रविवार, 28 मार्च 2010

रुढ़िवादी ख्यातनामा आलोचकों के प्रतिवाद में


             हिन्दी आलोचना की सबसे बड़ी बिडम्बना यह है कि इसमें 'संतुलन' पर कम 'सिद्ध' करने पर ज्यादा जोर है। आलोचना 'सिद्ध' करने का औजार नहीं है,वकील का तर्क नहीं है।बल्कि सृजन है। आलोचना कैसी होगी ? उसकी प्रकृति कैसी होगी? इस सवाल का जबाव साहित्य की धारणा से जुड़ा है।
      हम अभी तक साहित्य  को परंपरागत साहित्य की धारणा के दायरे के बाहर नहीं ला पाए हैं। 'साहित्य' और 'जनप्रिय साहित्य' का अंतर आज भी प्रचलन में है। इसका क्लासिक उदाहरण है नागार्जुन और फिल्म गीतकार शैलेन्द को लेकर हमारा दोहरा रूख।
     सवाल किया जाना चाहिए क्या शैलेन्द्र के गीत हिन्दी साहित्य परंपरा का हिस्सा हैं ? यदि नहीं तो क्यों ? क्या किसी गीतकार की रचनाओं का फिल्मों से अथवा ऑडियो इण्डस्ट्री के द्वारा प्रसारण उसकी साहित्यिक-कलात्मक गुणवत्ता को खत्म कर देता है ? क्या इसी आधार पर भक्ति-आंदोलन के कवियों की रचनाओं ,रामचरितमानस जैसे महाकाव्य को साहित्य से बहिष्कृत किया जा सकता है ? क्या प्रेमचंद के गोदान उपन्यास को फिल्माने के कारण साहित्य से निकाला जा सकता है ? इससे भी बड़ा सवाल यह है कि क्या मीडियम के आधार पर कृति को देखें अथवा कृति के आधार पर उसका मूल्यांकन करें ? कृति महत्वपूर्ण है। अंतर्वस्तु महत्वपूर्ण है, विधा महत्वपूर्ण है। मीडियम या शैली या वर्गीकरण महत्वपूर्ण या निर्णायक नहीं हैं।

आज साहित्य और जनप्रिय साहित्य के भेद को खत्म करने की जरूरत है,इन दोनों में चल रही अन्तर्क्रियाओं को पहचानने की जरूरत है,इससे आलोचना और साहित्य दोनों ही समृध्द होंगे। यदि किसी गीतकार के फिल्मी गीतों का कैसेट संकलन आता है तो उसे कृति के रूप में लिया जाना चाहिए। यही स्थिति अन्य विधाओं की है। आज साहित्य से पापुलर साहित्य को अलग रखने का तर्क बेमानी है। इसी तरह पापुलर गद्य और साहित्यिक गद्य में अंतर नहीं किया जाना चाहिए।

उल्लेखनीय है आधुनिक गद्य की शुरूआत पापुलर गद्य लेखन से ही हुई थी। भारतेन्दु की हिन्दी नयी चाल में तब ही ढली जब बाजारू पत्रिका का जन्म हुआ। बाजारू पत्र-पत्रिका अथवा इलैकट्रोनिक मीडिया में जन्मे विधारूपों और प्रयोगों का वही महत्व है जो किसी साहित्यिक पत्रिका में प्रकाशित चीजों का है। उल्लेखनीय है 'जनप्रिय' और 'साहित्यिक' में आदान-प्रदान होता रहा है जिसकी हमने अनदेखी की जानी चाहिए।

         मजेदार बात यह है कि पापुलर साहित्य और पापुलर संस्कृति ने बाकायदा साहित्य-संस्कृति से ग्रहण किया है,पापुलर संस्कृति में साहित्य और संस्कृति को लेकर किसी भी किस्म के पूर्वाग्रह नहीं हैं। किंतु साहित्य के पापुलरसाहित्य और पापुलरकल्चर को लेकर पूर्वाग्रह बने हुए हैं। इन्हें तोड़ने की जरूरत है। यह कार्य तब ही संभव है जब शिक्षा के पाठयक्रमों में यथोचित परिवर्तन किए जाएं। विदेशी माक्र्सवादी विचारकों जैसे रेमण्ड विलियम्स,टेरी इगिलटन, रिचर्ड होगार्ट ,एस.हाल आदि ने इस दिशा में महत्वपूर्ण काम किया है,जिससे हम काफी कुछ सीख सकते हैं।

                    हमारी आलोचना का अधिकांश हिस्सा आज भी एकायामी है, हम मार्क्सवाद के आगे बढ़ ही नहीं पाए। अन्य आलोचना स्कूलों जैसे संरचनावाद, रूपवाद ,अस्तित्ववाद,उत्तार संरचनावाद आदि के तो हमारे यहां दर्शन दुर्लभ हैं, यहां तक कि हिन्दी में अनुवाद तक उपलब्ध नहीं हैं। यह बात दीगर है कि ये सारी धारणाएं हमारे यहां के सबसे बेहतरीन विश्वविद्यालय (जे.एन.यू.)में लंबे समय से पढ़ाई जाती रही हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि हमने माक्र्सवाद के बस्ते में आलोचना के वैविध्यमय संसार को बांधकर आलोचना को संकुचित किया और बाद में आलोचना ही खत्म कर दी। दूसरी ओर 'इण्टरडिसिपिलीनरी' एप्रोच का इस्तेमाल ही नहीं किया है। हमारे शिक्षा के पाठयक्रमों में इस तरह के नजरिए को अभी भी संदेह के नजरिए से देखा जा सकता है।

         आलोचना को हमने शिक्षक की दासी बना दिया। वह उसके यहां कैद है। आलोचना जब एकायामी होगी, दासी होगी वैसी अवस्था में आलोचना में लोकतंत्र की कल्पना करना भी मुश्किल है। अन्तविषयवर्ती आलोचना पध्दति में प्रवेश का अर्थ है आलोचना का कायाकल्प, आलोचना को फतवे,निर्णयात्मकता और केटेगराइजेशन के पुराने ढ़ांचे से बाहर निकालना। हमारी आलोचना में आलोचना के नाम पर बक-बक ज्यादा है आलोचना और लोकतंत्र कम है।

हिन्दी आलोचना में आज भी आलोचना ख्यातनामा आलोचकों के यहां बंधक है। इस तरह की आलोचना अपनी शक्ति और उपलब्धियों पर अपने हाथों अपनी पीठ ठोंकती रही है। 'ख्यातनामा' आलोचकों ने जिस कृति पर लिख या बोल दिया वह महान है,श्रेष्ठ है,जिस व्यक्ति की प्रशंसा या निंदा कर दी वह महान् है और घटिया है। जिसके बारे में कुछ भी नहीं बोला वह बोगस है,कूड़े के ढ़ेर पर फेंकने लायक है। आज कृति अपनी शक्ति के बल पर नहीं आलोचक की प्रशंसा के आधार पर स्वीकार और अस्वीकार हो रही है।

