रविवार, 31 जनवरी 2010

मुक्ति की गारंटी है जनोन्मुखी विज्ञान



            
 अंधविश्वास से लड़ने के लिए विज्ञान के बुनियादी क्षेत्रों में अनुसंधान और विज्ञानसम्मत चेतना के निर्माण पर जोर दिया जाना चाहिए। कुछ विज्ञान संगठन हैं जो सचमुच में अंधविश्वास से लड़ना चाहते हैं किंतु इसके लिए ये लोग लोकप्रिय विज्ञान का सहारा लेते हैं। प्रसिध्द वैज्ञानिक जे.डी. बरनाल के शब्दों में 'लोकप्रिय विज्ञान वास्तविक विज्ञान से उतनी ही दूर की चीज है जितनी लोकप्रिय संगीत, शास्त्रीय संगीत से है।'

इस फर्क के बावजूद लोकप्रिय विज्ञान के जरिए टुकड़ों-टुकड़ों में विज्ञान के परिणामों को आम जनता तक पहुंचाने में मदद मिलती है। या जब इन्हें सनसनीखेज ढंग से पुनर्प्रस्तुत किया जाता है तो भी परिणाम आम लोग जान ही जाते हैं। लेकिन यह टुकड़ों-टुकड़ों में होता है और लोग विज्ञान की विधि और भावना से अपरिचित ही रह जाते हैं।

आज विज्ञान और लोकप्रिय विचारों के बीच आदान-प्रदान टूट चुका है। विज्ञान को लेकर वैसी सघन और प्रशिक्षित गुणग्राहकता कहीं नहीं मिलती जैसी क्रिकेट या फुटबाल मैचों को लेकर देखी जाती है। इसकी व्याख्या केवल वैज्ञानिक आनंद में वित्तीय हितों की कमी या इस विषय की अंतर्निहित कठिनाई के जरिए नहीं की जा सकती।

आम लोग महीनों क्रिकेट की बारीकियों को लेकर चर्चाएं करते रहते हैं यहां तक कि सट्टे में पैसा तक दांव पर लगाते हैं। यदि विज्ञान में लोगों की रुचि होती तो एक बड़ा दिलचस्प खेल दिखाई देता और वह यह कि आम लोग किसी समस्या पर प्रोफेसर '' के सिध्दांत पर प्रोफेसर '' के सिध्दांत की अपेक्षा दस और एक का दांव लगाते।

अंधविश्वास को हमारे जनमाध्यम सबसे पहले कवरेज देते हैं। खासकर हिंदी मीडिया की स्थिति तो बेहद खराब है। हिंदी में किसी भी दैनिक मीडिया में विज्ञान के स्थायी पेज या स्तंभ नहीं हैं। न विज्ञान संवाददाता हैं, न विज्ञान संपादक हैं, और न विज्ञान पर लिखने वाले वैज्ञानिक लेखक ही हैं। विज्ञान की यदा-कदा खबरें आती हैं तो लगता है चिप्पियां जोड़कर खबर बनाई गई है। अथवा सनसनीखेज ढंग से विज्ञान खबर प्रकाशित होती है। जनमाध्यमों का विज्ञान के प्रति इस तरह का उपेक्षा भाव जनमाध्यमों की सामाजिक भूमिका पर सवालिया निशान लगाता है।

आमतौर पर यह देखा जाता है वैज्ञानिक खबरों को हिंदी का कोई अखबार छापता ही नहीं या छापता है तो छपी हुई चीजें आती हैं। वे पूरी तरह टुकड़ों-टुकड़ों में होती हैं। लोकप्रिय अखबार किसी खोज के बारे में सिर्फ इसलिए छापते हैं क्योंकि
वह चौंकाने वाली लगती है और हमारे स्वीकृत दृष्टिकोण में कुछ उलटफेर करती है। अधिक गंभीर अखबार भी यथार्थत: इससे बेहतर कुछ नहीं करते।

 जब वे विज्ञान संबंधी खबर बनाते हैं तो किसी वैज्ञानिक से एक पैराग्राफ उधार मांग लेते हैं और वह विशेषज्ञ न सिर्फ यह मानकर चलता है कि बाकी लोग भी उसके जितने ही जानकार हैं बल्कि जानकार और गैर-जानकार सारे ही लोग इस नई पहेली का कोई मतलब नहीं निकाल पाते जो विज्ञान नाम की समूची पहेली में आ चिपकी है। ऐसी खबरों में कोई बौध्दिक रुचि लेने के बजाय उन्हें एक सरसरी उत्सुकता के साथ ही, पढ़ा जा सकता है। हमारे लिए इन टुकड़ों में से छांटना, छानना और जोड़ना तब तक और भी कठिन होता है जब तक हम यह न देख सकें कि विज्ञान की विकासमान सीमाओं में इस तरह की खबरें क्या जोड़ती हैं।

अधिकतर लोकप्रिय विज्ञान पत्रिकाएं बेहतर होती हैं किंतु इनमें से अधिकांश हिस्सा आश्चर्यजनक कथाओं और व्यावहारिक गुरों से भरा होता है। इनमें यदाकदा ही गंभीर और सटीक लेख प्रकाशित होते हैं। ऐसा एक भी प्रकाशन नहीं है जिसकी अकेली भूमिका समकालीन आर्थिक और राजनीतिक विकास के संदर्भ में विज्ञान की प्रगति को सहज ग्राह्य रूप में पेश करने की हो। लोकप्रिय विज्ञान पर लिखी पुस्तकों की अवस्था इससे भी खराब है। अंधविश्वास के खिलाफ लड़ने के लिए हमें इस स्थिति को बदलना होगा।
हमें विज्ञान और लोकप्रिय विचारों के बीच आदान-प्रदान पर जोर देना होगा। आज विज्ञान और वैज्ञानिक अलगाव की स्थिति में हैं। अलगाव का आलम यह है कि वैज्ञानिक दूसरी दुनिया का हो गया है।

वैज्ञानिक का सामाजिक अलगाव वस्तुत: विज्ञान के सामाजिक अलगाव का द्योतक है। अपने विषय से इतर वह साधारण व्यक्ति लग सकता है, गोल्फ खेल सकता है, अच्छे किस्से सुना सकता है और एक समर्पित पति और पिता भी हो सकता है, लेकिन उसका विषय उसकी अपनी 'दुकान' है, जो उसे समझने वाले चंद लोगों को छोड़कर उसे पूरी तरह आत्मकेंद्रित बना देती है। साहित्यिक संस्कृति के लोगों में विज्ञान के बारे में कुछ भी न जानने का एक आकर्षण होता है, स्वयं वैज्ञानिक भी इस आकर्षण से बच नहीं पाते। उनके बारे में भी यह बात अन्य विज्ञानों पर लागू होती है।

वैज्ञानिक विषयों पर अच्छी सामान्य बातचीत दुर्लभतम अवसरों में से एक होती है और यदि किसी समूह में वैज्ञानिकों की बहुतायत हो तो भी यह बात लागू
होती है।

