रामचरित मानस लोक-महाकाव्य है। इसके उपयोग और दुरूपयोग की अनंत संभावनाए हैं।लोक-महाकाव्य एकायामी नहीं बल्कि बहुआयामी होता है,इसमें एक नहीं एकाधिक विचारधाराएं होती हैं। इसका पाठ संपूर्ण और बंद होता है किंतु अर्थ- संरचनाएं खुली होती हैं, इसके पाठ की स्वायत्तता पाठ की व्याख्या की समस्त धारणाओं के लिए आज भी चुनौती बनी हुई है। लोक-महाकाव्य का अर्थ कृति में नहीं सामाजिक के मन में होता है।पाठक के इच्छित-भाव की तुष्टि का यह सबसे बड़ा स्रोत है,इतिहास की रचना में इसका व्यापक इस्तेमाल होता है।साथ ही इच्छित इतिहास के निर्माण के लिए इसका व्यापक स्तर पर उपयोग और दुरूपयोग होता रहा है।
हिन्दी में आलोचना खूब लिखी जाती है,किंतु ज्यादातर आलोचना 'कला के लिए कला' की तरह 'आलोचना के लिए आलोचना ' की तर्ज पर लिखी जाती है,हिन्दी में आलोचना की पद्धति और सैध्दान्तिकी का शास्त्र हम आज तक नहीं बना पाए हैं। हमारे पास अभी तक एक भी आलोचना की मुकम्मल किताब नहीं है,आलोचना के बारे में सम्मानजनक ढ़ंग से कहने के लिए कुछ निबंध हैं,कुछ समीक्षाएं हैं,कुछ बहस के लिए लिखी गयी वकीलों जैसी दलीलें हैं,जिनमें हमारे आलोचकगण अपने मुवक्किल की पैरवी करते नजर आते हैं। मसलन् हमारे यहां तुलसीदास के बारे में टनों पन्नो लिखे गए हैं, इसके बावजूद लेवीस्त्रास जैसी एक आलोचना की किताब नहीं है।जिसमें तुलसी के मिथकों का खुलासा किया गया हो और सैध्दान्तिकी भी बनायी गयी हो।
हमारे यहां आलोचना अभी 'केजुअल' कर्म है,मनमाना कार्य है। हिन्दी के आलोचक जब किसी विषय पर लिखते हैं तो 'केजुअल वर्कर' की तरह पेश आते हैं, उन्हें सिलटाने में दिलचस्पी ज्यादा है।वे अभी तक आलोचना को नियमित सैध्दान्तिकी के दर्जे तक नहीं पहुँचा सके हैं। उसका शास्त्र नहीं बना पाए हैं।यही वजह है कि हिन्दी में आलोचना लिखने के लिए अंग्रेजी में लिखी आलोचना के पास जाना होता है, हिन्दी का आलोचना साहित्य हमें किसी भी किस्म की आलोचनात्मक मदद या सलाह नहीं देता।हमें इस समस्या पर गंभीरता से सोचना चाहिए कि आखिरकार ऐसा क्यों हुआ कि हमारी आलोचना अभी तक गंभीर नहीं हो पायी।
अंग्रेजी,जर्मन,फ्रेंच,रूसी आदि भाषाओं में आलोचना के महत्वपूर्ण स्कूल मिल जाएंगे,सैध्दान्तिक मॉडल मिल जाएंगे,शोध में सहारे के लिए अच्छे सैध्दान्तिक उध्दरण मिल जाएंगे,किंतु हिन्दी में इन सबका अकाल पड़ा हुआ है। आखिरकार आलोचना के क्षेत्र में हमसे कहां चूक हुई है ?इतनी बड़ी चूक को व्यक्तिगत मामला कहकर टाला नहीं जा सकता।इस दुर्दशा के लिए निश्चित रूप से आलोचकगण जिम्मेदार हैं,किंतु मामले का आलोचक एक छोटा सा हिस्सा है। आलोचना के लिए जिस तरह के संस्थान,अनुसंधान संरचना,माहौल,विवेक, और पध्दति की जरूरत होती है, अकादमिक अनुशासन ,इन्फ्रास्ट्रक्चर ,और शोधार्थी तैयार करने की जरूरत होती है,शोध को गंभीर बनाने और उसका सम्मान करने की जरूरत होती है,उसकी ओर हमने कभी ध्यान नहीं दिया। जबकि हिन्दी में सबसे ज्यादा अनुसंधान होता है,सबसे ज्यादा पीएचडी लिखी जाती हैं,साहित्य के क्षेत्र में हिन्दी में सबसे ज्यादा शिक्षक हैं,किंतु एक भी ऐसा अनुसंधान केन्द्र नहीं है जहां शोध की पध्दति और उसका शास्त्र सिखाया जाता हो ,और गंभीरता से अनुसंधान कार्य किया जाता हो।