आलोचना में लोकतंत्र की कमी का गहरा संबंध अकादमिक स्तर पर चल रहे अनुसंधान कार्यों से है। विश्वविद्यालयों में चल रहे शोध कार्यों की स्थिति देखकर शर्म आती है। यह सवाल उठता है क्या हमारे साहित्य शिक्षक स्वयं नियमित शोध करते हैं या नहीं ? क्या हमारे पास शोध प्रविधि सिखाने वाली किताबें हैं ? जी नहीं, हमारे पास एक भी किताब ऐसी नहीं है जो शोध-प्रविधि के बारे में विद्यार्थी को ज्ञान कराए, जो किताबें स्वनाम-धन्य प्रोफेसरों के द्वारा लिखी गयी हैं उनमें हजारों भूलें हैं,गलत-सलत शोध प्रविधि है। आलोचना प्रशंसा, गुटबाजी, आदि के जरिए समृद्ध नहीं होती, हम खुश हैं कि हमारे पास नामवर सिंह हैं,अशोक बाजपेयी हैं।निश्चित रूप से यह खुशी की बात है।
          किंतु हमें ढ़ेर सारे नामवर चाहिए,एक नामवर नहीं चाहिए।आलोचना में लोकतंत्र चंद आलोचकों से नहीं बनता,लेखक संगठन बनाने से नहीं बनता। आलोचना की शर्त है कि सटीक और सही अवधारणा में लिखा जाए,हमें सटीक लेखन से परहेज है। लिखना हिन्दी में बुरी बात मानी जाती है। अभी भी वे आलोचक अपने को बड़ा और महान मानते हैं जिनके पास कम से कम किताबें हैं। सवाल किया जाना चाहिए आलोचना में कम से कम लेखन किस नजरिए से गुण कहलाने का हकदार है ? यह आलोचना में परजीवीपन है। परजीवी कम से कम में काम चलाता है,बड़बोलेपन में जिंदा रहता है। जब जरूरत पड़ती है तो अन्य से उधार लेकर काम चलाता है।

हमने कम लिखने का आदर्शीकरण कर लिया है। देखो नामवर कितने महान् हैं उन्होंने कितना कम लिखा है ! कायदे से हमें इस स्थिति पर खुश नहीं दुखी होना चाहिए, नामवरसिंह अपने न लिख पाने पर दुखी हैं, किंतु उनके भक्त खुश हैं। कहने का आशय यह कि हमें लेखन के प्रति,अनुसंधान के प्रति अपना रवैयया बुनियादी तौर पर बदलना होगा।

शुक्रवार, 19 मार्च 2010

किसानों के पक्षधर कथाकार मार्कण्डेय नहीं रहे

कथाकार मार्कण्डेय





(आनंद प्रकाश और मार्कण्डेय)

आज सुबह मार्क्सवादी आलोचक अरुण माहेश्वरी का फोन आया और बताया कि भाई मार्कण्डेय नहीं रहे। सुनकर धक्का लगा और बेहद कष्ट हुआ ,विश्वास नहीं हो रहा था भाई मार्कण्डेय की मौत हो गयी है। अभी कुछ दिन पहले ही अरुण एवं सरला माहेश्वरी उन्हें अस्पताल जाकर देखकर आए थे और दो -तीन दिन पहले मार्कण्डेयजी की बेटी का भी फोन अरुण के पास आया था कि मार्कण्डेयजी ठीक हो रहे हैं और उन्हें एक-दो दिन में घर ले जाएंगे। लेकिन आज जब खबर मिली मार्कण्डेय जी का निधन हो गया तो बेहद कष्ट हुआ।
   हिन्दी की जनवादी साहित्य परंपरा के निर्माण में मार्कण्डेय जी की अग्रणी भूमिका रही है। मार्कण्डेयजी सिर्फ साहित्यकार ही नहीं थे बल्कि साहित्य और लेखकों के संगठनकर्त्ता भी थे। साहित्य की प्रगतिशील परंपरा में स्वतंत्र भारत में जिन लेखकों ने साहित्यकारों के संगठन निर्माण में अग्रणी भूमिका अदा की थी उनमें मार्कण्डेयजी का योगदान सबसे ज्यादा था। इसके अलावा किसानों-मजदूरों के संघर्षों के प्रति उनमें गहरी निष्ठा थी, हिन्दी में ऐसे अनेक लेखक हैं जो मीडिया पापुलिज्म के शिकार रहे हैं,लेकिन मार्कण्डेयजी ने कभी मीडिया पापुलिज्म के आगे अपने विवेक और कलम को  झुकने नहीं दिया।
     स्वतंत्र भारत की साहित्य की परिवर्तनकामी परंपरा के समर्थ लेखक के रुप में मार्कण्डेय को हमेशा याद किया जाएगा। मुझे व्यक्तिगत तौर पर उनसे कईबार मिलने और घंटों लंबी चर्चा करने का मौका मिला था। उनके व्यक्तित्व की सादगी, पारदर्शिता और विचारधारात्मक पैनापन मुझे हमेशा आकर्षित करता था। उनकी खूबी थी कि वे फिनोमिनाओं को ज्यादा बारीकी से पेश करते थे, फिनोमिना या संवृत्तियों को विश्लेषित करने में उन्हें मजा आता था। हिन्दी लेखकों में बढ़ते गैर साहित्यिक रुझानों पर वे खासतौर पर चिन्तित रहते थे।       
 ‘लेखक मंच’ के अनुरागजी ने लिखा है-        ‘‘प्रेमचंद के बाद हिंदी कथा साहित्य में ग्रामीण जीवन को पुनस्र्थापित करने वालों में मार्कण्डेय महत्वपूर्ण कथाकार थे। उन्होंने आम आदमी के जीवन में साहित्य में जगह दी। वह जनवादी लेखक संघ के संस्थापकों में से थे।
1965 में उन्होंने माया के साहित्य महाविशेषांक का संपादन किया था। कई महत्वपूर्ण कहानीकार इसके बाद सामने आए। 1969 में उन्होंने साहित्यिक पत्रिका कथा का संपादन शुरू किया। इसके अभी तक 14 अंक ही निकल पाए हैं। साहित्य और संस्कृति के क्षेत्र में पत्रिका को मील का पत्थर माना जाता है।
उन्होंने जीवनभर कोई नौकरी नहीं की। अग्निबीज, सेमल के फूल(उपन्यास), पान फूल, महुवे का पेड़, हंसा जाए अकेला, सहज और शुभ, भूदान, माही, बीच के लोग (कहानी संग्रह), सपने तुम्हारे थे (कविता संग्रह), कहानी की बात (आलोचनात्मक कृति), पत्थर और परछाइयां (एकांकी संग्रह) आदि उनकी महत्वपूर्ण कृतियां हैं। हलयोग (कहानी संग्रह) प्रकाशनाधीन है।
   उनकी कहानियों का अंग्रेजी, रुसी, चीनी, जापानी, जर्मनी आदि में अनुवाद हो चुका है। उनकी रचनाओं पर 20 से अधिक शोध हुए हैं।
80 वर्षीय मार्कण्डेय को दो साल पहले गले का कैंसर हो गया था। इलाज से वह ठीक हो गए थे। अब आहार नली के पिछले हिस्से में कैंसर हो गया था। वह 1 फरवरी को इलाज के लिए दिल्ली आ गए थे। राजीव गांधी कैंसर अस्पताल, रोहिणी में उनका इलाज चल रहा था।’’
  स्वर्गीय मार्कण्डेय जी ने अमृत राय पर एक संस्मरण लिखा था 'भाई अमृत रायः कुछ यादें', पेश हैं उसकी कुछ बानगी-
‘‘अमृत राय ने इलाहाबाद यूनिवर्सिटी के अमरनाथ झा छात्रावास में रहकर एमए किया। शायद आज कई लोगों को लगे कि यह कोई खास बात नहीं है, लेकिन उस समय की परिस्थियों को देखते हुए यह बात सचमुच रेखांकित करने के योग्य है। तब के इलाहाबाद विश्वविद्यालय और एएन झा छात्रावास का नाम देश के संभ्रांत समाज से जुड़ा हुआ था। लोग आईसीएस बनने का सपना लेकर उसमें भर्ती होते थे। अंग्रेजियत का तो वहां बोलबाला था। भाषा ही नहीं वरन् रहन-सहन के विशेष स्तर के कारण उस छात्रावास में बड़े-बड़े अधिकारियों के पुत्र-कलत्र ही स्थान पाते थे, लेकिन अमृत भाई उसमें घुस ही नहीं गये वरन् एक छोटे से अण्डरवियर के ऊपर घुटने तक का नीचा कुर्ता पहनकर हॉस्टल से बाहर सड़क पर चाय पीने भी पहुंचने लगे। बताते हैं कि इस बात को लेकर पहले सख्त विरोध हुआ लेकिन अध्ययन और विशेषतः अंग्रेजी भाषा का सवाल आते ही लोग उनके सामने बगलें झांकने लगते थे। कहते हैं अमृत जी ने 'कैपिटल' को उसी समय बगल में दबाया और कुछ दिनों बाद तो वे लेनिन की पुस्तकें साथ लेकर विभाग भी जाने लगे।’’