आज स्थिति यह है कि संस्कृति और विज्ञान का अलगाव बढ़ गया है।
इस अलगाव की शुरुआत विज्ञान की शिक्षा शुरू होने के बाद हुई। यह एक भारी
विरोधाभास है। इसके बाद से ही विज्ञान का शौकिया चरित्रा खत्म हुआ और व्यापक जनता की रुचि भी इसमें से जाती रही। अब खुद से विज्ञान के बारे में सोचने की जरूरत किसी को नहीं है, विज्ञान के क्षेत्रा में अब ऐसे ही लोग मिलते हैं जो बस अपने काम से काम रखते हैं।

अंधविश्वास सिर्फ जनता तक सीमित नहीं हैं बल्कि प्रशासन और राजनीति के क्षेत्रा में भी इसका गहरा प्रभाव देखा जा सकता है। इसी तरह विज्ञान के प्रति अज्ञान सिर्फ जनता तक सीमित नहीं है बल्कि प्रशासन और राजनीति तक इसका क्षेत्रा फैला हुआ है। यह अचानक नहीं है कि लोकचेतना, राजनीति और प्रशासन में विज्ञान इतना तिरस्कृत है।

विज्ञान के प्रति हमारा मौजूदा रवैया हमारी मौजूदा सामाजिक व्यवस्था का अनिवार्य और मौलिक अंग है। समाज की मौजूदा जरूरतें अपनी संतुष्टि के लिए विज्ञान को जाग्रत रखना चाहती हैं, लिहाजा ये जरूरतें कुछ भी हों, कुछ विज्ञान इनके लिए जरूरी है। लेकिन इन जरूरतों की पूर्ति के लिए आया विज्ञान नई जरूरतें पैदा करता है और पुरानी जरूरतों की आलोचना करता है। ऐसा करते हुए समाज में सुधार करने में उससे भी कहीं ज्यादा और भिन्न भूमिका अदा करने लगता है। यही कारण है कि शासक वर्ग यह कोशिश करता है कि विज्ञान और वैज्ञानिक दोनों को सामाजिक अलगाव की अवस्था में रखा जाए और विज्ञान को एक उपयोगी नौकर की तरह इस्तेमाल किया जाए।

विज्ञान का यदि सामाजिक अलगाव खत्म हो जाएगा तो वह सामाजिक परिवर्तन का अस्त्र बन जाएगा, मालिक बन जाएगा। यही वजह है कि वैज्ञानिकों को अपने-अपने पेशों में मगन रहने दिया जाता है। समाज में जिन लोगों का वर्चस्व है वे नहीं चाहते कि विज्ञान आम लोगों तक पहुंचे और आम जनता विज्ञानसम्मत चेतना से संपन्न बने। विज्ञानसम्मत चेतना के माध्यम से ही आम लोगों में आलोचनात्मक ढंग से सोचने और देखने का नजरिया विकसित होता है। जो नजरिया सिर्फ आलोचनात्मक हो और विज्ञानसम्मत न हो तो उसमें अंधविश्वासों को अपदस्थ करने की क्षमता नहीं होती।

विज्ञान को जनप्रिय बनाने के काम में सबसे बड़ी बाधा है धन की। आज अंध-
विश्वास के कार्यों के लिए जिस तरह बेशुमार धन उपलब्ध है उसकी तुलना में विज्ञान के अनुसंधान कार्यों के लिए धन उपलब्ध नहीं है। राज्य और निजी क्षेत्रा दोनों ही की तरफ से विज्ञान के बुनियादी अनुसंधान के लिए सकल घरेलू उत्पाद का एक फीसदी हिस्सा भी खर्च नहीं होता। जो कुछ खर्च होता है उस पर बाजार की शक्तियों की नजर लगी हुई है।

इसके अलावा फासीवादी ताकतें विज्ञान का अपने हितों और राजनीतिक विस्तार के लिए इस्तेमाल करना चाहती हैं। वे इसका युध्द सामग्री के निर्माण के लिए इस्तेमाल करने के पक्ष में सक्रिय हैं। वहीं दूसरी ओर आम जनता में पौराणिक मिथों, कथाओं और रहस्यवादी अतार्किकता का जमकर प्रचार कर रही हैं। यहां तक कि गणेश दूध पी रहे हैं जैसे चमत्कारों का प्रचार करते रहे हैं। बहुत सारे संत-महंत अपने जादुई चमत्कारों के नाम पर जादूगरी के करतबों और विज्ञान के नुस्खों का प्रयोग कर रहे हैं और आम जनता में अंधविश्वास फैला रहे हैं।

फासीवादी ताकतें पोंगापंथी बातों का दृढ़ सत्यों के साथ घालमेल कर रही हैं। आज यह प्रचार किया जा रहा है कि हिंदू जन्मना श्रेष्ठ होते हैं, उनमें सिर्फ अनुशासन की कमी है यदि वे अनुशासित हो जाएं, कद काठी मजबूत कर लें और संघर्ष के लिए तैयार हो जाएं तो वे अपनी नियति बदल सकते हैं, भारत पर राज कर सकते हैं और सारी दुनिया फिर उनका लोहा मानने के लिए मजबूर होगी। इस तरह के विचारों का विज्ञानसम्मत ज्ञान से कोई लेना-देना नहीं है। बल्कि इस तरह की बातें अंधविश्वास का हिस्सा हैं।
फासीवादी दृष्टिकोण भारतीय परंपरा में हिंदुओं के अलावा किसी अन्य समुदाय के योगदान को स्वीकार ही नहीं करता और बार-बार यह प्रचार किया जा रहा है कि भारतीय परंपरा में मुसलमानों की विध्वंसक भूमिका रही है। वे लुटेरे और हमलावर रहे हैं। इस तरह के तर्क भारतीय संगीत, दर्शन, स्थापत्य, विज्ञान, समाजविज्ञान, राजनीति, ललित कला आदि के क्षेत्रों में मुसलमानों के योगदान को एकसिरे से खारिज करते हैं और परंपरा के बारे में अंधविश्वास का फासीवादी प्रपंच निर्मित करते हैं।

ये लोग विज्ञान के फौजी इस्तेमाल के पक्ष में हैं किंतु सामाजिक जीवन में विज्ञानसम्मत चेतना और वैज्ञानिक दृष्टिकोण के विकास के सख्त खिलाफ हैं। सामाजिक जीवन में पोंगापंथ, दंतकथाएं, विज्ञान विरोधी बातें और अंधविश्वास इन्हें पसंद है। आज ये ही ताकतें अंधविश्वास का सबसे ज्यादा प्रचार कर रही हैं। इससे इन्हें अपना सामाजिक-राजनीतिक आधार बढ़ाने में मदद मिली है। इस सबको देखते हुए और भी जरूरी है कि अंधविश्वास के खिलाफ संघर्ष को ज्यादा व्यापक पैमाने पर चलाया जाए।






शनिवार, 30 जनवरी 2010

संस्कृति उद्योग की धुरी हैं अंधविश्वास - 3-




नकल की प्रवृत्ति को पूंजीवाद का प्रधान गुण माना जाता है। इस अर्थ में पूंजीवाद अपने विकास के साथ-साथ सामंती और पूर्व सामंती कला रूपों और मूल्यबोध को बरकरार रखता है।

