रविवार, 28 मार्च 2010

रुढ़िवादी ख्यातनामा आलोचकों के प्रतिवाद में


             हिन्दी आलोचना की सबसे बड़ी बिडम्बना यह है कि इसमें 'संतुलन' पर कम 'सिद्ध' करने पर ज्यादा जोर है। आलोचना 'सिद्ध' करने का औजार नहीं है,वकील का तर्क नहीं है।बल्कि सृजन है। आलोचना कैसी होगी ? उसकी प्रकृति कैसी होगी? इस सवाल का जबाव साहित्य की धारणा से जुड़ा है।
      हम अभी तक साहित्य  को परंपरागत साहित्य की धारणा के दायरे के बाहर नहीं ला पाए हैं। 'साहित्य' और 'जनप्रिय साहित्य' का अंतर आज भी प्रचलन में है। इसका क्लासिक उदाहरण है नागार्जुन और फिल्म गीतकार शैलेन्द को लेकर हमारा दोहरा रूख।
     सवाल किया जाना चाहिए क्या शैलेन्द्र के गीत हिन्दी साहित्य परंपरा का हिस्सा हैं ? यदि नहीं तो क्यों ? क्या किसी गीतकार की रचनाओं का फिल्मों से अथवा ऑडियो इण्डस्ट्री के द्वारा प्रसारण उसकी साहित्यिक-कलात्मक गुणवत्ता को खत्म कर देता है ? क्या इसी आधार पर भक्ति-आंदोलन के कवियों की रचनाओं ,रामचरितमानस जैसे महाकाव्य को साहित्य से बहिष्कृत किया जा सकता है ? क्या प्रेमचंद के गोदान उपन्यास को फिल्माने के कारण साहित्य से निकाला जा सकता है ? इससे भी बड़ा सवाल यह है कि क्या मीडियम के आधार पर कृति को देखें अथवा कृति के आधार पर उसका मूल्यांकन करें ? कृति महत्वपूर्ण है। अंतर्वस्तु महत्वपूर्ण है, विधा महत्वपूर्ण है। मीडियम या शैली या वर्गीकरण महत्वपूर्ण या निर्णायक नहीं हैं।

आज साहित्य और जनप्रिय साहित्य के भेद को खत्म करने की जरूरत है,इन दोनों में चल रही अन्तर्क्रियाओं को पहचानने की जरूरत है,इससे आलोचना और साहित्य दोनों ही समृध्द होंगे। यदि किसी गीतकार के फिल्मी गीतों का कैसेट संकलन आता है तो उसे कृति के रूप में लिया जाना चाहिए। यही स्थिति अन्य विधाओं की है। आज साहित्य से पापुलर साहित्य को अलग रखने का तर्क बेमानी है। इसी तरह पापुलर गद्य और साहित्यिक गद्य में अंतर नहीं किया जाना चाहिए।

उल्लेखनीय है आधुनिक गद्य की शुरूआत पापुलर गद्य लेखन से ही हुई थी। भारतेन्दु की हिन्दी नयी चाल में तब ही ढली जब बाजारू पत्रिका का जन्म हुआ। बाजारू पत्र-पत्रिका अथवा इलैकट्रोनिक मीडिया में जन्मे विधारूपों और प्रयोगों का वही महत्व है जो किसी साहित्यिक पत्रिका में प्रकाशित चीजों का है। उल्लेखनीय है 'जनप्रिय' और 'साहित्यिक' में आदान-प्रदान होता रहा है जिसकी हमने अनदेखी की जानी चाहिए।

         मजेदार बात यह है कि पापुलर साहित्य और पापुलर संस्कृति ने बाकायदा साहित्य-संस्कृति से ग्रहण किया है,पापुलर संस्कृति में साहित्य और संस्कृति को लेकर किसी भी किस्म के पूर्वाग्रह नहीं हैं। किंतु साहित्य के पापुलरसाहित्य और पापुलरकल्चर को लेकर पूर्वाग्रह बने हुए हैं। इन्हें तोड़ने की जरूरत है। यह कार्य तब ही संभव है जब शिक्षा के पाठयक्रमों में यथोचित परिवर्तन किए जाएं। विदेशी माक्र्सवादी विचारकों जैसे रेमण्ड विलियम्स,टेरी इगिलटन, रिचर्ड होगार्ट ,एस.हाल आदि ने इस दिशा में महत्वपूर्ण काम किया है,जिससे हम काफी कुछ सीख सकते हैं।