हिन्दी में आलोचना का इन्फ्रास्ट्रक्चर तैयार करने की पहली शर्त है कि आलोचना और हिन्दी विभागों को गंभीरता से चेले बनाने,पट्ठे बनाने,पालने,उनकी नियुक्ति कराने के धंधे से मुक्त किया जाए,हिन्दी के विभागों में अकादमिक क्षमता और उसके आधार पर शोध के नए क्षेत्रों को खोला जाए,गंभीरता के साथ शोध की पध्दति और सैध्दान्तिकी के निर्माण की दिशा में प्रयास किए जाएं।
रामकथा के ऊपर विचार करते हुए रवीन्द्रनाथ टैगोर ने प्रश्न उठाया है कि 'राम का चरित्र ऊँचा है कि नीचा,लक्ष्मण का चरित्र हमें अच्छा लगता है कि बुरा,यह आलोचना काफी नहीं है।मौन होकर श्रध्दा के साथ विचा करना होगा कि समस्त भारतवर्ष में हजारों साल से इन्हें किस प्रकार ग्रहण किया है।' यानी रामकथा को किस प्रकार ग्रहण किया है।टैगोर ने लिखा है ' राम का चरित्र मनुष्य का चरित्र होने के नाते ही महिमा से मंडित है।' ... 'रामायण उसी नर चन्द्रमा की कथा है देवता की कथा नहीं।' रामायण में 'देवता ने अपने को छोटा करके मनुष्य को छोटा नहीं बनाया,मनुष्य ही अपने गुण से देवता हो उठा है।'
रामकथा के ऊपर विचार करते हुए रवीन्द्रनाथ टैगोर ने प्रश्न उठाया है कि 'राम का चरित्र ऊँचा है कि नीचा,लक्ष्मण का चरित्र हमें अच्छा लगता है कि बुरा,यह आलोचना काफी नहीं है।मौन होकर श्रध्दा के साथ विचा करना होगा कि समस्त भारतवर्ष में हजारों साल से इन्हें किस प्रकार ग्रहण किया है।' यानी रामकथा को किस प्रकार ग्रहण किया है।टैगोर ने लिखा है ' राम का चरित्र मनुष्य का चरित्र होने के नाते ही महिमा से मंडित है।' ... 'रामायण उसी नर चन्द्रमा की कथा है देवता की कथा नहीं।' रामायण में 'देवता ने अपने को छोटा करके मनुष्य को छोटा नहीं बनाया,मनुष्य ही अपने गुण से देवता हो उठा है।'
इसी क्रम में रामकथा के एक नए आयाम को उद्धाटित करते हुए टैगोर ने लिखा 'रामायण की प्रधान विशेषता है कि उसने घर की बात को ही बड़ा करके दिखाया है।इसमें केवल कवि का परिचय ही नहीं ,भारतवर्ष का परिचय मिलता है।इससे समझ में आएगा कि गृह और गृहधर्म को भारतवर्ष कितना महत्व देता है।हमारे देश में गृहस्थ-आश्रम का जो इतना ऊँचा स्थान था,इस काव्य में उसी को प्रमाणित किया गया है।गृहस्थाश्रम हमारे सामने सुख के लिए सुविधा के लिए न था। गृहस्थाश्रम पूरे समाज को समेटकर रखता था और मनुष्य को सच्चे अर्थों में मनुष्य बनाता था।गृहस्थाश्रम भारतवर्षीय आर्य समाज की भित्तिा है।'