कलाओं में अंधानुकरण आधुनिक काल में नकल में रूपांतरित कर लेता है। इससे जहां कभी न खत्म होने वाले मनोरंजन की सृष्टि करने में मदद मिलती है वहीं दूसरी ओर अंधानुकरण के एटीटयूट्स, रवैए और संस्कार का विकास होता है। कलाओं से यथार्थ गायब हो जाता है। उसकी जगह काल्पनिक यथार्थ या आभासी यथार्थ ले लेता है।

इसी तरह अंधविश्वास या नकल की संस्कृति का परजीवीपन और पेटूपन की संस्कृति से गहरा संबंध है। इसका स्वतंत्राता के विचार से विरोध है, यह उन तमाम विचारों को अस्वीकार करती है जो नकल या अंधानुकरण के विरोधी हैं। 

पूंजीवाद अपनी सामान्य प्रकृति के अनुसार अंधविश्वासों को भी वस्तु के रूप में बदल देता है, उन्हें संस्थागत रूप दे देता है। अंधविश्वासों को कामुकता एवं रोमांस के साथ प्रस्तुत करता है और यह कार्य फिल्म, टी.वी. और वीडियो फिल्मों के संगठित औद्योगिक माल के उत्पादन के रूप में करता है। 

कामुकता, पोर्नोग्राफी, अतिलयात्मक गीत और संगीत तथा नकल के आधार पर निर्मित कलाएं जितनी ज्यादा बनेंगी उतना ही ज्यादा अंधविश्वास भी बढ़ेगा। उतनी ही ज्यादा सामाजिक असुरक्षा, भेदभाव और तनाव की सृष्टि होगी। इसका प्रधान कारण यह है कि आज अंधविश्वास को मासकल्चर ने अपना सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा बना लिया है। 

अंधविश्वास की रणनीति और धार्मिक संप्रेषण की शैलियों को अपनाकर विज्ञापन, फिल्म और टी.वी. उद्योग तेजी से अपना विकास कर रहा है। पहले अंधविश्वास के माध्यम से राज्य अपने लिए जहां एक ओर धन जुटाता था वहीं दूसरी ओर जनता के दिलो-दिमाग पर शासन करता था। 
आज भी इस स्थिति में बुनियादी फर्क नहीं आया है। सिर्फ तरीका बदला है और इस कार्य में परंपरागत अंधविश्वास प्रचारकों के अलावा जो नया तत्व आकर जुड़ा वह है पूंजीपति वर्ग, बाजार और संस्कृति उद्योग। 

अब अंधानुकरण की प्रवृत्ति का बाजार की शक्तियां खुलकर अपने मुनाफों के विस्तार के लिए इस्तेमाल कर रही हैं। अंधानुकरण के लिए जरूरी है कि स्टीरियोटाइप प्रस्तुतियों पर जोर दिया जाए। इनमें खर्च कम और मुनाफा ज्यादा होता है और प्रस्तुतियां जल्दी ही समझ में आ जाती हैं। इस तरह की प्रस्तुतियां यथार्थ के निषेध और स्वतंत्रा सृजन या मौलिक सृजन के निषेध को व्यक्त करती हैं। 

वे ऐसे उन्माद, आनंद और मनोरंजन की सृष्टि करती हैं जो प्रभेदों का सृजन करता है। ध्यान रहे, प्रभेद वहीं पैदा होते हैं जहां भय हो, अंधविश्वास हो या जहां एक-दूसरे को धोखा देकर हराने का प्रयत्न किया जाता है। वहां परस्पर व्यवहार में सहज भाव नहीं होता।

अंधविश्वास मूलत: ऐसी स्वाधीनता की हिमायत करते हैं जो मनुष्य को पीड़ित करती है। यह संबंधहीन स्वाधीनता है। यह बुनियादी तौर पर नकारात्मक स्वाधीनता है। अंधविश्वास तरह-तरह के धार्मिक उपकरणों को जमा करने और धार्मिक उपकरणों के माध्यम से अंधविश्वासों से राहत पाने का रास्ता सुझाते हैं। रवींद्रनाथ टैगोर के शब्दों में, 'मानव जीवन में जहां अभाव है वहीं उपकरण जमा होते हैं। ... इस अभाव और उपकरण के पक्ष में ईर्ष्या है, द्वेष है, वहां दीवार है, पहरेदार है, वहां व्यक्ति अपना प्रभाव बढ़ाना चाहता है और दूसरों पर आघात करना चाहता है।'

अंधविश्वास, पुनर्जन्म और कर्मफल के सिध्दांत से मुक्ति पाने के लिए जरूरी है कि तर्क और विमर्श के पुराने पैराडाइम को बदलें। पुराने पैराडाइम से जुड़े होने के कारण हम प्रभावी ढंग से अंधविश्वास का विरोध नहीं कर पा रहे हैं। तर्क के पैराडाइम को बदलते ही हम विकल्प की दिशा में बढ़ जाएंगे। पैराडाइम को बदलते ही विचारों में मूलगामी परिवर्तन आने लगेगा। 

आम तौर पर हमारे बहुत से बुध्दिजीवी पुराने पैराडाइम को बनाए रखकर तर्कों में परिवर्तन कर लेते हैं। ध्यान रहे, अंधविश्वास को तर्क और विवेक से अपदस्थ नहीं किया जा सकता। जब तक वैज्ञानिक दृष्टिकोण के आधार पर नया पैराडाइम निर्मित नहीं किया जाता तब तक अंधविश्वास को अपदस्थ करना मुश्किल है। 

अंधविश्वास का जबाव तर्क नहीं विज्ञान है। जो लोक तर्क में विश्वास करते हैं वे पैराडाइम बदलते ही असली शक्ल में सामने आ जाते हैं। ध्यान रहे, जब पैराडाइम बदलते हैं तो उसके साथ ही, सारी दुनिया भी बदल जाती है। कहने का तात्पर्य यह है कि पैराडाइम बदलते ही हमारा विश्व दृष्टिकोण बदल जाता है, नए का जन्म होता है, वैज्ञानिक चेतना के विकास की संभावनाएं प्रबल हो जाती हैं। यही वह बिंदु है जिस पर गंभीरता से सोचने की जरूरत है। 

अंधविश्वास का जबाव तर्क से देंगे तो अंतत: पराजय हाथ लगेगी यदि पैराडाइम बदलकर विज्ञानसम्मत चेतना से इसका जबाव देंगे तो अंधविश्वास को अपदस्थ कर पाएंगे। हमारे रैनेसां के चिंतकों ने अंधविश्वास का प्रत्युत्तार तर्क से देने की चेष्टा की और इसका अंतत: परिणाम यह निकला कि हम आज अंधविश्वास से संघर्ष में बहुत पीछे चले गए हैं। 

तर्क को आज अंधविश्वास ने आत्मसात कर लिया है। अंधविश्वास का तर्क से बैर नहीं है उसकी लड़ाई तो विज्ञानसम्मत चेतना के साथ है।

अंधविश्वास के कारण बौध्दिक अधकचरापन पैदा होता है। इन दिनों विज्ञान और विज्ञानसम्मत चेतना के बजाय मिथकीय चेतना पर जोर दिया जा रहा है। आज विज्ञान को सत्य की खोज के काम से हटाकर व्यावहारिक उपयोग, उद्योग और युध्द के साजो-सामान के निर्माण में लगा दिया गया है। यहां तक कि धर्म और विज्ञान में सहसंबंध स्थापित करने की कोशिशें चल रही हैं। अब विज्ञान को पूंजीवाद ने महज एक चिंतन का रूप या शुध्द विज्ञान बना दिया है या उपयोगी रूप तक सीमित कर दिया है। 

