डिजिटल की दुनिया ने हमारे रचना संसार के सभी उपकरणों पर कब्जा जमा लिया है। लघुपत्रिका अथवा साहित्यिक पत्रकारिता जब शुरू हुई थी तो हमने यह सोचा ही नहीं था कि ये पत्रिकाएं क्या करने जा रही हैं। हमारी पत्रकारिता और पत्रकारिता के इतिहासकारों ने कभी गंभीरता से मीडिया तकनीक के चरित्र की गंभीरता से मीमांसा नहीं की। हम अभी तक नहीं जानते कि आखिरकार ऐसा क्या घटा जिसके कारण लघु पत्रिकाएं अभी भी निकल रही हैं।
आर्थिक दृष्टि से लघु पत्रिका निकालना घाटे का सौदा साबित हुआ है। लघु पत्रिका प्रकाशन अभी भी निजी प्रकाशन है। इस अर्थ में लघु पत्रिका प्रकाशन को निजी क्षेत्र की गैर-कारपोरेट उपलब्धि कहा जा सकता है। संभवत: निजी क्षेत्र में इतनी सफलता अन्य किसी रचनात्मक प्रयास को नहीं मिली। लघु पत्रिकाओं के प्रकाशन को वस्तुत: गैर-व्यावसायिक पेशेवर प्रकाशन कहना ज्यादा सही होगा। समाज में अभी भी अनेक लोग हैं जो लघुपत्रिका को व्यवसाय के रूप में नहीं देखते, बल्कि उसे लघुपत्रिका आंदोलन कहना पसंद करते हैं। वे क्यों इसे लघुपत्रिका आंदोलन कहते हैं ,यह बात किसी भी तर्क से प्रकाशन की मीडिया कसौटी पर खरी नहीं उतरती।
लघु पत्रिका प्रकाशन की अपनी दुनिया वहीं है जो प्रकाशन की दुनिया है। फ़र्क इसके चरित्र और भूमिका को लेकर है। आप जितना बेहतर और वैज्ञानिक ढ़ंग से प्रिंट टैक्नोलॉजी के इतिहास से वाकिफ होंगे। उतने ही बेहतर ढ़ंग से लघुपत्रिका प्रकाशन को समझ सकते हैं। लघु पत्रिकाओं की आवश्यकता हमारे यहां आज भी है, कल भी थी, भविष्य में भी होगी। लघुपत्रिका का सबसे बड़ा गुण है कि इसने संपादक और लेखक की अस्मिता को सुरक्षित रखा है। हमें जानना चाहिए कि कैसे संपादक की सत्ता और लेखक की पहचान का प्रतिष्ठानी प्रेस अथवा व्यावसायिक प्रेस में लोप हो गया ?
आज प्रतिष्ठानी प्रेस में संपादक है ,लेखक हैं ,किंतु उनकी कलम और बुद्धि पर नियंत्रण किसी और का है,विज्ञापन कंपनियों का है। संपादक लेखक,स्तंभकार और संवाददाता की सत्ता को विज्ञापन एजेंसियों ने रूपान्तरित कर दिया है। आज विज्ञापन एजेंसियां तय करती हैं कि किस तरह की खबरें होंगी, किस साइज में खबरें होंगी, किन विषयों पर संपादकीय सामग्री होगी ? किस तरह की भाषा का इस्तेमाल किया जाना चाहिए। इस समूची प्रक्रिया के व्यवसायिक समाचारपत्र और पत्रिका जगत पर क्या असर हुए हैं, इसके बारे में हमने कभी गंभीरता के साथ विचार नहीं किया। हमने कभी यह सोचा ही नहीं कि जब पहलीबार समाचारपत्र आया तो उसने क्या किया और जब समाचारपत्र में विज्ञापन दाखिल हो गया तो क्या बदलाव आने शुरू हुए, लघु पत्रिका प्रकाशन भी इस प्रक्रिया से प्रभावित हुआ है। इन सबको लेकर हमारे पास कुछ अनुभव हैं, कुछ संस्मरण हैं। कुछ किंदन्तियां हैं। किंतु भारत के कम्युनिकेशन तकनीक के इतिहास और उसके परिणामों की कभी गंभीरता से पड़ताल नहीं की। लंबे समय तक हम साहित्य के एक हिस्से के तौर पर लघुपत्रिकाओं अथवा साहित्यिक पत्रिकाओं को देखते रहे, उनमें प्रकाशित सामग्री का हमने मीडिया सैध्दान्तिकी अथवा आलोचना के नजरिए से कभी मूल्यांकन ही नहीं किया। यहां तक कि एक स्वतंत्र मीडिया रूप के तौर पर पत्रिकाओं की सत्ता को हमने कभी स्वीकार नहीं किया।
