पाठ के जरिए पाठक और लेखक की मंशा के द्वंद्वात्मक संबंध की खोज की जानी चाहिए। सिर्फ लेखक की मंशा को खोजने से बचना चाहिए। हमें उन टेक्स्चुअल रणनीतियों की खोज करनी चाहिए जिनके तहत पाठक को अपनी मंशाओं को भी रामचरितमानस में खोजने का अवसर मिलता है। इस कार्य को यदि कर लेते हैं तो आदर्श लेखक और आदर्श पाठक दोनों को ही खोजने में सफल रहेंगे। हमें व्यक्ति के तौर पर सिर्फ लेखक की मंशा को नहीं खोजना चाहिए। ऐसा करना व्यर्थ की कवायद है। हमें पाठ का सम्मान करना चाहिए बेचारे लेखक का नहीं। किंतु यह भी ध्यान रहे कि पाठ से पूरी तरह लेखक को अलग करना संभव नहीं है। खासकर व्याख्या के संदर्भ में। संप्रेषण में वक्ता की मंशा का संदर्भ सहज ही आ जाता है। यह चीज प्रत्येक किस्म के संचार में होती है।
लेखक एक पाठक के लिए नहीं अनेक पाठकों के लिए लिखता है। पाठ की व्याख्या के संदर्भ में सबसे पुरानी बहस है कि लेखक क्या कहना चाहता है ? अथवा लेखक की मंशा से स्वतंत्र होकर पाठ क्या कहना चाहता है ? ये दोनों ही सवाल और दुविधाएं पाठ में निहित होती हैं और जेनुइन हैं। इन दोनों सवालों पर विचार करने के बाद यही सवाल उठता है कि पाठ में क्या मिला ? समस्या यह है कि पाठक की मंशा को परिभाषित करना सबसे जटिल काम है। वह ज्यादा अमूर्त होती है और पाठ में ही निहित होती है। यदि किसी को पाठक की मंशा पाठ में नजर आ जाती है तो गंभीरता से विचार करना चाहिए कि पाठ की मंशा क्या है ? असल में पाठक की मंशा का निर्माण पाठ के योग से होता है। पाठ में ऐसी रणनीतियां छिपी होती हैं जिनसे आदर्श पाठक का जन्म होता है। इको ने लिखा है पाठक के योग से सही पाठ पैदा नहीं होता। बल्कि पाठ ही है जो अनंत योग को लागू करता है। इम्पीरिकल पाठक तो सिर्फ अभिनेता मात्र है जो पाठ में निहित संयोगों को पैदा करता है कि पाठ को कैसा पाठक चाहिए।
इसी तरह पाठक अपने लिए आदर्श लेखक की तलाश करता है यह इम्पीरिकल लेखक नहीं है। आदर्श लेखक की खोज अंत में पाठ की मंशा के साथ घुलीमिली नजर आती है। व्याख्या को वैध बनाने के लिए पाठक अनेक आधारों का इस्तेमाल करता है। जिससे अनुकूल परिणाम हासिल किए जा सकें। पुराने किस्म का भाष्य यही करता है। किसी भी कृति के आंतरिक कार्यव्यापार को अपनाने का अर्थ है पाठ में निहित चिन्हशास्त्रीय रणनीतियों को अपनाना। कभी कभी चिन्हशास्त्रीय रणनीतियां स्थापित शैलियों के कन्वेंशन के जरिए उद्धाटित होती हैं। कभी पाठ को इस तरह लिखा जाता है जैसे पाठ बच्चा हो। आमतौर पर जनप्रिय कथाओं की संरचना ऐसी ही होती है।
मध्यकालीन पाठ परीकथा,मिथकीय कथा अथवा पुराने ऋषियों की कथा कहने की शैली से ही आरंभ होते हैं। कथा कहने की यह शैली असल में पाठ को आगे विकसित करने में मदद करती है। जबकि लेखक टिपीकल प्राचीन पध्दति का इस्तेमाल करता है और यह मानकर चलता है कि पाठक बच्चा है।
प्रत्येक पाठ अनेक चीजों के योग से बनता है। इसे ही साहित्य कहते हैं। कोई रचना साहित्य है या नहीं इसका फैसला उसकी कोहरेंस प्रस्तुति के आधार पर ही किया जा सकता है। किसी भी पाठ के अंश की वैधता तब ही स्वीकार की जाती है जब व्याख्या से उसे पुष्ट किया जा सके। उसी पाठ का अन्य हिस्सा उसे चुनौती दे ।
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रचनाकार और पाठक की आंतरिक स्वतंत्रता के सन्दर्भ में यह महत्वपूर्ण बात है ।
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