एक जमाना था विज्ञान पर विश्वास था। किंतु एक अर्से के बाद विज्ञान के प्रति संशय का भाव पैदा हुआ। शुरू में विज्ञान के प्रति प्रशंसाभाव था। बाद में मोहभंग हुआ और विज्ञान के प्रति संशय भाव पैदा हुआ। आज पूंजीवादी वैज्ञानिक निराश और हताश हैं कि क्या करें? वे पीछे मुड़ नहीं सकते। आगे किस तरह बढ़ना है? बढ़ गए तो कहां पहुचेंगे? आज विज्ञान के पूंजीवादी पक्षधर परेशान हैं कि विज्ञान के इतने विराट जुलूस को कहां ले जाएं? इसके कारण विज्ञान और विज्ञानसम्मत चेतना के प्रति अविश्वास और गहरा हुआ है। 

आम लोगों से लेकर बुध्दिजीवियों तक संशयवाद बढ़ा है। इसके कारण पुन: एकसिरे से अंधविश्वास और आध्यात्मिकता की बाढ़ आ गई है। कुछ लोग मानव स्वभाव की उन्नतिशीलता को लेकर कुछ भी होता न देखकर हताशा में डूबे जा रहे हैं और विज्ञान को तिलांजलि दे रहे हैं।

 कुछ ऐसे भी लोग हैं जो पहले से ही यह मानकर चल रहे हैं कि विज्ञान की सामाजिक परिणतियों पर कोई भी विचार-विमर्श हानिकर होने को बाध्य है।कुछ ऐसे लोग भी हैं जो विज्ञान के व्यावहारिक उपयोग के अलावा और किसी भूमिका पर सोचने के लिए तैयार नहीं हैं। 

कुछ लोगों के लिए विज्ञान का विनाश के अलावा और किसी काम में उपयोग संभव नहीं है। कुछ के लिए यह संपत्ति और मुनाफों के अंबार खड़ा कर देने का साधन मात्रा है। यह सही है कि पूंजीवाद समाजों में विज्ञान का सही उद्देश्यों के लिए इस्तेमाल नहीं किया जा रहा। यह भी सच है कि वैज्ञानिक वेतनभोगी कर्मचारी होकर रह गए हैं। 

आज वैज्ञानिक या तो किसी विश्वविद्यालय में काम करता है या किसी उद्योग या संस्था में काम करता है। निजी साधनों से वैज्ञानिक अनुसंधान करने वाले वैज्ञानिक अब दुर्लभ हो गए हैं। जाहिरा तौर पर वैज्ञानिक जहां काम करता है वहां के हितों की उसे सबसे पहले पूर्ति करनी होगी। यही बिंदु है जहां पर हमें विज्ञान की सामाजिक भूमिका पर गंभीरता से विचार करना चाहिए। यदि विज्ञान बंदी है और वैज्ञानिक खरीदा जा चुका है तब अंधविश्वास के खिलाफ विज्ञान और विज्ञानसम्मत चेतना की भूमिका शून्य के बराबर होगी।

शुक्रवार, 29 जनवरी 2010

संस्कृति उद्योग की धुरी हैं अंधविश्वास - 2-

आज हम रोम की महानता के गुण गाते हैं किंतु यह भूल जाते हैं कि रोम की महानता का आधार अंधविश्वास था। रोम की महानता के बारे में पोलिबियस ने लिखा कि मैं साहसपूर्वक यह बात कहूंगा कि संसार के शेष लोग जिस चीज का उपहास करते हैं, वह रोम की महानता का आधार है और उस चीज का नाम अंधविश्वास है। इस तत्व का उसके निजी और सार्वजनिक जीवन के सभी अंगों में समावेश कराया गया है और इसने ऐसी खूबी से उनकी कल्पनाशक्ति को आक्रांत कर लिया है कि उस खूबी को बेहतर नहीं बनाया जा सकता। संभवत: बहुत से लोग इसकी विशेषता समझ नहीं पाएंगे, लेकिन मेरा मत है कि ऐसा लोगों को प्रभावित करने के लिए किया गया है। यदि किसी ऐसे राज्य की संभावना होती, जिसके सभी नागरिक तत्वज्ञ होते तो इस तरह की चीज से हम बचे रह सकते थे। लेकिन सभी राज्यों में जनता अस्थिर है, निरंकुश भावनाओं, अकारण क्रोध और हिंसक आवेगों से ग्रस्त है। इसलिए केवल यही किया जा सकता है कि जनता को अदृश्य के भय से, और इसी किस्म के पाखंडों से काबू में रखा जाए। यह अकारण नहीं, बल्कि सुविचारित चाल थी कि पुराने जमाने के लोगों ने जनता के दिमाग में देवताओं और मृत्यु के बाद के जीवन की बातें बैठाईं। हमारी मूर्खता और विवेकहीनता यह है कि हम इस प्रकार की भ्रांतियों को दूर करना चाहते हैं।
इसके अलावा जिस विधा का निर्माण किया गया वह है चमत्कारवर्णन और दंतकथा। चमत्कारवर्णन और दंतकथाओं ने अंधविश्वासों को आम जनता के जीवन में उतारने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। किसी भी दर्शनवेत्ता और धर्मशास्त्री के उपदेशों के द्वारा पुरुषों और औरतों के समूहों को श्रध्दा, भक्ति और विश्वास की ओर नहीं मोड़ा जा सकता था। इनको प्रभावित करने के लिए अंधविश्वास का लाभ उठाना पड़ता था। यह कार्य चमत्कारवर्णन और दंतकथाओं के बिना संभव नहीं था। कालांतर में इसने नागरिक जीवन की प्राचीन व्यवस्था और साथ ही, वास्तविक सृष्टि संबंधी स्थापनाओं में मिथकशास्त्र के रूप में सम्मानजनक स्थान प्राप्त कर लिया।
कौटिल्य का अंधविश्वास में विश्वास नहीं था किंतु उन्होंने राज्य के कौशल के तौर पर अर्थशास्त्र में अंधविश्वास की चर्चा की है। उनका न तो राजा के दैवी अधिकार और उसकी सर्वज्ञता की सच्चाई में विश्वास था और न वे यह चाहते थे कि स्वयं शासक इस तरह की वाहियात बात को सच मानें। वे सुझाव देते हैं कि राज्य को अपनी आंतरिक और बाह्य स्थितियों को सुदृढ़ करने के लिए सामान्य लोगों की अंधमान्यताओं का लाभ उठाना चाहिए।

कौटिल्य अर्थशास्त्र में अनेक ऐसे सुझाव देते हैं जो अंधविश्वासों पर आधारित हैं। संयोग से जिन उपायों को सुझाया गया है वे थोड़े फेरबदल के साथ अब भी लागू किए जाते हैं। कौटिल्य ने कुछ ऐसे साधनों को अपनाने की सलाह दी जो बहुत ही भद्दे थे और जिनका दोहरा उद्देश्य था। वे न केवल जनता के बीच अंधविश्वासमूलक भय उत्पन्न करते थे, बल्कि अंधविश्वास के विरोध में यथार्थ और ठोस कदम उठाने वाले प्रचारकों का शारीरिक रूप से सफाया करने की ओर भी लक्षित थे।