आज जब हम बातें कर रहे हैं तो स्थिति में कोई मूलगामी किस्म का परिवर्तन नहीं आया है। सिर्फ एक परिवर्तन आया है हमने पत्र-पत्रिकाओं के इतिहास को साहित्य के इतिहास से अलग करके स्वतंत्र रूप से पत्रकारिता के इतिहास के रूप में पढ़ाना शुरू कर दिया है। पत्र-पत्रिकाओं को स्वतंत्र रूप से पढ़ाने से मामला हल नहीं हो जाता, बल्कि और भी पेचीदा हो उठा है।
समाचारपत्र का इतिहास हो या लघुपत्रिका का इतिहास हो, इसकी सही समझ तब ही बनेगी जब हम कम्युनिकेशन तकनीक के इतिहास से वाकिफ होंगे। हमारी मुश्किल अभी यहीं पर बनी हुई है, हमें साहित्य से प्रेम है, पत्रिकाओं से प्रेम है, किंतु तकनीक से प्रेम नहीं है। अगर हमारा तकनीक से प्रेम होता तो हम उसके इतिहास को जानने की कोशिश करते।
हिन्दी में संपादक - लेखकों का एक तबका तैयार हुआ है जो धंधेखोरों की तरह लघुपत्रिका आंदोलन के नाम पर टटुपूंजिया दुकानदारी कर रहा है। इसके बावजूद ये स्वनाम-धन्य विद्वान यह मानकर चल रहे हैं कि लघुपत्रिकाओं के सबसे बड़े हितचिन्तक वे हैं। जबकि सच यह है कि ऐसे संपादकों की बाजार में कोई साख नहीं है। वे अपनी किताबों की बिक्री तक नहीं कर पाते। अपनी पत्रिका को बेच तक नहीं पाते। हमें यह देखना होगा कि लघुपत्रिकाएं क्या साहित्यिक अभिरूचि पैदा करने का काम कर रही हैं अथवा कुछ और काम कर रही हैं ? क्या हमारी लघु पत्रिकाओं ने कभी इस तथ्य पर गौर किया कि कैसे विगत तीस सालों में भारत के पत्रिका प्रकाशन में विस्फोट हुआ है।
आज पत्रिका प्रकाशन सबसे प्रभावी व्यवसाय है। एक जमाना था जब सारिका,दिनमान, धर्मयुग आदि को विभिन्न बहाने बनाकर बंद किया गया था, किंतु आज स्थिति यह है कि पत्रिका प्रकाशन अपने पैरों पर खड़ा हो चुका है। आज बाजार में सभी भाषाओं में पत्रिकाओं की बाढ़ आई हुई है। बड़े पैमाने पर पत्रिकाएं बिक रही हैं। अपना बाजार बना रही हैं। लघुपत्रिका का प्रकाशन अभी कम मात्रा में होता है। हंस,पहल,उद्भावना,आलोचना जैसी पत्रिकाएं पांच-सात हजार का आंकड़ा पार नहीं कर पायी हैं। जबकि छोटे से कस्बे से निकलने वाली धार्मिक पत्रिका लाखों की तादाद में बिक रही हैं। हमें बेचने की कला को धार्मिक पत्रिकाओं से सीखना चाहिए। बड़े प्रतिष्ठानी प्रेस ने धार्मिक पत्रिकाओं से यह गुण सीखा है और आज बाजार में हर विषय की एकाधिक पत्रिकाएं मिल जाएंगी ,जिनकी साधारण तौर पर इनकी बिक्री हमारी प्रतिष्ठित पत्रिकाओं से कई गुना ज्यादा है। धार्मिक पत्रिकाओं से सीखने की बात मैं इसलिए कर रहा हूँ कि आप पत्रिका निकालना यदि चाहते हैं तो दूसरों से सीख लें।