बुधवार, 17 मार्च 2010

लोकतंत्र और अनुपलब्ध अर्थ की खोज है आलोचना

अनुपलब्ध अर्थ की खोज है आलोचना । उपलब्ध को उत्पादित और पुनर्रूत्पादित करना आलोचना नहीं है। 'उपलब्ध' तो आलोचना का कच्चा माल है जबकि अनुपलब्ध आलोचना का मौलिक तत्व है। आलोचना में जनतंत्र का विकास तब होता है जब आलोचना अनुपलब्ध की तरफ ध्यान देती है। परिवर्तनकामी विचारों को भविष्य में ले जाती है। 
             परिवर्तनकामी विचारों को भविष्य की जरूरत होती है जब कि संकीर्ण विचारों को अतीत की जरूरत होती है। जो आलोचना मूलगामी परिवर्तनकामी विचारों को भविष्य में ले जाती है वह जनतंत्र का विकास करती है साथ ही हाशिए के लोगों के साहित्य को भी सामने आने का अवसर देती है।
             आलोचना में लोकतंत्र का अर्थ है सामाजिक परिवर्तन के मूलगामी विचारों को भविष्य को सौंपना। मौजूदा हिन्दी आलोचना इस अर्थ में अधूरी जनतांत्रिक आलोचना है। इसने रेडीकल विचारों को भविष्य को सौंपने की बजाय अतीत के हवाले कर दिया है। नए विचारों की पुष्टि प्राचीन प्रमाणों से की जाती है। अभी भी पुराने से वैधता न मिले तो उसे हम स्वीकार नहीं करते।
              पुराना अभी भी वैध है,प्रामाणिक है। नए को प्रामाणिकता हासिल करनी है तो पुराने की शरण में लौटे। नए की जमीन वर्तमान है और उसका विकास भविष्य में होता है। हमें देखना होगा कि हमारी नयी आलोचना भविष्य की ओर जाती है अथवा अतीत की ओर।
               आलोचना की प्रधान चिन्ता है अतीत को अर्जित करने की। भविष्य को खोजना उसका लक्ष्य नहीं रहा है। रामचन्द्र शुक्ल ने अपनी आलोचना की पुष्टि के लिए तुलसी को आधार बनाया, हजारीप्रसादद्विवेदी ने कबीर को आधार बनाया। हिन्दी आलोचना में संभवत: मुक्तिबोध और नामवरसिंह ये दो आलोचक हैं जो आलोचना के वर्तमान में रहते हैं, वर्तमान के साहित्य के साथ संवाद करते हैं। मुक्तिबोध ने कामायनी और नयी कविता पर विचार किया तो नामवरसिंह ने सामयिक कविता और कथा साहित्य पर विचार किया। उल्लेखनीय है सभी किस्म के रेडीकल विचारों के लिए भविष्य की जरूरत होती है,वैसे ही जैसे सभी किस्म की संकीर्ण राजनीति के लिए अतीत की जरूरत होती है। रेडीकल विचारों को भविष्य के लिए सौंपने का अर्थ है आलोचना में आत्मालोचना का विकास करना।
            हिन्दी आलोचना में आत्म-समीक्षा का अभी तक विकास ही नहीं हुआ है। उसमें आलोचकीय साहस और सहिष्णुता नहीं है। आलोचना में आत्म-समीक्षा ,साहस और सहिष्णुता के अभाव से ही अहं और अज्ञान पैदा होता है। मुक्तिबोध और नामवरसिंह इस संदर्भ में अपवाद हैं।
               आलोचना में लोकतंत्र के विकास का अर्थ है आत्म-समीक्षा का विकास। हमारी आलोचना की सबसे बड़ी कमजोरी यह है कि वह अपने को संपूर्ण मानती है,संपूर्ण आलोचना के नाम पर आलोचना में अप्रासंगिक लेखन की बाढ़ आई हुई है। आज स्थिति इतनी बदतर है कि आप किसी भी साहित्यिक पत्रिका को उठाकर देख लीजिए आप प्रासंगिक आलोचना और अप्रासंगिक आलोचना में फ़र्क नहीं कर सकते।
              आज अधिकांश पत्र-पत्रिकाओं में आलोचना के नाम पर जो कुछ छप रहा है इसे साहित्यालोचना कहना सही नहीं होगा, बल्कि यह तो मासकल्चर के नजरिए से लिखी जा रही साहित्य समीक्षा है इसमें आलोचना के लिए जगह कम है, आलोचनात्मक विवेक का अभाव है,यह मार्केटिंग की रणनीति के तहत लिखी जा रही आलोचना है।
             आलोचना आज किताब की बाजार प्रमोशन स्कीम का हिस्सा हो गयी है। किताब के लिए बाजार तैयार करना बुरी बात नहीं है। किंतु इसी को एकमात्र आलोचना कहना सही नहीं है। आलोचना में जनतंत्र का आधार है लोकतंत्र की हमारी सही समझ। लोकतंत्र की सही समझ ही आलोचना में लोकतंत्र के विकास का रास्ता खोलती है।
               जनतंत्र के लिए बुर्जुआ समाज अनिवार्य है और बुर्जुआ विचारधाराओं में से ही चुनने पर जोर रहता है, जनतंत्र के बुर्जुआ विकल्पों पर ही जोर रहता है, उसे देखकर यही लगता है कि इस तरह के सोचने वाले लोकतंत्र को संरचना के रूप में देख रहे हैं,वे लोकतंत्र के रूप या फॉर्म की बातें कर रहे हैं,उसकी अंतर्वस्तु की नहीं। लोकतंत्र के रूप के साथ लोकतंत्र की अंतर्वस्तु के बारे में सोचा जाना चाहिए।
              आलोचना में लोकतंत्र के बारे में सोचते समय हमारा ज्यादा ध्यान लोकतंत्र पर रहा है आलोचना पर नहीं। जनवादी आलोचकों ने ऐसी आलोचना खूब लिखी है। कुछ आलोचक ऐसे भी हैं जिन्होंने आलोचना पर ज्यादा ध्यान दिया और लोकतंत्र को विचारयोग्य ही नहीं समझा जैसे नंददुलारे बाजपेयी,रामस्वरूप चतुर्वेदी, रमेशकुन्तलमेघ।
              कुछ ऐसे भी आलोचक है जो लोकतंत्र को विचारधारा के रूप में देखते रहे हैं और आलोचना को इसका पर्याय बनाने में लगे रहे हैं इस पध्दति को शिवकुमार मिश्र और चन्द्रबलीसिंह की आलोचना पद्धति में देख सकते हैं। इस समूची प्रक्रिया में आलोचना और लोकतंत्र का रिश्ता संतुलित होने की बजाय असंतुलित बना है।
                 