अंधविश्वास के साथ-साथ पुनर्जन्म और कर्मफल की प्राप्ति की धारणा का भी व्यापक पैमाने पर इस्तेमाल किया गया। इसका साहित्य पर भी गहरा प्रभाव पड़ा। हजारीप्रसाद द्विवेदी के अनुसार साहित्य में काव्य-रूढ़ियों का चलन शुरू हुआ।

यह मान लिया गया कि जो कुछ हो रहा है उसका उचित कारण है ज़िस कार्य में असामंजस्य है, वह अवश्य भविष्य में करने वाले को दंड देने का साधन बनेगा। इस विचार ने भारतीय साहित्य में सामंजस्यवादी दृष्टिकोण की प्रतिष्ठा की है। समाज की विषमताओं और अनमेल परिस्थितियों को कभी विद्रोही दृष्टि से नहीं देखा गया।

यह मान लिया गया नाटक दुखांत नहीं होना चाहिए। असंतोष और विद्रोह के अभाव में कवि की बुध्दि अधिकाधिक सूक्तियों और चमत्कारों में उलझती गई। साहित्य में सिर्फ रस और रस में भी सिर्फ श्रृंगार रस की रचनाओं का बाहुल्य इस मार्ग के अनुसरण का स्वाभाविक परिणाम था।
   उल्लेखनीय है रस की अवधारणा की उत्पत्ति का समय तकरीबन वही है जब अंधविश्वास, पुनर्जन्म और कर्मफल की प्राप्ति के सिध्दांत का जन्म हुआ। रसों में हमारे प्राचीन लेखकों ने सिर्फ श्रृंगार रस पर ही मुख्यत: जोर दिया और अन्य रसों की उपेक्षा की।

तात्पर्य यह है कि अंधविश्वास के साथ आनंदमूलक मनोरंजन, कामुकता, स्त्री के सौंदर्यमूलक हाव-भावों का गहरा संबंध है। यह संबंध मध्यकाल से विकसित हुआ और आधुनिक काल तक चला आया है। अंधविश्वास के समूचे कार्य-व्यापार को यदि इस परिप्रेक्ष्य में देखें तो पाएंगे कि समाज में कलाओं में नकल की प्रवृत्ति वस्तुत: अंधविश्वास के प्रति सहिष्णु भाव पैदा करती है।

संस्कृति उद्योग की धुरी हैं अंधविश्वास - 1-







अंधविश्वास सामाजिक कैंसर है। अंधविश्वास ने सत्ता और संपत्ति के हितों को सामाजिक स्वीकृति दिलाने में अग्रणी भूमिका अदा की है। आधुनिक विमर्श का माहौल बनाने के लिए अंधविश्वासों के खिलाफ जागरूकता बेहद जरूरी है। आमतौर पर साधारण जनता के जीवन में अंधविश्वास घुले-मिले होते हैं।


अंधविश्वासों को संस्कार और एटीट्यूट्स का रूप देने में सत्ता और सत्ताधारी वर्गों को सैकड़ों वर्ष लगे हैं। अंधविश्वासों की शुरुआत कब से हुई इसका आरंभ वर्ष तय करना मुश्किल है। फिर भी ऐतिहासिक साक्ष्य बताते हैं कि सामाजिक विकास के क्रम में जब राजसत्ता का निर्माण कार्य शुरू हुआ था उस समय साधारण लोग किसी से डरते नहीं थे। किसी भी किस्म का अनुशासन मानने के लिए तैयार नहीं थे, राजा की सत्ता को स्वीकार नहीं करते थे। सत्ता के दंड का भय नहीं था। यही वह ऐतिहासिक संदर्भ है जब अंधविश्वासों की सृष्टि की गई। आरंभिक दौर में अंधविश्वासों को संस्कार और जीवन मूल्य से स्वतंत्रा रूप में रखकर देखा जाता था। कालांतर में अंधविश्वासों ने सामाजिक जीवन में अपनी जड़ें इस कदर मजबूत कर लीं कि अंधविश्वासों को हम सच मानने लगे।


अंधविश्वास का दायरा बहुत बड़ा है। इसके दायरे में सामाजिक मान्यताएं, सामाजिक आचार-व्यवहार से लेकर कला, ललित कला, साहित्य, राजनीति, व्यापार तक आता है। इसके कारण सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रिया बाधित हुई है।
  

भारत में विगत दो हजार वर्षों में किसी भी किस्म की सामाजिक क्रांति नहीं हुई। हम लोगों ने कभी भी इस सवाल पर सोचा नहीं कि हमारे समाज में विगत दो हजार वर्षों में सामाजिक क्रांति क्यों नहीं हुई? तमाम किस्म की कुर्बानियों के बावजूद आधुनिक भारत में कोई सामाजिक क्रांति क्यों नहीं हुई? यदि गंभीरता से भारतीय समाज पर नजर डालें तो पाएंगे कि भारत में सामाजिक क्रांति न होने के जिन कारणों की ओर आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने ध्यान खींचा था उनकी तरह हमारे समाज ने पूरी तरह ध्यान नहीं दिया।

हजारीप्रसाद द्विवेदी का मानना था कि भारत में सामाजिक क्रांति न होने के तीन प्रमुख कारण हैं। पहला, अंधविश्वास, दूसरा, पुनर्जन्म की धारणा और तीसरा कर्मफल का सिध्दांत। हमारी समूची चेतना इन तीन सिद्धांतों से परिचालित रही है। अंधविश्वास के कारण ही रूढ़ियों ने जन्म लिया। साहित्य एवं कलारूपों में रूढ़ियां और सामाजिक जीवन में रूढ़ियां अंधविश्वास की ही देन हैं।

आधुनिककाल आने के बाद साहित्य से रूढ़ियों का खात्मा हुआ बल्कि सामाजिक जीवन में रूढ़ियां बनी रहीं , अंधविश्वासों के खिलाफ सामाजिक संघर्ष लड़ा नहीं गया। वहीं दूसरी ओर, पूंजीवाद ने बड़े कौशल के साथ अंधविश्वास को अपनी मासकल्चर, विज्ञापन रणनीति और मार्केटिंग का अंग बनाकर नई शक्ल दे दी।


आज बड़ी-बड़ी कंपनियां अपने बाजार के विकास के लिए जिन दो तत्वों का प्रचार रणनीति में सबसे ज्यादा इस्तेमाल कर रही हैं वह है धार्मिक संप्रेषण की पध्दति और दूसरा है अंधविश्वास। इन दो के जरिए जहां एक ओर उपभोक्तावाद का तेजी से विकास हो रहा है वहीं दूसरी ओर अंधविश्वासों के प्रति भी आस्था बढ़ रही है।
  
