टेलीविजन चैनलों का अमेरिका के साथ मूलत: वैचारिक याराना है।शायद ही कोई चैनल हो जिस पर अमेरिका का भूत सवार न हो।समाचार चैनलों की अंतर्राष्ट्रीय खबरों में अमेरिकी विदेश नीति का समर्थन आम बात है।वहीं दूसरी ओर मनोरंजन कार्यक्रमों में अमेरिकी मूल्यों,विश्वासों और संस्कारों का देशज चरित्रों और देशज कथानकों की आड़ में व्यापक तौर पर इस्तेमाल सामान्य फिनोमिना है।चैनल संस्कृति वस्तुत: अमेरिकी संस्कृति का पर्याय बन चुकी है।ऐसी अवस्था में चैनलों में अमेरिकी विरोध के स्वर खोजना बेहद मुश्किल कार्य है। इसके बावजूद अल-जजीरा जैसे चैनल भी हैं जिनमें अमेरिकी विरोध को व्यापक अभिव्यक्ति का अवसर मिला है।
अरब देशों की अधिकांश सरकारों के अमेरिकी समर्थक हो जाने के बावजूद अधिकांश अरब जनता अमेरिका विरोधी है। यह स्थिति तब है जबकि अरब देशों में जनतंत्र का विकास नहीं हो पाया है। चैनलों की दुनिया पर अमेरिकी बहुराष्ट्रीय कंपनियों की इजारेदारी है।इसके बावजूद विश्व स्तर और खासकर अरब जगत में अमेरिकी विरोध तेजी से बढ़ रहा है। इसके निम्न कारण हैं -
(1)अमेरिका अबाधित उपभोग का प्रतीक है।यही वजह है कि मैकडोनाल्ड के रेस्तारांओं पर आए दिन हमले या विरोध प्रदर्शन होते रहते हैं। आए दिन अमेरिकी मालों के बहिष्कार की मांग उठती रहती है।अमेरिकी मालों या मैकडोनाल्ड के उपभोक्ता ऐसे वर्ग के लोग हैं जो सिर्फ खाते हैं। खाने के अलावा और कुछ नहीं करते। मैकडोनाल्ड संस्कृति ऐसी अवस्था की ओर संकेत करती है जिसमें धनी लोग मरणासन्न अवस्था की ओर जा रहे हैं।शरीर को इकहरा बनाए रखने के लिए अरबों डालर की डाइटिंग इण्डस्ट्री का निर्माण किया गया है।एक अनुमान के अनुसार डाइटिंग इण्डस्ट्री का सालाना कारोबार 33 विलियन डालर से ज्यादा का है।धनी लोग डाइटिंग पर अरबों डालर ऐसी अवस्था में खर्च कर रहे हैं जब सारी दुनिया में सालाना लाखों गरीब बगैर भोजन के मर रहे हैं।यह एक तरह का आत्म विध्वंसक निहित स्वार्थ है जिसका विरोध किया जाना चाहिए।
(2)अमेरिका ऐसी सत्ता है जिसे दण्डित नहीं किया जा सकता।इसे कैसे दण्डित किया जाए इस पर सोचा जाना चाहिए।बेल्जियम की अदालत में एक याचिका इराक में युद्धापराधों के संदर्भ में अमेरिकी गठबंधन सेना के प्रमुख टॉमी फ्रैंक एवं अन्य सैन्य अधिकारियों के खिलाफ दायर की है। जिसमें 21युद्धापराधों को सूचीबद्ध किया है। यदि इस याचिका के आधार पर अमेरिकी सैन्य अधिकारियों के खिलाफ कार्रवाई होती है तो बड़ी बात होगी। हमें सोचना चाहिए कि अमेरिका के खिलाफ आज तक कभी युद्धापराध का कोई फैसला क्यों नहीं हुआ ?निकारागुआ के मामले में एक मर्तबा फैसला हुआ था किंतु लागू नहीं हो पाया।अमेरिका विरोधी भावबोध के लिए यह जरूरी है कि युद्धापराध, मानवाधिकारों के हनन,किसी भी संप्रभु राष्ट्र की संप्रभुता पर हमले के खिलाफ मुकदमा चलाने का प्रावधान होना चाहिए।