लघुपत्रिका की सबसे बड़ी कमजोरी यह है कि वह अपने पाठक की अभिरूचियों को नहीं जानती, अपने पाठक को नहीं जानती, वह सिर्फ साहित्य ,विचारधारा और साहित्यकार को जानती है, उसमें भी वह संकुचित भाव से चयन करती है। यह तो कुल मिलाकर कंगाली में आटा गीला वाली कहावत चरितार्थ हो गयी।
हमारी लघु पत्रिकाओं का समूचा नजरिया विधा केन्द्रित सामग्री प्रस्तुति पर ही केन्द्रित रहा है। हमने विधा केन्द्रित पैमाना 19वीं शताब्दी में चुना था, वह पैमाना आज भी बरकरार है, उसमें परिवर्तन की जरूरत हमने महसूस नहीं की। हम यह भूल ही गए कि पाठक की भी अभिरूचियां होती हैं। पाठक का भी नजरिया होता है, हम संपादक की रूचि जानते हैं, लेखक का नजरिया जानते हैं किंतु लघु पत्रिकाओं को पढ़कर आप पाठक को नहीं जान सकते। हमें इस सवाल पर गंभीरता के साथ विचार करना चाहिए कि क्या गैर-पेशेवर ढ़ंग से लघु पत्रिका प्रकाशन संभव है ? क्या उसका कोई भविष्य है।
हमें पाठक की अभिरूचि और साहित्य की स्वायत्तता को केन्द्र में रखकर लघुपत्रिका प्रकाशन करना चाहिए। साथ ही इस पहलू पर भी गौर करना चाहिए कि साहित्य की परिभाषा बदल गयी है ? आज साहित्य की वही परिभाषा नहीं रह गई है जो आज से पचास या पच्चीस साल पहले थी। लघु पत्रिका का संसार साहित्य के बदले हुए स्वरूप को परिभाषित किए बिना आगे चला जा रहा है। इस संदर्भ में आलोचना पत्रिका के पुनर्प्रकाशन को प्रस्थान बिंदु के रूप में विश्लेषित करने की जरूरत है। आलोचना पत्रिका का जब पुनर्प्रकाशित हुई तो उसका पहला अंक फासीवाद पर आया। सवाल किया जाना चाहिए कि इस अंक से पहले भी अनेक राजनीतिक फिनोमिना आए किंतु उन पर कभी आलोचना पत्रिका के संपादक का ध्यान नहीं गया। मेरा इशारा आपात्काल की तरफ है, आलोचना पत्रिका के द्वारा आपात्काल के बारे में एकदम चुप्पी और साम्प्रदायिकता पर विशेष अंक इसका क्या अर्थ है ? इस प्रसंग को इसलिए सामने पेश कर रह हूँ कि आप यह जान लें कि विगत पच्चीस वर्षों लघु पत्रिकाएं आम तौर पर उन विषयों पर सामग्री देती रही हैं जो सत्ता प्रतिष्ठानों ने हमारे लिए तैयार किए हैं।
लघुपत्रिका का विमर्श सत्ता विमर्श नहीं है। लघुपत्रिकाएं पिछलग्गू विमर्श का मंच नहीं हैं। ये पत्रिकाएं मौलिक सृजन का मंच हैं। साम्प्रदायिकता का सवाल हो या धर्मनिरपेक्षता का प्रश्न हो अथवा ग्लोबलाईजेशन का प्रश्न हो हमारी पत्रिकाएं सत्ता विमर्श को ही परोसती रही हैं। सत्ता विमर्श कैसे परोसा जाता है इसका आदर्श नमूना है लघु पत्रिकाओं में चलताऊ ढ़ंग से सामयिक प्रश्नों पर छपने वाली टिप्पणियां। लघु पत्रिका का चरित्र सत्ता के चरित्र से भिन्न होता है, यह बात सबसे पहले भारतेन्दु ने समझी किंतु हमारे नए संपादकगण अभी तक नहीं समझ पाए हैं। लघुपत्रिका की हमारी अवधारणा में भी गंभीर समस्याएं हैं। लघु पत्रिकाओं में कारपोरेट जगत की पत्रिकाओं की समस्त बीमारियां घर कर गयी हैं। जिस तरह कारपोरेट घरानों की पत्रिकाओं में पक्षपात होता है,खासकर रचना के चयन को लेकर, लेखक के चयन को लेकर, जिस तरह कारपोरेट पत्रिकाओं के लिए विज्ञापनदाता महत्वपूर्ण और निर्णायक होता है। उसके आधार पर पक्षपात होता है ,ठीक वैसे ही लघु पत्रिकाओं में भी पक्षपात का गुण विचारधारा विशेष के प्रति आग्रह के रुप में कैंसर की तरह घर कर चुका है।