जो लोग सामाजिक परिवर्तन करना चाहते हैं उन्हें बहुराष्ट्रीय कंपनियों की धार्मिक संप्रेषण की रणनीति और अंधविश्वास की जुगलबंदी को तोड़ना होगा। उन तमाम क्षेत्रों में हमले तेज करने होंगे जिनसे इन दो तत्वों को संजीवनी मिलती है। इसके अलावा पुनर्जन्म और कर्मफल के सिध्दांत के प्रति आम जनता में आलोचनात्मक रवैय्या पैदा करना होगा। 

आज अंधविश्वास संस्कृति उद्योग का अनिवार्य तत्व बन गया है। संभवत: कुछ लोगों को यह बात समझ में न आए और कुछ लोगों की भावनाएं भी आहत हों। किंतु इस डर से अंधविश्वासों के खिलाफ जागरूकता पैदा करने के काम को छोड़ा नहीं जा सकता।

प्रश्न उठता है अंधविश्वास क्या है? इसे किन तत्वों से मदद मिलती है? इसका सामाजिक आधार कौन सा है? इससे किस तरह का समाज निर्मित होता है? किस तरह के कला रूप जन्म लेते हैं? और इसका विकल्प क्या है? ऐतिहासिक दृष्टिकोण से देखें तो पाएंगे कि अंधविश्वास की धारणा का बुनियादी सारतत्व एक जैसा रहा है। मिस्र, यूनान और भारत में अंधविश्वासों की शुरुआत तकरीबन एक ही तरह हुई।

अंधविश्वास की बुनियादी विशेषता है अंधानुकरण, वैज्ञानिक विवेक का त्याग और स्वतंत्र चिंतन का विरोध। सामाजिक जीवन में इसका लक्ष्य था आम लोगों को अपने श्रेष्ठजनों के किसी भी आदेश के पालन का अभ्यस्त बनाया जाए। दूसरा , वे उन्हीं पर भरोसा करना सीखें जो हर मामले में समान भाव से धार्मिक विधि-विधानों का पालन करते हों। कलाओं की दुनिया में इसने नयनाभिराम चित्रों और मधुर गीतों की सृष्टि की। नयनाभिराम चित्रों और मधुर गीत-संगीत को मंदिरों में मानदंड के रूप में स्थापित किया गया। कला के क्षेत्र में किसी को यह इजाजत नहीं थी कि उनमें परिवर्तन करे। इसके कारण कलाओं के रूप सैकड़ों वर्षों तक अपरिवर्तित रहे। किसी ने यह साहस नहीं दिखाया कि कलाओं और मधुर गीतों में परिवर्तन करे। ये कलारूप सैकड़ों वर्षों से एक जैसे हैं। मिस्र के कलारूप इस अंधानुकरण के आदर्श उदाहरण हैं। विगत दस हजार साल से उनकी शैली में किसी तरह का परिवर्तन नहीं हुआ है। इस दौरान वे न तो बेहतर बन पाए और न बदतर ही बन पाए।
  

इसी तरह अंधविश्वास को जनप्रिय बनाने में झूठ खासकर इष्टकर झूठ की बहुत बड़ी भूमिका रही है। एक ऐसा झूठ, उदात्त झूठ जिसके सहारे संपूर्ण समुदाय को, संभव हो सके तो शासकों को भी स्वीकार करने के लिए राजी किया जा सके।

इस तरह के झूठ के आदर्श उदाहरण हैं हमारे रीति-रिवाज और संस्कार जिनकी प्रशंसा करते हुए हमारे शास्त्र थकते नहीं हैं। रीति-रिवाज और संस्कारों की प्रशंसा के क्रम में सबसे ज्यादा हमला स्वतंत्र चिंतन पर किया गया, उन लोगों पर हमले किए गए जो स्वतंत्र चिंतन के हिमायती थे। जो प्रत्येक बात पर शंका करते थे। प्रश्न करते थे।

गुरुवार, 28 जनवरी 2010

मैं अब अपने लिए -बहिणाबाई चौधरी

                             


 






















बहिणाबाई चौधरी (1880-1905) महाराष्ट्र के जलगाँव जिले की कपास की खेती करनेवाली किसान स्त्री थी। बहिनीबाई की कविताएँ मूलतः किसानी के श्रम के दौरान लिखी गई कविताएँ हैं। भारत के अन्य हिस्सों में स्त्रियों की रचनात्मकता उनके जीवन के कार्यव्यापार के बीच से फूटी है , बहिणाबाई की कविताएँ भी उसी तरह से रची गई हैं। बहिणाबाई पढ़ी-लिखी नहीं थीं लेकिन जीवन के गाढ़े अनुभव के दर्शन उनके गीतों में बिखरे हैं। मराठी के ओवी छंद में खानदेसी और वर्हाडी बोलियों में बहिनीबाई के गीत मिलते हैं। जो चीज ज्यादा आकर्षित करती है वह है परंपरा और रूढ़ियों के बीच से जगह बनाने की कोशिश। जीवन के प्रति ललक। भाग्य से संघर्ष की इच्छा। इस कविता में एक विधवा स्त्री की तकलीफ और परिस्थितियों से संघर्ष के साथ- साथ जीवन को सुंदर बनाने की इच्छा शामिल है।                      



                    


                                           मैं अब अपने लिए


                    मेरी आँखों से बहनेवाले आंसूओं का अंत नहीं।
                    बहुत रो चुकी हूँ
                    आंसू सूख चुके हैं
                    केवल सिसकियाँ बाकि हैं।
                    आंसू ,
                    सारे देकर दिलासा बह चुके हैं ;
                    ऐ मेरे दिल
                    बिना आंसूओं के मत रो।
                    कहो ओ धरती माँ
                    यह सब कैसे हुआ ?
                    वह पेड़ कैसे नष्ट हुआ
                    अपनी छाया पीछे छोड़कर ?
                    देवता सब कूच कर गए हैं,
                    अपने अपने स्वर्गिक घरों को ;
                    दो नन्हें शिशु हंसते हैं ,
                    आँखों के सामने ;
                    मत रो, ओ मेरे दिल।
                    मत रो,
                    रोना तुम्हारे लिए प्राथमिक नहीं है ;
                    अपने आंसूओं को जरा
                    हंसने दो !
                                        यही दुनिया में जीवन को जीने लायक
                    बनाएगा।
                    मेरे माथे से
                    सिंदूर की रेखा
                    पुछ गई है,
                    केवल निशान बाकि हैं
                    भाग्य का स्वागत करने के लिए।
                    चूड़ियाँ टूट गईं हैं
                    पर
                    कलाइयाँ अब भी भाग्य से पंजा
                    लड़ा सकती हैं।
                    मंगलसूत्र गले में नहीं है
                    पर प्रतिज्ञाबद्ध हूँ अब भी,
                    महसूस करती हूँ बाहों के घेरे को,
                    गले के आस-पास।
                    नहीं,
                    मेरी प्यारी सखी
                    मेरे लिए न रो ,
                    मैं अब निर्बाध शान्ति में हूँ ;
                    यह अब मेरे और हृदय के बीच का
                    मामला है।           
                    
                   
(प्रस्तुति और अनुवाद सुधा सिंह, एसोसिएट प्रोफेसर, हिन्दी विभाग, दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली-7)            