शनिवार, 13 मार्च 2010

पाठक और लेखक की मंशा

       पाठ के जरिए पाठक और लेखक की मंशा के द्वंद्वात्मक संबंध की खोज की जानी चाहिए। सिर्फ लेखक की मंशा को खोजने से बचना चाहिए। हमें उन टेक्स्चुअल रणनीतियों की खोज करनी चाहिए जिनके तहत पाठक को अपनी मंशाओं को भी रामचरितमानस में खोजने का अवसर मिलता है। इस कार्य को यदि कर लेते हैं तो आदर्श लेखक और आदर्श पाठक दोनों को ही खोजने में सफल रहेंगे। हमें व्यक्ति के तौर पर सिर्फ लेखक की मंशा को नहीं खोजना चाहिए। ऐसा करना व्यर्थ की कवायद है। हमें पाठ का सम्मान करना चाहिए बेचारे लेखक का नहीं। किंतु यह भी ध्यान रहे कि पाठ से पूरी तरह लेखक को अलग करना संभव नहीं है। खासकर व्याख्या के संदर्भ में। संप्रेषण में वक्ता की मंशा का संदर्भ सहज ही आ जाता है। यह चीज प्रत्येक किस्म के संचार में होती है।

लेखक एक पाठक के लिए नहीं अनेक पाठकों के लिए लिखता है। पाठ की व्याख्या के संदर्भ में सबसे पुरानी बहस है कि लेखक क्या कहना चाहता है ? अथवा लेखक की मंशा से स्वतंत्र होकर पाठ क्या कहना चाहता है ? ये दोनों ही सवाल और दुविधाएं पाठ में निहित होती हैं और जेनुइन हैं। इन दोनों सवालों पर विचार करने के बाद यही सवाल उठता है कि पाठ में क्या मिला ? समस्या यह है कि पाठक की मंशा को परिभाषित करना सबसे जटिल काम है। वह ज्यादा अमूर्त होती है और पाठ में ही निहित होती है। यदि किसी को पाठक की मंशा पाठ में नजर आ जाती है तो गंभीरता से विचार करना चाहिए कि पाठ की मंशा क्या है ? असल में पाठक की मंशा का निर्माण पाठ के योग से होता है। पाठ में ऐसी रणनीतियां छिपी होती हैं जिनसे आदर्श पाठक का जन्म होता है। इको ने लिखा है पाठक के योग से सही पाठ पैदा नहीं होता। बल्कि पाठ ही है जो अनंत योग को लागू करता है। इम्पीरिकल पाठक तो सिर्फ अभिनेता मात्र है जो पाठ में निहित संयोगों को पैदा करता है कि पाठ को कैसा पाठक चाहिए।

इसी तरह पाठक अपने लिए आदर्श लेखक की तलाश करता है यह इम्पीरिकल लेखक नहीं है। आदर्श लेखक की खोज अंत में पाठ की मंशा के साथ घुलीमिली नजर आती है। व्याख्या को वैध बनाने के लिए पाठक अनेक आधारों का इस्तेमाल करता है। जिससे अनुकूल परिणाम हासिल किए जा सकें। पुराने किस्म का भाष्य यही करता है। किसी भी कृति के आंतरिक कार्यव्यापार को अपनाने का अर्थ है पाठ में निहित चिन्हशास्त्रीय रणनीतियों को अपनाना। कभी कभी चिन्हशास्त्रीय रणनीतियां स्थापित शैलियों के कन्वेंशन के जरिए उद्धाटित होती हैं। कभी पाठ को इस तरह लिखा जाता है जैसे पाठ बच्चा हो। आमतौर पर जनप्रिय कथाओं की संरचना ऐसी ही होती है।

मध्यकालीन पाठ परीकथा,मिथकीय कथा अथवा पुराने ऋषियों की कथा कहने की शैली से ही आरंभ होते हैं। कथा कहने की यह शैली असल में पाठ को आगे विकसित करने में मदद करती है। जबकि लेखक टिपीकल प्राचीन पध्दति का इस्तेमाल करता है और यह मानकर चलता है कि पाठक बच्चा है।

प्रत्येक पाठ अनेक चीजों के योग से बनता है। इसे ही साहित्य कहते हैं। कोई रचना साहित्य है या नहीं इसका फैसला उसकी कोहरेंस प्रस्तुति के आधार पर ही किया जा सकता है। किसी भी पाठ के अंश की वैधता तब ही स्वीकार की जाती है जब व्याख्या से उसे पुष्ट किया जा सके। उसी पाठ का अन्य हिस्सा उसे चुनौती दे ।

शुक्रवार, 12 मार्च 2010

साहित्य में व्याख्या और अति-व्याख्या के खतरे


       हिन्दी आलोचना में व्याख्या और अति-व्याख्या के कई रूप मौजूद हैं। व्याख्या के रूप में वीरगाथाकाल और छायावाद है तो अतिव्याख्या के रूप में भारतेन्दुयुग और भक्ति आंदोलन है। ऐसे में यह बात तय करनी होगी कि 'अच्छी व्याख्या' और 'बुरी व्याख्या' किसे कहें ?

       बुरी व्याख्या को परिभाषित करने के लिए 'अच्छी व्याख्या' को पहले परिभाषित करना जरूरी है। बुरी व्याख्या के प्रयोग नयीकविता और प्रयोगवाद की व्याख्याओं में देख सकते हैं। जबकि अच्छी व्याख्या के प्रयोग वीरगाथाकाल और छायावाद की व्याख्या में मिलेंगे। हिन्दी में व्याख्या और अतिव्याख्या के रूप में अभी बहस नहीं की जा रही है। अतिव्याख्या क्या है ? अतिव्याख्या का आदर्श पाठ है रामचरितमानस। इस किताब के बारे में जितना लिखा गया है उतना शायद किसी किताब के बारे में नहीं लिखा गया और दूसरा विषय है भारतेन्दुयुग। ये दोनों अतिव्याख्या के आदर्श रूप हैं। दोनों ही धर्मनिरपेक्ष पाठ के प्रतीक हैं। रामचरितमानस तो आमजनता में पवित्र धार्मिक ग्रंथ के रूप में जाना जाता है।

रामचरितमानस की अतिव्याख्या सतह पर स्वाभाविक लगती है ऐसी अनुभूति किसी भी प्राचीन मिथककथा के साथ हो सकती है। प्राचीन मिथक कथा को हमेशा संदेह के साथ पढ़ा जाता है जिसके कारण अतिव्याख्याएं जन्म लेती हैं। अतिव्याख्या के बावजूद भी आजतक रामचरितमानस पवित्र ग्रंथ है। इसकी व्याख्या आप उलटे-पुलटे ढ़ंग से नहीं कर सकते। उसी तरह रामकथा की आप मनमानी व्याख्या भी नहीं कर सकते। क्योंकि यह एक पवित्रकथा है। रामचरितमानस की असल व्याख्या मानसपंडितों ने तैयार की है। यह जनता की मनोदशा के अनुसार बदलती रही है। इस व्याख्या का आधार पाठ नहीं पाठक है। जबकि साहित्यिक आलोचकों के यहां रामचरितमानस की व्याख्या का आधार पाठक नहीं पाठ है।

मध्यकाल में प्रत्येक चीज की व्याख्या के लिए बढ़ावा दिया गया। फलत: व्याख्याओं का अम्बार लग गया। व्याख्या के अम्बार में अनेक विकल्प भी हैं। इसके बावजूद मध्यकालीन पाठ पवित्र धार्मिकपाठ है, धर्मनिरपेक्ष पाठ है,एकाधिक अर्थों को अभिव्यंजित करने वाला पाठ है। इस पाठ के सुनिश्चित नियम हैं।जो पाठ में छिपे हैं। ये सतह पर नजर नहीं आते। छिपा अर्थ रहस्यमय नहीं होता जो मध्यकालीन पाठ को सही ढ़ंग से पढ़ना जानते हैं वे ही बता पाएंगे कि आखिरकार मूल अर्थ क्या है। यदि मध्यकालीन पाठ को पहली नजर में सही ढ़ंग से नहीं पढ़ पाते हैं तो धार्मिक लोग उसे पढ़ने की चाभी प्रदान करते हैं। रामचरितमानस का एक धार्मिक पाठ के रूप में विकास और फिर उसका धर्मनिरपेक्ष पाठ के रूप में रूपान्तरण्ा इस बात का संकेत है कि मध्यकालीन पाठ समय के साथ बदलता है ,उसकी व्याख्याएं उसके बुनियादी जनप्रिय चरित्र को बदलती हैं। रामचरितमानस की अतिव्याख्या ने पाठ में निहित अर्थों को खोलने में मदद की ,जिससे रामचरितमानस का धर्मनिरपेक्ष स्वरूप उद्धाटित हुआ।