(3)अमेरिकी संस्कृति से घृणा का संभवत: यह भी कारण हो सकता है कि अमेरिकी चैनलों की पैकेजिंग की नकल संभव नहीं है।सीएनएन या फॉक्स जैसे चैनलों में समाचारों में रिपोर्टिंग के दौरान साफ-सुथरे,चमकीले दांतों वाले,चमकदार,सलीके से बाल काड़े हुए,सब समय मुस्कराते, हमेशा प्रत्येक परिस्थिति में निर्भीक और सुंदर दिखने वाले संवाददाताओं को देखकर सिर्फ यही विचार पैदा होता है कि यह सब सिर्फ काले जादू से ही संभव है।ये ऐसे लोग हैं जो कभी बूढ़े नहीं होते,कभी मुरझाते नहीं हैं,उनके चेहरों पर कभी उदासी नहीं आती,कष्ट दिखाई नहीं देता,वे कभी थकते नहीं हैं,जनता से डरते नहीं हैं।
(4)सारी दुनिया में अमेरिका के खिलाफ घृणा का यह भी कारण है कि अमेरिका ने धर्म का अपहरण कर लिया है। धर्म को साम्राज्यवाद और धार्मिक तत्ववादियों के हवाले कर दिया है।आज धर्म बंदूक की नोंक पर जिंदा है।यही वजह है कि धर्मप्राण जनता में अमेरिका के प्रति तीव्र घृणा दिखाई दे रही है।
(5)बहुराष्ट्रीय चैनलों को गौर से देखें तो पाएंगे कि वहां पर वही जाने-पहचाने चेहरे रोज,प्रति घंटे आते हैं। और सिर्फ बातें करते हैं।उल्लेखनीय है कि अमेरिकी हमेशा बहस करते हैं, बातें करते हैं, घटनाओं पर चर्चा करते हैं किंतु कभी एक्शन का सामना करते नजर नहीं आएंगे।वे ऐसे मनुष्य हैं जो गूंगे हैं।ये ऐसे लोग हैं जो झूठ बोलते हैं।सच को छिपाते हैं।साधारण और निर्दोष लोगों की हत्या के लिए किसी भी हद तक जा सकते हैं।इराक के मामले में यही सब कुछ देखा गया।
(6)सच यह है कि अमेरिका के साथ रहकर कोई तटस्थ नहीं रह सकता।साथ ही अमेरिका का पक्ष लेकर सत्य भी नहीं बोल सकता।
(7)अमेरिका का मानवाधिकारों को लेकर दोमुंहा व्यवहार रहा है।वह मानवाधिकारों पर किस तरह का रूख रखता है इसका सबूत यह है कि हाल ही में संयुक्त राष्ट्र संघ मानवाधिकार आयोग में अमेरिका ने इराक में मानवाधिकारों के हनन को लेकर पेश किए गए प्रस्ताव को ठुकरा दिया।यह प्रस्ताव रूस,सीरिया,सूडान,मलेशिया, लीविया, बुरखीना पासो,जिम्बाबे और अल्जीरिया ने पेश किया था। जबकि इसी संस्था ने चेचेन्या,यूगोस्लाविया,रवाण्डा,पूर्वी तीमूर,इजराइल द्वारा अधिकृत फिलिस्तीनी क्षेत्रों में मानवाधिकारों के उल्लंघन पर बहस की थी।किंतु यह खबर चैनलों से नदारत थी।
समाचार चैनलों की मुश्किल यह है कि वे जो खबरें देते हैं उनके बारे में विस्तार से या विश्लेषण के साथ सूचनाएं नहीं देते।
बेहद ज़रूरी पोस्ट्…क्या इसे जनपक्ष पर लगा सकता हूं?http://jantakapaksh.blogspot.com/
जवाब देंहटाएंअशोक जी,खुशी के साथ लगा सकते हैं।
जवाब देंहटाएं