मंगलवार, 2 मार्च 2010

साहित्यिक अधिनायकवाद के प्रतिवाद में

हमारी आलोचना का मूलाधार अनालोचनात्मक है। इसे व्याख्यानों और कक्षा में शिक्षकों के व्याख्यानों के जरिए प्रचार-प्रसार मिला है। अनालोचनात्मक पद्धति का मूलाधार है भाषण। हिन्दी में भाषण ही आलोचना है और आलोचना ही भाषण है। हिन्दी आलोचक इस अर्थ में आदर्श है कि उसके लेखन और वाचन में अंतर नहीं है। वह जो लिखता है वही बोलता है। बाद में साक्षात्कार को ही आलोचना बना लिया। जबकि भाषणकला, साक्षात्कार और आलोचना में बुनियादी विधागत अंतर है। 
      
साहित्य के मूल्यांकन के आधार के तौर पर जब भाषण को विकसित किया गया तो हम यह भूल गए कि इससे साहित्य की अवधारणा और भूमिका भी बदल जाएगी। आलोचना की भूमिका भी बदल जाएगी। अब साहित्य सबके लिए खुला होगा। साहित्य अब व्याख्या के लिए खुला होगा।

लोकतंत्र में साहित्य का दायरा बदलता है,नये विधारूप दाखिल होते हैं। साहित्य अब आनंद और उपभोग का हिस्सा बन जाता है।  अब साहित्य स्वनिर्भर है। इसके कारण आलोचना में जिस तरह के 'तनाव' और 'एम्बीगुटी' होती है वह गायब है। अब लेखक की पूर्व पाठीय मंशाएं ज्यादा महत्वपूर्ण हैं। उनके आधार पर ही कृति की वाचिक व्याख्याएं हो रही है। इसके कारण साहित्य में निहित 'तनाव' और 'एम्बीगुटी' का लोप हो गया है।
               
                साहित्य के 'तनाव' और 'एम्बीगुटी' की व्याख्याएं ही थीं जिनके आधार पर साहित्य समृद्ध हुआ ,आलोचना समृद्ध हुई । अब साहित्य को 'मंशा के छद्म' के आधार पर विश्लेषित किया जा रहा है। हमने आलोचना के मानकों के आधार पर साहित्यिक कृतियों और कृतिकारों का मूल्यांकन करने की बजाय लेखक की मंशा के आधार पर मूल्यांकन पर ध्यान ज्यादा दिया है।
      आजादी के बाद साहित्य और दर्शन के बीच संवाद,संपर्क और विनिमय बंद हो गया है। अब साहित्य का राजनीतिक आंदोलनों से आदान प्रदान,संपर्क और संवाद ज्यादा होता है। राजनीतिक तात्कालिकता और साहित्यिक विमर्शों के बीच गहरा अन्तस्संबंध है। शीतयुद्ध,नेहरूयुग,अंग्रेजी हटाओ-हिन्दी लाओ,आपात्काल, लोकतंत्र ,स्त्री आंदोलन, दलित आंदोलन के साथ अन्तस्संबंधों को रेखांकित करते हुए आलोचना विकसित हुई है। इस क्रम में साहित्य की आलोचना कम और राजनीतिक संवृत्तिओं और आंदोलनों की व्याख्या ज्यादा हुई है। इसके कारण साहित्य की अवधारणा भी बदल गयी है।

मजेदार बात यह है उपरोक्त सभी विवाद साहित्येतर क्षेत्र के विवाद हैं और वहीं पर पैदा हुए हैं। इस क्रम में साहित्य और आंदोलन के अन्तस्संबंध का सरलीकृत फार्मूला बना लिया गया है।  तात्कालिक राजनीतिक कार्यभारों को साहित्य के कार्यभार बना दिया गया है। तात्कालिक राजनीतिक कार्यभारों के आधार पर ही साहित्य की व्याख्या और पुनर्व्याख्या हो रही है।  साहित्य में 'खोज' और 'मूल्यांकन' के काम की जगह 'प्रयोजनमूलक साहित्य' 'प्रयोजनमूलक हिन्दी' और 'प्रयोजनमूलक आलोचना' का पठन-पाठन और लेखन हो रहा है।
      अब साहित्य की शिक्षा का लक्ष्य है प्रतियोगिता परीक्षाओं में पास होने में मदद करना। फैलोशिप प्राप्त करने में मदद करना। साहित्य के अध्ययन -अध्यापन का लक्ष्य आलोचनात्मक विवेक अथवा आलोचनात्मक मूल्यांकन का नजरिया पैदा करना नहीं है। फलत: हमारे विद्यार्थी अच्छे नम्बरों से पास हो जाते हैं,स्कॉलरशिप पा जाते हैं, नौकरी पा जाते हैं किंतु साहित्यिक विचारों और अवधारणाओं से अनभिज्ञ होते हैं।
    
साहित्य की आलोचनात्मक जांच-पड़ताल तकरीबन बंद है। फलत: पाठ के प्रासंगिक अर्थ की व्याख्या का लोप हो गया है। अब विद्यार्थी को रेडीमेड उत्तर और व्याख्याओं को पढ़ाने पर ज्यादा जोर है। रेडीमेड उत्तर इस युग का साहित्यिक अधिनायकवाद है। इसने साहित्य के विकास और आलोचनात्मक प्रसार को बाधित किया है। इसने पाठ के अर्थ को सीमित किया है। पाठ के साथ जुड़े सामयिक राजनीतिक एटीट्यूट और अर्थभेदों के अध्ययन और मूल्यांकन को पढ़ने-पढ़ाने की पद्धति का लोप हो गया है। अब अच्छा शिक्षक वही है जो पाठ के स्थिर अर्थ को पढ़ा दे। इसने साहित्य की व्याख्या में आने वाले भेदों को खत्म कर दिया है।फलत: आलोचना में विवरणात्मक व्याख्याएं ज्यादा हुई हैं।
                        



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