इसी तरह मुक्तिबोध ने लिखा है, ' तत्कालीन मानव संबंध,विश्व-दृष्टि तथा जीवन-मूल्यों के सर्वोच्च प्रतीक राम की मानवता हमें प्रभावित करती है।'भक्ति- आंदोलन की तरह ही रामचरित मानस की केन्द्रीय अभिव्यक्ति प्रेम और ज्ञान केन्द्रित है। इन दोनों ही तत्वों का सामंतवाद से सीधा अन्तर्विरोध है।ज्ञान और प्रेम का संदेश आधुनिक बोध पैदा करता है।तुलसीदास को रामचरित मानस लिखने की प्रेरणा धर्मग्रंथों या देवोपासना से नहीं मिली थी,बल्कि दरिद्रता,भूख और सामाजिक उत्पीडन देखकर प्रेरणा मिली थी। आत्म सम्मान के साथ जीना और मनुष्य के आगे हाथ नहीं पसारना तुलसी की चिंताधारा का मुख्यबिंदु है।रामविलास शर्मा के अनुसार तुलसी की दृष्टि में सबसे बड़ा धर्म है दीनों की सेवा,सबसे बड़ा पाप है उनका उत्पीड़न।वे दुखानुभूति का साधारणीकरण करते हैं।
जिस समय हिन्दीभाषी क्षेत्र में आर्यसमाज के नेतृत्व में समाज-सुधार की लहर चल रही थी,उस समय स्वामी दयानंद सरस्वती की धूम मची हुई थी,सनातनियों के तर्कों का खण्डन करने के लिए उन्होंने उस समय एक किताब प्रकाशित की जिसका नाम था ''सत्यार्थप्रकाश'', इस किताब के अंत में स्वामीजी ने अस्पृश्य किताबों की एक सूची जारी की थी,इसमें तुलसीदास की कृति ''रामचरित मानस'' का पहला नम्बर था,यानी आर्यसमाज के नेता ''रामचरित मानस'' को समाज -सुधार में सबसे बड़ी बाधा मानते थे, वहीं दूसरी ओर आचार्य रामचन्द्र शुक्ल को अपनी इतिहास दृष्टि के लिए सबसे बड़े कवि के रूप में तुलसीदास और कृति के रूप में ''रामचरित मानस'' महत्वपूर्ण लगा।प्रगतिशीलों में रामविलास शर्मा को तुलसी सबसे प्रिय हैं,जबकि रांगेय राघव के लिए सबसे अप्रिय लेखक हैं।मुक्तिबोध को तुलसी का रामचरित मानस सवर्णों के वर्चस्व का औजार लगा और भक्ति-आन्दोलन की निम्नवर्णोंन्मुख धारा को पलटने वाली कृति।उन्होंने तुलसी को सवर्णों के वैचारिक प्रतिनिधि के रूप में व्याख्यायित किया ।
जिस समय हिन्दीभाषी क्षेत्र में आर्यसमाज के नेतृत्व में समाज-सुधार की लहर चल रही थी,उस समय स्वामी दयानंद सरस्वती की धूम मची हुई थी,सनातनियों के तर्कों का खण्डन करने के लिए उन्होंने उस समय एक किताब प्रकाशित की जिसका नाम था ''सत्यार्थप्रकाश'', इस किताब के अंत में स्वामीजी ने अस्पृश्य किताबों की एक सूची जारी की थी,इसमें तुलसीदास की कृति ''रामचरित मानस'' का पहला नम्बर था,यानी आर्यसमाज के नेता ''रामचरित मानस'' को समाज -सुधार में सबसे बड़ी बाधा मानते थे, वहीं दूसरी ओर आचार्य रामचन्द्र शुक्ल को अपनी इतिहास दृष्टि के लिए सबसे बड़े कवि के रूप में तुलसीदास और कृति के रूप में ''रामचरित मानस'' महत्वपूर्ण लगा।प्रगतिशीलों में रामविलास शर्मा को तुलसी सबसे प्रिय हैं,जबकि रांगेय राघव के लिए सबसे अप्रिय लेखक हैं।मुक्तिबोध को तुलसी का रामचरित मानस सवर्णों के वर्चस्व का औजार लगा और भक्ति-आन्दोलन की निम्नवर्णोंन्मुख धारा को पलटने वाली कृति।उन्होंने तुलसी को सवर्णों के वैचारिक प्रतिनिधि के रूप में व्याख्यायित किया ।
आभार इस आलेख का.
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