एक अन्य चीज जिसकी ओर ध्यान देने की जरूरत है वह है पाठ का जनप्रिय उपयोग। किसी भी पाठ का जनप्रिय उपयोग उस पाठ को वही नहीं रहने देता जिस रूप में उसे लेखक ने बनाया था। रामचरितमानस के साथ भी यही हुआ। अन्य भक्त कवियों के साथ भी यही हुआ है। पाठ का जनप्रिय उपयोग पाठ के चरित्र को बदलता है। यह परिवर्तन प्रतिगामी और प्रगतिशील कुछ भी हो सकता हैं। मूल बात यह है कि पाठककेन्द्रित पाठ की व्याख्या चंचल होती है।

पाठ के अनुगामियों का आग्रह पाठ के अर्थ को निर्धारित करता है। सवाल उठता है कि रामकथा पहले से चली आ रही थी रामचरितमानस लिखकर तुलसीदास ने इसे धार्मिक कथा बनाया अथवा धर्मनिरपेक्ष कथा बनाया ? ठीक यही सवाल कृष्णकथा के संदर्भ में सूरदास की रचनाओं को पढ़ते समय उठाया जाना चाहिए। क्या कृष्णकथा को सूरदास ने धर्मनिरपेक्ष कथा बनाया अथवा धार्मिककथा बनाया ? अथवा आधुनिककालीन आलोचना ने रामचरितमानस और कृष्णकथा को धर्मनिरपेक्ष बनाया ? आलोचना में यह पुरानी बहस है कि पाठ क्या कहता है अथवा लेखक क्या कहना चाहता है ? हम भारतेंदुकाल से यह बताते आ रहे हैं कि लेखक क्या कहना चाहता हैं। पाठ की पाठककेन्द्रित स्वायत्ता व्याख्या को हमने कभी तरजीह नहीं दी। पाठ और पाठक के अन्तस्संबंध, पाठ की स्वायत्ताता ,पाठ के कोहरेंस, मूल अन्तर्निहित अर्थ, पाठक की अपनी उम्मीदों के अनुरूप अर्थ की तलाश आदि विषयों पर हमने गंभीरता के साथ विचार ही नहीं किया।

रामचरितमानस की धर्मनिरपेक्ष व्याख्या के क्रम में पाठककेन्द्रित व्याख्या की पध्दति का ख्याल रखा गया। पाठक की मंशाओं को उभारा गया और उसके स्रोत के रूप में पाठ का इस्तेमाल किया गया। मंशाएं पाठक की और आधार था पाठ। पाठ की मंशा सतह पर दिखाई नहीं देती। बल्कि उसे तय करके खोजना पड़ता है। यदि पाठ का सतह पर अर्थ दिखाई दे रहा हो तो जब तक उसे बताया न जाए स्वीकार नहीं करते। कहने का तात्पर्य यह है कि पाठ की मंशा मूलत: पाठक की मंशा का परिणाम होती है। पाठ और पाठक की मंशा के योग के आधार पर आदर्श पाठक बनता है।

रामचरितमानस की कहानी मिथककथा की तरह आरंभ होती है। आप चाहें तो इसे परीकथा की तरह पढ़ सकते हैं और चाहें तो संकेतों और प्रतीकों के जरिए खोल सकते हैं अथवा इस कथा में निहित बिडम्बनाओं का अध्ययन कर सकते हैं। लेकिन इस सबके लिए आपको पाठ को खोलना होगा। पाठ में प्रवेश करना होगा। पाठ में प्रवेश करने के बाद उसका अर्थ खुलता है और यह अर्थ वही होता है जो पाठ को वैधता प्रदान करे। अथवा ऐसा अर्थ भी हो सकता है जो पाठ को खारिज करे अथवा चुनौती दे। अथवा पाठ के कुछ हिस्सों को खारिज करे और कुछ को चुनौती दे। जैसाकि रामचरितमानस के संदर्भ में होता रहा है। हम उसके अनेक हिस्सों को प्रक्षिप्त मानते हैं,खारिज करते हैं और अनेक को चुनौती भी देते हैं। इसका अर्थ यह भी है कि रामचरितमानस में आंतरिक तौर पर टेक्स्चुअल नियंत्रण है। अन्यथा तो पाठक के अनियंत्रित प्रयास से पाठ कुछ का कुछ हो सकता था।