                    हमारी आलोचना का अधिकांश हिस्सा आज भी एकायामी है, हम मार्क्सवाद के आगे बढ़ ही नहीं पाए। अन्य आलोचना स्कूलों जैसे संरचनावाद, रूपवाद ,अस्तित्ववाद,उत्तार संरचनावाद आदि के तो हमारे यहां दर्शन दुर्लभ हैं, यहां तक कि हिन्दी में अनुवाद तक उपलब्ध नहीं हैं। यह बात दीगर है कि ये सारी धारणाएं हमारे यहां के सबसे बेहतरीन विश्वविद्यालय (जे.एन.यू.)में लंबे समय से पढ़ाई जाती रही हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि हमने माक्र्सवाद के बस्ते में आलोचना के वैविध्यमय संसार को बांधकर आलोचना को संकुचित किया और बाद में आलोचना ही खत्म कर दी। दूसरी ओर 'इण्टरडिसिपिलीनरी' एप्रोच का इस्तेमाल ही नहीं किया है। हमारे शिक्षा के पाठयक्रमों में इस तरह के नजरिए को अभी भी संदेह के नजरिए से देखा जा सकता है।

         आलोचना को हमने शिक्षक की दासी बना दिया। वह उसके यहां कैद है। आलोचना जब एकायामी होगी, दासी होगी वैसी अवस्था में आलोचना में लोकतंत्र की कल्पना करना भी मुश्किल है। अन्तविषयवर्ती आलोचना पध्दति में प्रवेश का अर्थ है आलोचना का कायाकल्प, आलोचना को फतवे,निर्णयात्मकता और केटेगराइजेशन के पुराने ढ़ांचे से बाहर निकालना। हमारी आलोचना में आलोचना के नाम पर बक-बक ज्यादा है आलोचना और लोकतंत्र कम है।

हिन्दी आलोचना में आज भी आलोचना ख्यातनामा आलोचकों के यहां बंधक है। इस तरह की आलोचना अपनी शक्ति और उपलब्धियों पर अपने हाथों अपनी पीठ ठोंकती रही है। 'ख्यातनामा' आलोचकों ने जिस कृति पर लिख या बोल दिया वह महान है,श्रेष्ठ है,जिस व्यक्ति की प्रशंसा या निंदा कर दी वह महान् है और घटिया है। जिसके बारे में कुछ भी नहीं बोला वह बोगस है,कूड़े के ढ़ेर पर फेंकने लायक है। आज कृति अपनी शक्ति के बल पर नहीं आलोचक की प्रशंसा के आधार पर स्वीकार और अस्वीकार हो रही है।

आलोचना में लोकतंत्र की कमी का गहरा संबंध अकादमिक स्तर पर चल रहे अनुसंधान कार्यों से है। विश्वविद्यालयों में चल रहे शोध कार्यों की स्थिति देखकर शर्म आती है। यह सवाल उठता है क्या हमारे साहित्य शिक्षक स्वयं नियमित शोध करते हैं या नहीं ? क्या हमारे पास शोध प्रविधि सिखाने वाली किताबें हैं ? जी नहीं, हमारे पास एक भी किताब ऐसी नहीं है जो शोध-प्रविधि के बारे में विद्यार्थी को ज्ञान कराए, जो किताबें स्वनाम-धन्य प्रोफेसरों के द्वारा लिखी गयी हैं उनमें हजारों भूलें हैं,गलत-सलत शोध प्रविधि है। आलोचना प्रशंसा, गुटबाजी, आदि के जरिए समृद्ध नहीं होती, हम खुश हैं कि हमारे पास नामवर सिंह हैं,अशोक बाजपेयी हैं।निश्चित रूप से यह खुशी की बात है।
          किंतु हमें ढ़ेर सारे नामवर चाहिए,एक नामवर नहीं चाहिए।आलोचना में लोकतंत्र चंद आलोचकों से नहीं बनता,लेखक संगठन बनाने से नहीं बनता। आलोचना की शर्त है कि सटीक और सही अवधारणा में लिखा जाए,हमें सटीक लेखन से परहेज है। लिखना हिन्दी में बुरी बात मानी जाती है। अभी भी वे आलोचक अपने को बड़ा और महान मानते हैं जिनके पास कम से कम किताबें हैं। सवाल किया जाना चाहिए आलोचना में कम से कम लेखन किस नजरिए से गुण कहलाने का हकदार है ? यह आलोचना में परजीवीपन है। परजीवी कम से कम में काम चलाता है,बड़बोलेपन में जिंदा रहता है। जब जरूरत पड़ती है तो अन्य से उधार लेकर काम चलाता है।

हमने कम लिखने का आदर्शीकरण कर लिया है। देखो नामवर कितने महान् हैं उन्होंने कितना कम लिखा है ! कायदे से हमें इस स्थिति पर खुश नहीं दुखी होना चाहिए, नामवरसिंह अपने न लिख पाने पर दुखी हैं, किंतु उनके भक्त खुश हैं। कहने का आशय यह कि हमें लेखन के प्रति,अनुसंधान के प्रति अपना रवैयया बुनियादी तौर पर बदलना होगा।

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