है। हिन्दी की पहली और दूसरी परंपरा को तरह-तरह से खाद -पानी देने का काम हिन्दी आलोचना करती रही है।कायदे से हिन्दी में साहित्य,दलित साहित्य और स्त्री साहित्य ये तीन परंपराएं मिलती हैं।इनका स्वतंत्र आधार है साथ ही इनमें संपर्क भी है। 
     रामविलास शर्मा-नामवर सिंह की आलोचना में  दूसरा साम्य यह है कि दोनों स्त्री और दलित काव्य परंपरा को अस्वीकार करते हैं, तीसरा साम्य यह है दोनों ने विचारधारा के रूप में पितृसत्ताा की उपेक्षा की है।मजेदार बात यह है एक को तुलसी पसंद है तो दूसरे को कबीर, दोनों ने मीराबाई को केन्द्र में नहीं रखा, कबीर को महान् बनाने के नाम पर कबीर को दलित परंपरा के बाहर ले जाकर हजम करने का प्रयास किया गया,कबीर को साहित्य के पैराडाइम पर रखकर परखा गया,जबकि कबीर को दलित साहित्य के पैराडाइम पर रखकर देखा जाना चाहिए। सवाल यह है कि क्या साहित्य की आलोचना का धर्मनिरपेक्ष आधार स्त्री,दलित और पितृसत्ता के बिना तैयार होता है ?जी नहीं,धर्मनिरपेक्ष आलोचना परंपरा के निर्माण के लिए स्त्री,दलित और पितृसत्ता की उपेक्षा संभव नहीं है। इन तीनों से रहित आलोचना को  धर्मनिरपेक्ष आलोचना नहीं कहा जा सकता है।