परिवर्तनकामी विचारों को भविष्य की जरूरत होती है जब कि संकीर्ण विचारों को अतीत की जरूरत होती है। जो आलोचना मूलगामी परिवर्तनकामी विचारों को भविष्य में ले जाती है वह जनतंत्र का विकास करती है साथ ही हाशिए के लोगों के साहित्य को भी सामने आने का अवसर देती है।
आलोचना में लोकतंत्र का अर्थ है सामाजिक परिवर्तन के मूलगामी विचारों को भविष्य को सौंपना। मौजूदा हिन्दी आलोचना इस अर्थ में अधूरी जनतांत्रिक आलोचना है। इसने रेडीकल विचारों को भविष्य को सौंपने की बजाय अतीत के हवाले कर दिया है। नए विचारों की पुष्टि प्राचीन प्रमाणों से की जाती है। अभी भी पुराने से वैधता न मिले तो उसे हम स्वीकार नहीं करते।
पुराना अभी भी वैध है,प्रामाणिक है। नए को प्रामाणिकता हासिल करनी है तो पुराने की शरण में लौटे। नए की जमीन वर्तमान है और उसका विकास भविष्य में होता है। हमें देखना होगा कि हमारी नयी आलोचना भविष्य की ओर जाती है अथवा अतीत की ओर।
आलोचना की प्रधान चिन्ता है अतीत को अर्जित करने की। भविष्य को खोजना उसका लक्ष्य नहीं रहा है। रामचन्द्र शुक्ल ने अपनी आलोचना की पुष्टि के लिए तुलसी को आधार बनाया, हजारीप्रसादद्विवेदी ने कबीर को आधार बनाया। हिन्दी आलोचना में संभवत: मुक्तिबोध और नामवरसिंह ये दो आलोचक हैं जो आलोचना के वर्तमान में रहते हैं, वर्तमान के साहित्य के साथ संवाद करते हैं। मुक्तिबोध ने कामायनी और नयी कविता पर विचार किया तो नामवरसिंह ने सामयिक कविता और कथा साहित्य पर विचार किया। उल्लेखनीय है सभी किस्म के रेडीकल विचारों के लिए भविष्य की जरूरत होती है,वैसे ही जैसे सभी किस्म की संकीर्ण राजनीति के लिए अतीत की जरूरत होती है। रेडीकल विचारों को भविष्य के लिए सौंपने का अर्थ है आलोचना में आत्मालोचना का विकास करना।
हिन्दी आलोचना में आत्म-समीक्षा का अभी तक विकास ही नहीं हुआ है। उसमें आलोचकीय साहस और सहिष्णुता नहीं है। आलोचना में आत्म-समीक्षा ,साहस और सहिष्णुता के अभाव से ही अहं और अज्ञान पैदा होता है। मुक्तिबोध और नामवरसिंह इस संदर्भ में अपवाद हैं।
आलोचना में लोकतंत्र के विकास का अर्थ है आत्म-समीक्षा का विकास। हमारी आलोचना की सबसे बड़ी कमजोरी यह है कि वह अपने को संपूर्ण मानती है,संपूर्ण आलोचना के नाम पर आलोचना में अप्रासंगिक लेखन की बाढ़ आई हुई है। आज स्थिति इतनी बदतर है कि आप किसी भी साहित्यिक पत्रिका को उठाकर देख लीजिए आप प्रासंगिक आलोचना और अप्रासंगिक आलोचना में फ़र्क नहीं कर सकते।
आज अधिकांश पत्र-पत्रिकाओं में आलोचना के नाम पर जो कुछ छप रहा है इसे साहित्यालोचना कहना सही नहीं होगा, बल्कि यह तो मासकल्चर के नजरिए से लिखी जा रही साहित्य समीक्षा है इसमें आलोचना के लिए जगह कम है, आलोचनात्मक विवेक का अभाव है,यह मार्केटिंग की रणनीति के तहत लिखी जा रही आलोचना है।
आलोचना आज किताब की बाजार प्रमोशन स्कीम का हिस्सा हो गयी है। किताब के लिए बाजार तैयार करना बुरी बात नहीं है। किंतु इसी को एकमात्र आलोचना कहना सही नहीं है। आलोचना में जनतंत्र का आधार है लोकतंत्र की हमारी सही समझ। लोकतंत्र की सही समझ ही आलोचना में लोकतंत्र के विकास का रास्ता खोलती है।
जनतंत्र के लिए बुर्जुआ समाज अनिवार्य है और बुर्जुआ विचारधाराओं में से ही चुनने पर जोर रहता है, जनतंत्र के बुर्जुआ विकल्पों पर ही जोर रहता है, उसे देखकर यही लगता है कि इस तरह के सोचने वाले लोकतंत्र को संरचना के रूप में देख रहे हैं,वे लोकतंत्र के रूप या फॉर्म की बातें कर रहे हैं,उसकी अंतर्वस्तु की नहीं। लोकतंत्र के रूप के साथ लोकतंत्र की अंतर्वस्तु के बारे में सोचा जाना चाहिए।
आलोचना में लोकतंत्र के बारे में सोचते समय हमारा ज्यादा ध्यान लोकतंत्र पर रहा है आलोचना पर नहीं। जनवादी आलोचकों ने ऐसी आलोचना खूब लिखी है। कुछ आलोचक ऐसे भी हैं जिन्होंने आलोचना पर ज्यादा ध्यान दिया और लोकतंत्र को विचारयोग्य ही नहीं समझा जैसे नंददुलारे बाजपेयी,रामस्वरूप चतुर्वेदी, रमेशकुन्तलमेघ।
कुछ ऐसे भी आलोचक है जो लोकतंत्र को विचारधारा के रूप में देखते रहे हैं और आलोचना को इसका पर्याय बनाने में लगे रहे हैं इस पध्दति को शिवकुमार मिश्र और चन्द्रबलीसिंह की आलोचना पद्धति में देख सकते हैं। इस समूची प्रक्रिया में आलोचना और लोकतंत्र का रिश्ता संतुलित होने की बजाय असंतुलित बना है।
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