नेट लेखन की धुरी है खुलापन

'हाइपर टेक्स्ट' आने के बाद पाठ चारों ओर से खुला और फैला होता है।लिखित रूपरेखा से भिन्न दिशा में ले जाता है।अन्तर्संबंधित विषयों की ओर ले जाता है।इसके कारण इसके नरेटिव में भी अन्तर्संबंध होता है।कुछ बातें ऐसी भी लिखी मिल जाएंगी जो लिखित रूपरेखा के बाहर हो सकती हैं।इन अंशों तक जाने के लिए नोडस के संपर्क में जाना होगा। खुली एप्रोच से काम लेना होगा।निष्कर्ष निकाले बगैर पढ़ना होगा।चाहें तो बाद में निष्कर्ष निकाल सकते हैं।


जब आप कोई छोटा सा हाइपर टेक्स्ट निबंध पढ़ते हैं तो उसमें अनेक अन्तर्संबंधित क्षेत्रों के लिंक दिए रहते हैं।ये विभिन्न नोड्स में होते हैं।इन्हें आप जाकर खोलिए तो आपको किसी न किसी मुद्दे पर सामग्री मिल जाएगी।यहां अनेक रास्ते हैं। अनेक बिन्दु हैं जिनके साथ आप तर्क कर सकते हैं।
डेविड बोल्टर ने ''राईटिंग स्पेस: कम्प्यूटर्स,हाइपर टेक्स्ट एण्ड दि हिस्ट्री ऑफ राईटिंग'' (2001) कृति में हाइपर टेक्स्ट को युगान्तरकारी फिनोमिना माना है।बोल्टर का मानना है कि डिजिटल लेखन व्यक्तिगत,सौन्दर्यबोधीय, सांस्कृतिक, अकादमिक और आर्थिक गतिविधि है। बोल्टर के अनुसार सन् 1991 का साल डिजिटल लेखन के संदर्भ में महत्वपूर्ण साल है। 


आज डिजिटल लेखन सामान्य रूप में सांस्कृतिक स्वीकृति पा चुका है।इसके बावजूद कुछ लोग संदेह की नजर से देख रहे हैं।आज सारी दुनिया में कम्प्यूटर आधारित लेखन फैल चुका है।बोल्टर ने माना है कि मुझे भी अन्य लोगों की तरह इस बात का अहसास नहीं हुआ कि इलैक्ट्रिोनिक कम्युनिकेशन इस तरह निर्धारक तत्व बन जाएगा।उसका विश्वव्यापी हाइपर टेक्स्ट व्यवस्था के रूप में विकास होगा।
    लेखन की दिशा को बदला जा सकता है इसके बारे में कम्प्यूटर की क्षमताओं ने संजोषजनक प्रमाण दिए हैं।बोल्टर ने अपनी कृति के प्रथम संस्करण में हाइपर टेक्स्ट को स्वनिर्भर कम्प्यूटर प्रोग्राम टेक्स्चुअल सिस्टम के रूप में देखा।


मसलन् 'इनसाइक्लोपीडिया' को ही लें।इसका जन्म प्राचीनकाल में हुआ।बाद में मध्यकाल में इसे समृध्द किया गया। इनसाइक्लोपीडिया बनाने की इस दौर में जरूरत इसलिए महसूस हुई क्योंकि पाठ नष्ट हो रहा था,पाठ का अभाव था,पाठ के प्रबंधन में असुविधा हो रही थी।अच्छे पाठ की कमी महसूस हो रही थी और अच्छे पाठों को एक ही जगह रखने की इच्छा थी।यह सब घटनाएं सातवीं शताब्दी के आसपास की हैं।जब फ्रांसीसी इनसाइक्लोपीडिया सामने आया तो उसमें ज्यादातर मुद्रित सामग्री शामिल की गई।इसमें अकारादि क्रम से चीजों को रखा गया। जिससे वे व्यवस्थित लगें।संस्कृति को अवधारणा के रूप में पेश किया गया।


बोल्टर ने लिखा है कि ''इनसाइक्लोपीडिक इम्पल्स'' वस्तुत: इजैक्ट्रोनिक क्षमता को निर्देशित करते हैं। इनसाइक्लोपीडिया में प्रस्तुत सुनिश्चित मुद्रित पाठ ही साइबरस्पेस को संगठित करने का आधार बना। इनसाइक्लोपीडिया में जैसे निबंधों को सजाकर रखा जाता है वैसे ही साइबर स्पेस को भी सजाकर रखा जाता है।


बोल्टर का मानना है हाइपर टेक्स्ट में हमारा  ज्ञान और तर्क को लेकर अवसरवादी रवैयया रहा है।हम चाहते हैं कि सूचना और ज्ञान की संरचना अल्पकालिक और पूरक हो।किंतु यह स्थिति मुद्रित या पाण्डुलिपि के इनसाइक्लोपीडिया में संभव नहीं है।वहां ज्ञान का स्थायी ढ़ंाचा बना हुआ है।आज हम जो ज्ञान देख रहे हैं वह ज्ञान का संकलन है।इसे आप जिस रूप में चाहें इस्तेमाल कर सकते हैं। इसका प्रत्येक पैटर्न पाठकों के एक वर्ग की जरूरतों की पूर्ति करता है।जबकि वेब का इनसाइक्लोपीडिया निरंतर खोज और संवाद की मांग करता है।

बुधवार, 27 जनवरी 2010

मध्यपूर्व के बारे में मीडिया में इस्राइली मिथ






                     
(गाजा की इस्राइल द्वारा की गई नाकेबंदी के प्रतिवाद में फिलीस्तीन कलाकारों द्वारा बनायी पेंटिंग)                                                
    




इस्राइली सेना के बारे में पश्चिमी मीडिया यह मिथ प्रचारित कर रहा है कि वह कभी गलती नहीं कर सकता। इस्राइली हमेशा जीतेंगे। इस्राइली सेना इस्राइली जनता की रक्षा करेगी। इस्राइली चैनलों में 'हम' की केटेगरी के तहत पश्चिम की प्रशंसा और पश्चिम के साथ इस्राइली रिश्ते के साथ जोड़कर पेश किया जा रहा है। इस्राइल के द्वारा 'अन्य' या पराए की केटेगरी में समूचे अरब जगत को पेश किया जा रहा है। फिलीस्तीनी और अरब जनता को 'न्यूसेंस' और आतंकी के रूप में पेश किया जा रहा है।

इस्राइली प्रचार में कहा जा रहा है इस्राइल का लक्ष्य है 'न्यूसेंस' और आतंकवाद का विरोध करना,उसका सफाया करना।ऐसा करने में किसी भी किस्म के पश्चाताप करने की जरूरत नहीं है। अरब जनता को शक्लविहीन और आतंकी बनाने में पश्चिमी मीडिया का बड़ा हाथ है,खासकर चैनलों का।
      मीडिया आसानी से यह बात भूलता जा रहा है कि इस्राइली सैनिकों के द्वारा फिलिस्तीनी जनता पर निरंतर अमानवीय अत्याचार किए जा रहे हैं।  वे इन लोगों को अपमानित और परेशान कर रहे हैं। ऐसे में फिलीस्तीनी जनता के मन में गुस्सा,घृणा या प्रतिवाद या बदला लेने की भावना पैदा होती है या नहीं ? इस्राइल के सैनिकों के द्वारा गाजा के इलाकों में किया जा रहा अपमानजनक व्यवहार गुस्सा पैदा करता है।मीडिया इसकी ओर कभी ध्यान ही नहीं देता।