बुधवार, 10 मार्च 2010

साहित्यालोचना में सामयिक रीतिवाद के खतरे



     पाठ की आलोचना में अनेक पुरानी धारणाएं आज भी उपयोगी हैं। पाठ का जगत खुला होता है। जहां पर व्याख्याकार अनंत अन्तर्संबंधों की खोज करता है। भाषा पहले से मौजूद अर्थ को पकड़ने में असमर्थ होती है। भाषा की जिम्मेदारी है कि वह बताए कि अचानक कैसे विपरीतों को व्यक्त किया जा रहा है। असल में विचारों की असंपूर्णता का दर्पण है भाषा। व्यक्ति में रूपान्तरणकारी अर्थ की असमर्थता इस संसार में व्यक्त होती है। कोई भी पाठ एकस्वरीय स्वांग करता है। यह सार्वभौम का गर्भपात है। यह पाठ का घल्लूघारा है। अब तक यह बताया गया  '' यह वह है।'' किंतु इसके विपरीत अबाधित ढ़ंग से स्थानान्तरित अर्थ यह बताता रहा कि 'यह वह नहीं है।'
     सामयिक पाठीय रीतिवाद काफी उदार है।  पाठक के ऊपर लेखक की अलिखित मंशा को आरोपित करता है। इसके कारण लेखक यह महसूस ही नहीं कर पाता कि उसने क्या कहा है। क्योंकि उसकी जगह तो भाषा बोल रही होती है। पाठ की मुक्ति से तात्पर्य है अर्थ के कल्पनाजगत को जागरूकता के अनंत अर्थों में रूपान्तरित करना। ऐसे में पाठक संदेह करता है कि पाठ की प्रत्येक पंक्ति में कोई न कोई गोपनीय अर्थ छिपा है। शब्दों का कार्य था बताना किंतु यहां तो शब्दों का कार्य है अकथनीय को छिपाना। इसी क्रम में पाठक की प्रभावशाली  भूमिका सामने आती है जिसमें वह पाठ में से प्रत्येक चीज की खोज लेता है। सिर्फ उस बात के जो लेखक कहना चाहता है। ज्योंही वह अर्थ को जान लेने का स्वांग करता है तब हम सुनिश्चित होते हैं कि वास्तव अर्थ वह नहीं है जो बताया जा रहा है। वास्तव अर्थ तो कहीं आगे होता है और इस तरह आगे और फिर आगे अर्थ की खोज करते रहते हैं। इस क्रम में हम ' मैं समझ गया' कहना बंद कर देते हैं। उम्ब्रेतो इको ने लिखा है असली पाठक वह है जो पाठ के खोखलेपन की गोपनीयता से वाकिफ होता है।
      पुरानी आलोचना में कहीं न कहीं व्याख्या की सीमा तय करने का आधार रहा है। इसके बावजूद व्याख्या का सिलसिला अनेक रूपों में जारी है। जब एक पाठ अपने वक्ता से अलग होता है अथवा वक्ता की मंशा से पृथक् होता है तो वह बोलने की ठोस परिस्थितियों से अलग हो जाता है।अथवा यह भी कह सकते हैं कि वह अपने संदर्भ से अलग हो जाता है। ऐसी अवस्था में जब आप शून्य में बोलते हैं तो अनंत व्याख्याओं की सम्भावनाएं पैदा हो जाती हैं। पाठ की यदि व्याख्या बतायी जा रही है तो उसे कहीं पर होना चाहिए।
        व्याख्या करते समय आमतौर पर समान तुलनाएं खोज ली जाती हैं। जैसाकि रैनेसां की व्याख्या के क्रम में हुआ। हिन्दी के आलोचकों ने यूरोप और भारतीय रैनेसां के बीच 'समानता' और 'अंतर' खोज लिए। भारतेन्दुयुग को रैनेसां के रूप में व्याख्यायित करने वाला साहित्य व्यापक परिमाण में उपलब्ध है। यह आलोचना ज्यादा सुसंगत नजर आती है। इसमें आलोचना के नियम भी दिखाई देते हैं। जब हम समानता के आधार पर आलोचना विकसित करते हैं तो पुनरावृत्तिा ज्यादा करते हैं,सामान्यीकरण ज्यादा करते हैं। ज्यादा लोचदार ढ़ंग से व्याख्या करते हैं। समानता के आधार पर व्याख्या करते समय कभी व्यवहार में समानता खोजते हैं तो कभी आकार-प्रकार में,कभी तथ्यों में,कभी खास किस्म के संदर्भ में समानता खोजते हैं। इन सबके बीच में किसी न किसी तरह का संबंध स्थापित करते हैं।
     समस्या यह है कि ज्योंही आप तुलना करने बैठते हैं तो यह सिलसिला फिर थमने का नाम नहीं लेता। इमेज,अवधारणा और सत्य में समानताएं खोज ली जाती हैं। इसके चलते फिर एक और नयी तुलना सामने आ सकती है। रामविलास शर्मा के द्वारा 19वीं शताब्दी के रैनेसां की यूरोप के रैनेसां के साथ की गई तुलना वहीं तक थम नहीं गयी बल्कि उसे प्राचीनकाल तक खींचकर ले जाते हैं। यही हाल भक्तिकाल का हुआ है। कुछ आलोचकों ने आधुनिकाल की अवधारणएं मध्यकालीन भक्तिकाव्य में ही खोज ली हैं। मसलन् धर्मनिरपेक्षता, साम्प्रदायिकता, इतिहासबोध, इतिहासदृष्टि, आधुनिकता आदि के तमाम लक्षण तुलना के आधार पर भक्तिकाल में भी खोज लिए गए हैं।
    कहने का तात्पर्य यह है कि आप तुलना करने लगते हैं तो फिर चीजें थमती नहीं हैं। प्रत्येक बार जो चीज सामने आई है वह है तुलना। यानी तुलनाओं का अन्तहीन सिलसिला चल पड़ता है। हमारा संसार तुलनाओं के तर्क से भरा पड़ा है। प्रत्येक व्याख्याकार की यह जिम्मेदारी है कि वह तुलनाओं को संदेह की नजर से देखे। उनमें छिपे संकेतों को संदेह की नजर से देखे। जिससे संकेत के भावी अर्थ को खोला जा सके। जब चीजें समान हों तो वह संकेत बन जाती हैं। उन्हें एक-दूसरे के आधार पर पहचाना जा सकता है। किंतु यह समानता स्वचालित नहीं है। जैसे लेखक लेखक बराबर होते हैं। किंतु क्या बांग्ला लेखक और हिन्दी लेखक बराबर हैं ,क्या वास्तव में उनमें कोई बराबरी है ? सिवाय इसके कि सतह पर दोनों लेखक के रूप में जाने जाते हैं। इससे समानता और तुलना करना क्या सही होगा ? क्या कालिदास और रवीन्द्रनाथ की तुलना संभव है ? क्या टैगौर और निराला में तुलना संभव है ? आलोचना में तुलना का तत्व विभ्रम पैदा करता है। कभी-कभी गलत समझ भी पैदा करता है। खासकर परिप्रेक्ष्यभेद को छिपाने की कोशिश की जाती है।
              संकेत के आधार पर तुलना करना बेहद मुश्किल और जटिल काम है। इसमें अनेक मुश्किलें हैं।यह सच है कि मनुष्य अस्मिता और तुलना के आधार पर सोचता है। दैनन्दिन जीवन में इस तरह की तुलनाओं के हम अभ्यस्त होते हैं। साथ ही यह भी जानते हैं  तुलना करते समय कैसे अंतर करें और किन चीजों में अंतर करें ? जो चीजें नजर आती हैं उनमें तुलनाएं करना और जो चीजें नजर नहीं आतीं ,भविष्य के गर्भ में छिपी होती हैं, काल्पनिक होती हैं उनमें तुलना करना ये दो अलग चीजें हैं। दृश्य चीजों के बीच में तुलनाएं न्यूनतम के आधार पर होती हैं और जो अदृश्य में तुलनाएं अधिकतम के आधार पर होती है।
      परिस्थितियों के आधार पर तुलना करना सटीक अर्थ के उद्धाटन में मदद नहीं करता। तुलना को हमेशा परिस्थितियों के आधार पर विकसित नहीं किया जाना चाहिए। परिस्थितियों के आधार पर की गई तुलना ज्यादा सटीक नहीं होती। किसी एक कारण के आधार पर चीजों को व्याख्यायित नहीं किया जा सकता। अथवा किसी वर्ग विशेष की भूमिका के बारे में उसकी सीमित संभावनाओं की बात नहीं की जा सकती। अथवा किसी वर्ग विशेष की सुनिश्चित परिभाषा अथवा सुनिश्चित अर्थ बताकर मामले को सिलटाया नहीं जा सकता। हमने तुलना की पध्दति का इस्तेमाल करते हुए भक्तिकाल और आधुनिकाल के साहित्य का व्यापक मूल्यांकन किया है और इसमें वर्गविशेष की भूमिका भी तय मान ली है। उसके प्रभाव भी निश्चित मान लिए हैं। इससे आलोचना गलत निष्कर्षों पर पहुँची है।
          