लघुपत्रिकाओं को दो कमजोरियों से मुक्त करने की जरूरत है , पहला है 'विचारधारात्मक पक्षपात', दूसरा है ' निर्भरता'। ये दोनों ही तत्व लघुपत्रिकाओं के स्वाभाविक विकास में सबसे बड़ी बाधा हैं। दूसरी प्रधान समस्या है जो लघुपत्रिका की धारणा से जुड़ी है। अभी हम जिस लघुपत्रिका को निकाल रहे हैं उसके केन्द्र में संस्कृति है। संस्कृति को ही संदर्भ बनाकर हम साहित्य का चयन करते हैं। जबकि सारी दुनिया में संस्कृति के संदर्भ के आधार पर चयन नहीं हो रहा, बल्कि अभिरूचि और जीवनशैली के आधार पर सामग्री चयन हो रहा है।
यदि लघुपत्रिकाएं साहित्य,राजनीति, अर्थनीति, विज्ञान आदि पर केन्द्रित सामग्री प्रकाशित करती हैं तो उन्हें इस संदर्भ में पेशेवर और विशेषज्ञता को ख्याल में रखना चाहिए। हिन्दी के लेखकों का आलम यह है कि वे सभी विषयों के ऊपर लिख सकते हैं और वेकिसी भी क्षेत्र की विशेष जानकारी हासिल नहीं करना चाहते। मौलिक लेखन के नाम पर प्रतिष्ठित लघुपत्रिकाओं में जिस तरह की घटिया और स्तरहीन सामग्री प्रकाशित होती है इसने पाठकों को लघुपत्रिकाओं से दूर किया है। आज स्थिति यह है कि विशेषज्ञान के बिना काम चलने वाला नहीं है। विशेषज्ञता हासिल किए बिना आप स्वीकृति नहीं पा सकते।
आखिरी समस्या सबसे गंभीर समस्या है जिस पर गौर किया जाना चाहिए। आज हम डिजिटल के युग में आ गए हैं। हमें पत्रिका को डिजिटल रूप में प्रकाशित करना चाहिए, सीडी और वेबसाइट पत्रिका के रूप में प्रकाशित करना चाहिए। डिजिटल प्रकाशन पत्रिका प्रकाशन से सस्ता और व्यापक है। इसकी पहुँच दूर-दूर तक है। आप चाहें तो अपनी वेब पत्रिका के लिए सस्ते विज्ञापन भी ले सकते हैं। हमें यह तथ्य ध्यान में रखना चाहिए कि मौजूदा दौर लाइब्रेरी का नहीं है, डिजिटल लाइब्रेरी का है।
लघुपत्रिकाओं की स्थिति पर यह अच्छा आलेख है । तमाम कठिनाइयों के बावज़ूद अभी भी कघु पत्रिकायें ज़िन्दा हैं इसके पीछे केवल सम्पादक या लेखक नहीं हैं बल्कि पाठक भी हैं और ये ऐसे पाठक हैं जो किसी भी तरह इन पत्रिकाओं तक पहुंच ही जाते है । मुझे नहीं लगता कि दिज़िटल दुनिया से इन पत्रिकाओं को कोई खतरा है क्योंकि इनके पाठक वे भी है जिन्हे अभी इस दुनिया के बारे मे कुछ नहीं पता । अभी भी कई शहरों और गाँवों मे कुछ लोग ऐसे हैं जो अपनी ज़िम्मेदारी समझ कर इन पत्रिकाओ को पाठकों तक पहुंचाते है।इस बात से मै सहमत हूँ कि कुछ लोग अवश्य ही लघुपत्रिका के नाम पर बहुत खराब सामग्री परोस रहे है ।
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