गाजा और बेस्ट बैंक के इलाकों में निरंतर बमबारी बच्चों और गर्भवती औरतों के लिए गंभीर रूप से क्षति पहुँचा रही है। बच्चे और औरतें रात में सो नहीं पाते,बच्चों के कान के पर्दे फट रहे हैं,गर्भवती औरतों के बमबारी के धमाकों के कारण गर्भ गिर रहे हैं। पश्चिमी मीडिया में ये सारी बातें एकसिरे से गायब हैं।

इसके अलावा फिलीस्तीनी इलाकों में चली आ रही आर्थिक नाकेबंदी के कारण भी फिलीस्तीनी जनता का जीना दूभर हो गया है। आर्थिक नाकेबंदी के कारण इस्राइल सामूहिक तौर पर फिलीस्तीनी जनता को उत्पीडित कर रहा है। इस सारे अमानवीय कार्यकलाप का आख्यान मीडिया से गायब है। यहीं पर हमें मैनस्ट्रीम मीडिया की भूमिका के बारे में गंभीरता के साथ विचार करने की जरूरत है।

खासकर आतंकवादी हमलों, युध्द और प्राकृतिक आपदा जैसे संकट के समय मैनस्ट्रीम मीडिया को वस्तुगत भूमिका अदा करनी चाहिए। संकट के समय राजनीतिक ध्रुवीकरण सबसे ज्यादा होता है। मानवाधिकारों का उल्लंघन होता है। ऐसी अवस्था में ही जनता के हितरक्षक के रूप में मीडिया सक्रिय भूमिका अदा करता है। संकट की अवस्था में मैनस्ट्रीम मीडिया में जो चीज सबसे पहले गायब होती है वह है वस्तुगतता।
     वस्तुगत रिपोर्टिंग के अभाव के कारण अनेक किस्म के अ-जनतांत्रिक पूर्वाग्रहों को मीडिया हवा देने लगता है। मध्य-पूर्व के संदर्भ में खासतौर पर यह बात ध्यान रखने की है कि वहां पर अरब देशों को लेकर मीडिया अपने पूर्वाग्रहों से पूरी तरह बंधा हुआ है। अरब जनता को शैतान के रूप में चित्रित करता रहा है।
  मध्यपूर्व की समस्या की बुनियादी वजह है अमेरिका का इस्राइल की तुलना में अरब देशों के साथ भेदभावपूर्ण संबंध। अमेरिका-इस्राइल के द्वारा अरब देशों के ऊपर कब्जा,उत्पीडन ,बर्बरता और अरब जनता के जीवन का अवमूल्यन।
अमेरिका की नीति है कि वह मध्यपूर्व के संकट को चुनिंदा रूप में सम्बोधित करता रहा है,कभी समग्रता में इस संकट का समाधान खोजने की कोशिश नहीं की गई।वह कभी मध्यपूर्व की समग्र जनता को सम्बोधित नहीं करता। वह उन्हें अपने शांति प्रयासों में शामिल नहीं करता। अमेरिका का सारा जोर इस्राइल की सुरक्षा पर है। यही स्थिति अमेरिकी मीडिया में भी देखी जा सकती है। अमेरिकी जनता को अपने चैनलों पर कभी इस्राइली बर्बरता के चित्र देखने को नहीं मिलते। फिलीस्तीनी इलाकों में इस्राइल ने किस तरह का संकट और तबाही पैदा की है उसके विवरण और ब्यौरे कभी दिखाए नहीं जाते। इस्राइल जहरीले रासायनिक अस्त्रों का इस्तेमाल कर रहा है,जिसके ब्यौरे गैर अमेरिकी मीडिया में मिल जाएंगे। किन्तु अमेरिकी -इस्राइली मीडिया में इसकी एकसिरे से अनुपस्थिति है।

मीडिया में मध्यपूर्व का जो थोड़ा-बहुत कवरेज आ रहा है उसमें ऐतिहासिक नजरिए का अभाव है। समस्त रिपोर्टिंग घटना केन्द्रित रहती है,समस्या और उसके ऐतिहासिक कारणों को कभी पाठक या दर्शक को नहीं बताया जाता। कहने का तात्पर्य यह है कि इस्राइली जुल्म और अरब देशों पर अमेरिका-इस्राइल के अवैध कब्जे के आख्यान के बिना मीडिया मध्यपूर्व की खबरें दे रहा है। चैनलों में यदि कभी अरब विशेषज्ञ शामिल किए जाते हैं तो बहस में एक पक्ष के रूप में,विवादी स्वर के रूप में।

यदि कभी किसी चैनल में अरब देशों के पक्षधर विशेषज्ञों से सवाल किए जाते हैं तो सवाल इस तरह का होता है कि विशेषज्ञ को रक्षात्मक मुद्रा अपनानी पड़ती है। मीडिया की मूल समस्या यह है कि उसे मध्यपूर्व में असमानता और वैषम्य नजर नहीं आता। असमानता और वैषम्य जब तक रहेगा हिंसा जारी रहेगी।

 हिंसा के लिए सिर्फ बहाना चाहिए। हिंसा का मूल कारण घटना विशेष को जिम्मेदार ठहराना सही नहीं होगा। घटना विशेष तो बहाना है,मूल कारण है अमेरिका-इस्राइल का मध्यपूर्व के प्रति असमान नजरिया और भेदभावपूर्ण विदेशनीति। समस्या है इसे को चुनौती देने की।

चैनलों के द्वारा सुनियोजित ढ़ंग से ऐसी भाषा और पध्दति का इस्तेमाल किया जा रहा है जिससे अमेरिकी-इस्राइली हितों और नजरिए के पक्ष में माहौल बना रहे।मसलन् बहुराष्ट्रीय मीडिया ने फिलीस्तीनी नाकेबोदी ,अहर्निश बमबारी और तबाही को युध्द की संज्ञा नहीं दी है। बहुराष्ट्रीय मीडिया ने इसे 'मध्यपूर्व संकट' , 'इस्राइल - हम्मास झगड़ा' 'इस्राइल और आतंकवाद' के बीच के संघर्ष के नाम से ही पेश किया है। इसमें इस्राइली-अमेरिकी विशेषज्ञों ,सैन्य अधिकारियों को ही बार-बार प्रमाण के रूप में पेश किया है।
इस्राइल के द्वारा फिलीस्तीनी इलाकों में किए जा रहे हमलों को आतंकवादी ठिकानों पर किए जा रहे हमले कहा है,जबकि ये सारे हमले रिहायशी इलाकों पर किए गए हैं। इस्राइली बमबारी में बच्चे,औरतें और निर्दोष नागरिक ही मारे गए हैं।ऐसे में इस्राइल का यह दावा कि उसकी सारी कार्रवाई आतंकवादियों के खिलाफ है। गलत साबित होता है। समाचार चैनलों में नंगे रूप में इस्राइली प्रचार अभियान चल रहा है। इसमें मध्यपूर्व का यथार्थ एकसिरे से गायब है। समूचा बहुराष्ट्रीय मीडिया सेंसरशिप और आत्म-सेंसरशिप से गुजर रहा है।