मंगलवार, 9 मार्च 2010

किताब के बहाने सत्य की जंग

किताब को जीवन के सत्य के आधार पर परखा गया। लेखकों,बुध्दिजीवियों और दार्शनिकों में सत्य को जानने की प्रवृत्ति का तेजी से विकास हुआ। सत्य क्या है ? सत्य वह है जिसे नहीं जानते। किताब का यही मूल काम था,किताब हमें वह चीज बताती है जिसे हम नहीं जानते। इसके बाद से यह सिलसिला चल निकला कि प्रत्येक किताब में सत्य होता है अथवा सत्य का अंश होता है। सत्य एक-दूसरे की पुष्टि करता है। यानी किताब के द्वारा सत्य की और सत्य के द्वारा किताब की पुष्टि होने लगी।
          भारतीय तर्क परंपरा का यह मॉडल रहा है कि उसमें मध्य नहीं होता। साहित्य में भी मध्य नहीं होता। बल्कि रचना सीधे संकट में दाखिल होती है। संकट को केन्द्र में रखने का अर्थ है अन्तर्विरोधों को रखना। एक-दूसरे के अन्तर्विरोधों को सामने रखना।  ऐसी अवस्था में अनेक चीजें सत्य हों और अनेक किस्म के अन्तर्विरोध भी हों। इसके बावजूद किताब सत्य बोलती है। चाहे एक-दूसरे के बीच अन्तर्विरोध हों। रामायण और महाभारत को लेकर हमारा यही रूख है। किताब जब सत्य बोलती है तो प्रत्येक शब्द को विभ्रम और रूपक में आना चाहिए। वे जो कहते हैं ,जो दिखाई देता है ,उससे भी ज्यादा कहते हैं। दृश्य से अधिक की पाठ में मौजूदगी की तलाश में भाष्य और टीका का समस्त संसार सामने आया। प्रत्येक किताब में ऐसा संदेश है जिसे पहले कभी नहीं देखा गया। इसका उद्धाटन व्याख्या और भाष्य के क्रम में ही हुआ ।
      इन किताबों के अन्तर्निहित अर्थ को आप सिर्फ किताब विशेष के आधार पर ही उद्धाटित नहीं कर सकते। जरूरत इस बात की है कि रहस्यमय संदेशों को मानवीय अभिव्यक्तिं के दायरे के परे ले जाकर देखा जाए। क्योंकि ये किताबें भगवानरचित होने का दावा करती हैं। इन्हें विजन,स्वप्न और देववाणी के रथ के रूप में इस्तेमाल किया गया। जितने रहस्यों का उद्धाटन भाष्य और व्याख्या के क्रम में हुआ वैसा पहले कभी नहीं हुआ। ये किताबें गोपनीय ज्ञान के उद्धाटन का आधार बन गयीं और इस क्रम में किताब भी गोपनीय ज्ञान के उद्धाटन का औजार बन गयी।
     यह माना गया गोपनीय ज्ञान महत्वपूर्ण होता है। सतह पर जो नहीं दिखता वह गोपनीय है। यह गोपनीय लंबे समय तक छिपा रहा। फलत: सत्य वह माना गया जो कहा नहीं गया। अथवा कहीं प्रच्छन्न भाव से कहा गया जिसकी खोज करनी है। यही वजह है सत्य को आज भी गोपनीय माना जाता है। सत्य के साथ गोपनीयता का संबंध बना हुआ है। गोपनीय ज्ञान को गंभीर ज्ञान माना जाता है। फलत: सत्य वह है जो कहा नहीं गया है जो पाठ की सतह पर नजर नहीं आता। पहले भगवान बोलते थे। सब कुछ ईश्वर वचन के रूप में लिया जाता था। आजकल व्यक्ति बोलता है।
मध्यकाल के आरंभ में भक्तिकाल के कवियों और उनके पहले दार्शनिकों में एक साझा तत्व है प्राचीन के प्रति अनास्था। भक्तकवियों और दार्शनिकों ने प्राचीन सत्य का विकल्प तैयार किया,इस विकल्प को तैयार करने के लिए जरूरी था प्राचीन परंपराओं के प्रति अनास्था व्यक्त की जाए। फलत: बड़े पैमाने पर प्राचीन परंपराओं के प्रति अनास्था व्यक्त की गई। प्राचीन परंपराओं के प्रति अनास्था व्यक्त किए बिना विकल्प निर्मित नहीं कर सकते थे। किसी भी किस्म का सत्यज्ञान पुराना होता है। सभ्यता में छिपा रहता है। कहा जाता है  हम सत्य के साथ उसके आरंभ से ही जी रहे हैं। लेकिन हम उसे भूल गए थे। किसी ने हमारे लिए उसकी रक्षा जरूर की होगी। किंतु उनके शब्दों को हम समझ नहीं पाते हैं। ऐसा ज्ञान विजातीय होता है।
           जुंग ने ऐसी अवस्था के बारे में लिखा है जब भगवान की इमेज ज्यादा चिरपरिचित हो जाती है तो वह अपने रहस्य को खो देती है। तब हम अन्य सभ्यता की इमेजों की ओर लौटते हैं,क्योंकि सिर्फ विजातीय प्रतीकों में गोपनीयता के आभामंडल को बनाए रखने की क्षमता होती है। फलत: यह गोपनीय ज्ञान ऋषियों,मुनियों, दार्शनिकों आदि के पास चला गया। गोपनीय ज्ञान के वे ही ज्ञाता थे। साधारण लोगों के पास गोपनीय ज्ञान नहीं था। ऋषियों का काम था 'वायदा करना' और 'गोपनीय का उद्धाटन करना'। वे कोशिश करते थे उनका ज्ञान किसी विदेशी के हाथ न पड़ जाए। कोई विदेशी उनकी भाषा न जान ले। हमारे ऋषिगण सत्य को छिपाकर बताते थे। अथवा उसे गोपनीय बताकर छिपाते थे।
     एक ऐसी परंपरा भी विकसित हुई जिसने इस बात पर जोर दिया कि सत्य को छिपाने की नहीं बताने की जरूरत है। दर्शन में यह नास्तिकों की चार्वाक परंपरा थी। वे सत्य और ज्ञान को छिपाने की बजाय बताने पर जोर देते थे। सत्य और ज्ञान को बताने वाली परंपरा के सबसे बड़े आरंभिक लोग चार्वाक हैं जबकि साहित्य में वेदव्यास,बाल्मीकि,भरत हैं, चिकित्सा में सुश्रुत और ज्योतिष में आर्यभट्ट आदि हैं। हमारे सर्जनात्मक साहित्य की परंपरा सत्य को छिपाने की बजाय सत्य को बताने पर ,ज्ञान को छिपाने की बजाय ज्ञान को बताने पर जोर देती है। ज्ञान और सत्य के सार्वभौम और विशिष्ट दोनों रूपों पर जोर देती है। इसके आधार पर सार्वभौम और विशिष्ट सहानुभूति और समर्थन अर्जित किया गया। इस क्रम में अन्तर्विरोधहीनता के सिध्दान्त को खारिज किया गया। हमारी आरंभिक रचनाएं पूरी तरह अन्तर्विरोधों को उजागर करती हैं। इस तथ्य पर प्रकाश डालती हैं कि प्रत्येक चीज में अन्तर्विरोध होते हैं।
    एक सवाल बार-बार सामने आया है कि ईश्वर को व्याख्यायित नहीं किया जा सकता। ईश्वर को परिभाषित करने में जितनी शक्ति लगायी गयी है उससे ज्यादा शक्ति ईश्वर अव्याख्येय है इस पर खर्च की गई है। इसका अर्थ यह है कि हमारे पास ईश्वर को परिभाषित करने की भाषा नहीं थी। ईश्वर का अव्याख्येय होना भाषा की कमी का द्योतक है। जादुई विचार यह रेखांकित करते हैं कि हमारी भाषा ज्यादा अस्पष्ट और बहुअर्थी है। इसमें संकेतों और रूपकों का ज्यादा प्रयोग मिलता है। यह ऐसी भाषा है जिसमें जो विरोध में है, पराया है उसको भी अपना बनाकर पेश किया जाता है। विपरीत को दुर्घटना अथवा अचानक उत्पन्न मान लिया गया है। खुदा की कुदरत मान लिया गया है। इसके कारण पहचान के सिध्दान्त का लोप हो जाता है। भारतीय दर्शन की भाषा में अपने विरोधी अथवा विपरीत को अपने अंदर समाहित कर लेने की पध्दति को सहज ही देखा जा सकता है। इसके कारण दर्शन के एक-दूसरे स्कूल के बीच में अंतर करने में असुविधाओं का सामना करना पड़ता है।संस्कृत काव्यशास्त्र में भी यही पध्दति अपनायी गयी है। फलत: एकाधिक या अनंत व्याख्याओं की परंपरा चल निकली।
      यदि आप किसी चीज को अंतिम अर्थ पर पहुँचना चाहते हैं तो ऐसी जगह पर पहुँच जाएंगे जिसका कोई अंत नहीं है। इस समूची प्रक्रिया में यह तथ्य संप्रेषित हुआ है कि प्रत्येक चीज में कोई न कोई रहस्य छिपा होता है। प्रत्येक बार इस गोपनीय रहस्य को खोजने के लिए व्याख्या और पुनर्व्याख्या की जरूरत पड़ी । किंतु अंतिम रहस्य जैसी कोई चीज नहीं होती। भाष्य और टीकाओं की परंपरा इसी आधार पर विकसित हुई है कि हमें गोपनीय रहस्य को सामने लाना है किंतु इसके अंतिम बिंदु तक ये लोग कभी नहीं पहुँच पाए। यह कभी नहीं बताया गया यह अंतिम रहस्य है।
       भाष्य या टीका का लक्ष्य रहा है गोपनीय का उद्धाटन । इसी अर्थ में इको ने कहा था भाष्य में गोपनीयता का तत्व खोखला है।  प्रत्येक ने उसे खोलने की कोशिश की है। रहस्य को खोलने के चक्कर में भाष्यकारों-टीकाकारों ने ज्ञान के समस्त नाटक को भाषाविज्ञान के फिनोमिना में तब्दील कर दिया। एक-एक शब्द की अनेक व्याख्याओं को पेश किया। साथ ही भाषा की कम्युनिकेशन की शक्ति को अस्वीकार किया। मसलन् ब्रह्म और माया,आत्मा और शरीर, स्वर्ग और नरक, इहलोक और परलोक,ईश्वर और मनुष्य आदि को लेकर जितना व्यापक भाष्य तैयार किया उसने भाष्य को एम्प्टी या खोखला बना दिया। इसने भाषा की कम्युनिकेशन की शक्ति को अस्वीकार किया। किंतु इस क्रम में बुद्धि की क्षमता को प्रदर्शित करने का अवसर जरूर मिला। बुद्धि को रहस्य का वासस्थान बना दिया। बुद्धि के जरिए ही रहस्यों के उद्धाटन की संभावना बनी ।
     


