शुक्रवार, 19 मार्च 2010

किसानों के पक्षधर कथाकार मार्कण्डेय नहीं रहे

कथाकार मार्कण्डेय





(आनंद प्रकाश और मार्कण्डेय)

आज सुबह मार्क्सवादी आलोचक अरुण माहेश्वरी का फोन आया और बताया कि भाई मार्कण्डेय नहीं रहे। सुनकर धक्का लगा और बेहद कष्ट हुआ ,विश्वास नहीं हो रहा था भाई मार्कण्डेय की मौत हो गयी है। अभी कुछ दिन पहले ही अरुण एवं सरला माहेश्वरी उन्हें अस्पताल जाकर देखकर आए थे और दो -तीन दिन पहले मार्कण्डेयजी की बेटी का भी फोन अरुण के पास आया था कि मार्कण्डेयजी ठीक हो रहे हैं और उन्हें एक-दो दिन में घर ले जाएंगे। लेकिन आज जब खबर मिली मार्कण्डेय जी का निधन हो गया तो बेहद कष्ट हुआ।
   हिन्दी की जनवादी साहित्य परंपरा के निर्माण में मार्कण्डेय जी की अग्रणी भूमिका रही है। मार्कण्डेयजी सिर्फ साहित्यकार ही नहीं थे बल्कि साहित्य और लेखकों के संगठनकर्त्ता भी थे। साहित्य की प्रगतिशील परंपरा में स्वतंत्र भारत में जिन लेखकों ने साहित्यकारों के संगठन निर्माण में अग्रणी भूमिका अदा की थी उनमें मार्कण्डेयजी का योगदान सबसे ज्यादा था। इसके अलावा किसानों-मजदूरों के संघर्षों के प्रति उनमें गहरी निष्ठा थी, हिन्दी में ऐसे अनेक लेखक हैं जो मीडिया पापुलिज्म के शिकार रहे हैं,लेकिन मार्कण्डेयजी ने कभी मीडिया पापुलिज्म के आगे अपने विवेक और कलम को  झुकने नहीं दिया।
     स्वतंत्र भारत की साहित्य की परिवर्तनकामी परंपरा के समर्थ लेखक के रुप में मार्कण्डेय को हमेशा याद किया जाएगा। मुझे व्यक्तिगत तौर पर उनसे कईबार मिलने और घंटों लंबी चर्चा करने का मौका मिला था। उनके व्यक्तित्व की सादगी, पारदर्शिता और विचारधारात्मक पैनापन मुझे हमेशा आकर्षित करता था। उनकी खूबी थी कि वे फिनोमिनाओं को ज्यादा बारीकी से पेश करते थे, फिनोमिना या संवृत्तियों को विश्लेषित करने में उन्हें मजा आता था। हिन्दी लेखकों में बढ़ते गैर साहित्यिक रुझानों पर वे खासतौर पर चिन्तित रहते थे।       
 ‘लेखक मंच’ के अनुरागजी ने लिखा है-        ‘‘प्रेमचंद के बाद हिंदी कथा साहित्य में ग्रामीण जीवन को पुनस्र्थापित करने वालों में मार्कण्डेय महत्वपूर्ण कथाकार थे। उन्होंने आम आदमी के जीवन में साहित्य में जगह दी। वह जनवादी लेखक संघ के संस्थापकों में से थे।
1965 में उन्होंने माया के साहित्य महाविशेषांक का संपादन किया था। कई महत्वपूर्ण कहानीकार इसके बाद सामने आए। 1969 में उन्होंने साहित्यिक पत्रिका कथा का संपादन शुरू किया। इसके अभी तक 14 अंक ही निकल पाए हैं। साहित्य और संस्कृति के क्षेत्र में पत्रिका को मील का पत्थर माना जाता है।
उन्होंने जीवनभर कोई नौकरी नहीं की। अग्निबीज, सेमल के फूल(उपन्यास), पान फूल, महुवे का पेड़, हंसा जाए अकेला, सहज और शुभ, भूदान, माही, बीच के लोग (कहानी संग्रह), सपने तुम्हारे थे (कविता संग्रह), कहानी की बात (आलोचनात्मक कृति), पत्थर और परछाइयां (एकांकी संग्रह) आदि उनकी महत्वपूर्ण कृतियां हैं। हलयोग (कहानी संग्रह) प्रकाशनाधीन है।
   उनकी कहानियों का अंग्रेजी, रुसी, चीनी, जापानी, जर्मनी आदि में अनुवाद हो चुका है। उनकी रचनाओं पर 20 से अधिक शोध हुए हैं।
80 वर्षीय मार्कण्डेय को दो साल पहले गले का कैंसर हो गया था। इलाज से वह ठीक हो गए थे। अब आहार नली के पिछले हिस्से में कैंसर हो गया था। वह 1 फरवरी को इलाज के लिए दिल्ली आ गए थे। राजीव गांधी कैंसर अस्पताल, रोहिणी में उनका इलाज चल रहा था।’’
  स्वर्गीय मार्कण्डेय जी ने अमृत राय पर एक संस्मरण लिखा था 'भाई अमृत रायः कुछ यादें', पेश हैं उसकी कुछ बानगी-
‘‘अमृत राय ने इलाहाबाद यूनिवर्सिटी के अमरनाथ झा छात्रावास में रहकर एमए किया। शायद आज कई लोगों को लगे कि यह कोई खास बात नहीं है, लेकिन उस समय की परिस्थियों को देखते हुए यह बात सचमुच रेखांकित करने के योग्य है। तब के इलाहाबाद विश्वविद्यालय और एएन झा छात्रावास का नाम देश के संभ्रांत समाज से जुड़ा हुआ था। लोग आईसीएस बनने का सपना लेकर उसमें भर्ती होते थे। अंग्रेजियत का तो वहां बोलबाला था। भाषा ही नहीं वरन् रहन-सहन के विशेष स्तर के कारण उस छात्रावास में बड़े-बड़े अधिकारियों के पुत्र-कलत्र ही स्थान पाते थे, लेकिन अमृत भाई उसमें घुस ही नहीं गये वरन् एक छोटे से अण्डरवियर के ऊपर घुटने तक का नीचा कुर्ता पहनकर हॉस्टल से बाहर सड़क पर चाय पीने भी पहुंचने लगे। बताते हैं कि इस बात को लेकर पहले सख्त विरोध हुआ लेकिन अध्ययन और विशेषतः अंग्रेजी भाषा का सवाल आते ही लोग उनके सामने बगलें झांकने लगते थे। कहते हैं अमृत जी ने 'कैपिटल' को उसी समय बगल में दबाया और कुछ दिनों बाद तो वे लेनिन की पुस्तकें साथ लेकर विभाग भी जाने लगे।’’










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