सोमवार, 8 मार्च 2010

औरत क्या है ?

     औरत क्या है ? इस सवाल को तरह -तरह से व्याख्यायित किया गया है। जूलिया कृस्त्वा ने लिखा है कि औरत क्या है ? इस सवाल का कोई जबाव नहीं दिया जा सकता। औरत नाम की कोई चीज नहीं होती। यह विषय हमेशा प्रक्रिया में सामने आता है फलत: उसकी पहचान के अनेक रूप हैं। उस पर पिता के मनमाने कानून थोप दिए जाते हैं यही वजह है कि वह उसके प्रति ही जबावदेह है। वह अनेक विषयों के लिए खुली है, अनेक संभावनाओं के लिए खुली है।
     कृस्त्वा ने स्त्रीत्व की धारणा के इस्तेमाल पर जोर दिया है। मोनिका वीटिंग की राय है  औरत  पदबंध में कोई सकारात्मक तत्व नहीं है।बल्कि यह गुलाम का समानार्थी है। इरीगरी का मानना है कि औरत तो मर्द की सृष्टि है। हमारे समाज में औरत ऐसी वस्तु है जिसका मर्दों के द्वारा इस्तेमाल किया जाता है और वे ही उसका विनिमय करते हैं। उसका स्थान बाजारू माल की तरह है। औरत सिर्फ मर्द की कामुक पहचान की पुष्टि करने वाला तत्व है।

      औरत क्या है ? यह सवाल ही गलत है। बार-बार उसकी व्याख्या के द्वारा यही बताया गया है कि उसमें क्या कमी है,अभाव है,उसकी क्या सीमाएं हैं।उसकी हमेशा नकारात्मक छवि बनायी गयी है। इरीगरी औरत की धारणा निर्मित करने की बजाय सेक्सुअल डिफरेंस में स्त्री के लिए सुरक्षित जगह खोजती है। इरीगरी अंत तक यह नहीं बताती कि औरत क्या है। फलत: शिश्नकेन्द्रित व्यवस्था में ही लौट जाती है।
उत्तर आधुनिकतावादी स्त्रीवाद मानता है कि स्त्री को मातहत बनाने या उसके शोषण का कोई एक कारण नहीं है। वे यह भी मानते हैं कि जेण्डर सामाजिक निर्मिति है और इसे भाषा के जरिए बनाया जाता है। जेण्डर सार्वभौम नहीं है।इस मसले को देखने की या उसके समाधान का कोई एक नजरिया नहीं है।
  सिकसाउस मानती है कि औरतों को भिन्न तरीके से सोचना चाहिए। अपने इतिहास के बारे में भिन्न तरीके से सोचना चाहिए। उन्हें सिर्फ अपने उदय के बारे में ही पता नहीं करना चाहिए बल्कि भाषा के नजरिए से भी सोचना चाहिए। इसी के गर्भ से स्त्रियों का वैकल्पिक इतिहास जन्म लेगा। यह ऐसा इतिहास होगा जो सत्ता की कहानियों,दमन और असमानता के दायरे के बाहर होगा। सत्ता,दमन और असमानता के केन्द्र में अब तक हमारा शरीर और भाषा रही है।
    सिकसाउस ने रेखांकित किया कि स्त्री का लेखन एक शारीरिक कर्म है। शरीर से उसके लेखन को अलग नहीं किया जा सकता। स्त्री के लेखन को उसके वास्तव शरीर ने रचा है। लेखन एक शारीरिक कर्म है। इसके बारे में अभी तक बहुत ज्यादा नहीं कहा गया है।
         लेखन प्रारंभ करने के लिए खास तरह के संस्कार की जरूरत होती है। व्यक्ति पहले अपने को भाषा में व्यक्त करता है। ऐसे में उसे भाषा का प्रयोग करना आना चाहिए। इसके बाद उसे प्रामाणिक संस्कारों की जरूरत पड़ती है। लेखन एक शारीरिक प्रयास है।
      सिकसाउस ने स्त्री लेखन को बच्चा पैदा करने जैसा कर्म माना है।बच्चा पैदा करने वाले रूपक के माध्यम से यह बताने की कोशिश की है कि स्त्री के पास व्यापक कलात्मक संसाधन होते हैं। स्त्री लेखन में माँ की इमेजरी शरीर,दूध,आवाज आदि का व्यापक प्रयोग होता है। सिकसाउस ने लिखा कि मैं अंदर से लिखती हूँ। मेरा लिखा पेज मेरे आंतरिक से जुडा है।वह इसी वजह से मेरे शरीर से जुड़ा है। मेरा पेज मेरे अंदर है। बाहर मेरा बहुत कम है। मेरा शरीर मेरे कागज में लिपटा हुआ है। लेखन में सिर्फ मनस्थिति ही नहीं आती अपितु शरीर, आकांक्षा और भाषा भी आती है सिकसाउस ने लिखा कि यह हमारा सौभाग्य है कि हमारे पास भाषा है।यह दुनिया की सबसे कीमती चीज है। भाषा के बिना आदमी कुछ भी नहीं कर सकता।
      सिकसाउस ने लिखा,'स्त्रियों को अपने बारे में लिखना चाहिए ,स्त्रियों के बारे में लिखना चाहिए। स्त्रियों को लिखने के लिए उत्प्रेरित करना चाहिए।उन्हें उनके शरीर से हिंसक ढ़ंग से अलग किया गया है।'' ,''लिखो,खूब लिखो,लेखन तुम्हारे लिए है, तुम लेखन के लिए हो और लेखन तुम्हारे लिए है,तुम अपने लिए हो,तुम्हारा शरीर तुम्हारा है,इसे ले लो।'' सिकसाउस के लिए लेखन बहुत शक्तिशाली हथियार था। वह इसके माध्यम से परिवर्तन की संभावनाओं को देख रही थी। स्त्री के आनंद को उसके शारीरिक सशक्तिकरण का अस्त्र माना। सर्जक स्त्री वह नहीं है जो सूखा सैध्दान्तिक लेखन करे। स्त्री लेखन वह है जो वर्गीकरण का प्रतिरोध करे।अस्तव्यस्त करे। उसका प्रसार करे।परंपरागत विवेकपूर्ण पाठ की आलोचना करे।तभी वह शारीरिक आनंद देता है।