स्वातंत्र्योत्तर हिन्दी साहित्य की सबसे बड़ी उपलब्धि है साहित्य के प्रचलित वर्गीकरण और इतिहास के दायरे से साहित्य का बाहर आना। यह अचानक नहीं है कि विगत साठ साल के साहित्य का हमारे पास इतिहास उपलब्ध नहीं है। बल्कि यह उस बदलते हुए पैराडाइम का संकेत है जिसमें इतिहास अब पहचान का प्रमुख आधार नहीं है,बल्कि वे साहित्यिक संवृत्तियां पहचान का आधार हैं जो इतिहास को अस्वीकार करते हैं। इनमें स्त्री साहित्य और दलित साहित्य सबसे ऊपर हैं। आजादी के बाद आलोचना में जितने भी रूझान सामने आए हैं वे भी इतिहास के क्रमबध्द विकास की धारणा के पुराने मानक को नहीं मानते। आजादी के पहले इतिहास महत्वपूर्ण था आजादी के बाद आलोचना ,संवाद और विमर्श महत्वपूर्ण है। आजादी के पहले हिन्दीवाले थे,बाद में प्रगतिशील बने ,जनवादी बने,स्त्रीवादी बने, दलितपंथी बने। यानी हिन्दी हमारी पहचान का आधार नहीं है यही वजह है इतिहास भी पहचान का मानक नहीं है।
गुलामी में इतिहास ज्यादा पढ़ा जाता है लोकतंत्र में वैचारिक विमर्श ज्यादा होते हैं। गुलामी में पहचान खोजते हैं,क्योंकि राजसत्ताा पहचान छीन लेती है। लोकतंत्र में राजसत्ता पहचान देती है। पहली पहचान लोकतांत्रिक की देती है। बाद में इसी की संगति में पहचान के रूपों और विमर्शों का विकास होता है। फलत: अस्मिता के सवाल स्वाभाविक रूप में सामने आते हैं। अस्मिता के अधिकारों पर ज्यादा बहस होती है।
आजादी के पहले अस्मिता की तलाश थी और आजादी के बाद अस्मिता के अधिकारों को समृध्द करने की तलाश है। आजादी के पहले सभी अवधारणाओं को परिभाषित किया गया, उनकी सीमाएं बांधने की कोशिश की गई, किंतु आजादी के बाद अवधारणाओं की सीमारेखाएं ढहने लगी हैं। पहले समय को बांधने का प्रयास किया गया बाद में महसूस हुआ समय को बांधना संभव नहीं है। यह समझ भी बनी है कि किसी समय विशेष में यदि कुछ हुआ है तो उसे पलटा नहीं जा सकता,मिटाया नहीं जा सकता।
काल की सीमा में बंधे रहने का भाषायी सिध्दान्त हमने पाणिनी से पाया था। काल चूंकि क्रमबध्द है और अपने साथ तार्किक गुलामी का बोध भी लेकर आया। तार्किक नियमों की सत्ता इतनी ताकतवर बना दी गयी कि भगवान भी इनका उल्लंघन नहीं कर सकता था। यदि भगवान ने तार्किक नियमों का उल्लंघन किया तो अन्तर्विरोध सामने आ जाते हैं।
मध्यकाल में 'अनंत' पदबंध का व्यापक प्रयोग मिलता है। कोई भी चीज नहीं है जो अपने को 'अनंत' के साथ जोड़ती न हो। 'अनंत' के ऊपर जोर देने का अर्थ है कि इसके कोई नियम नहीं हैं। कोई पध्दति नहीं है। यह नियमों से पलायन है। अनंत के प्रति आकर्षण लेखक-रचनाकार के बागीभाव को व्यक्त करता है। भारतीय दर्शन में अस्मिता और अन्तर्विरोध अन्तर्ग्रथित रहे हैं। हमारी परंपरा में अस्मिता और अन्तर्विरोध के बिना कोई विमर्श नहीं मिलता। यही वजह है भगवान की कथा अथवा आख्यानों में भी अन्तर्विरोध हैं। अनंत का आख्यान साझा संस्कृति और साझा भाषा का आख्यान है। यह साझा भाषा और साझा संस्कृति के आधार पर जनता को एकजुट करता है।
मध्यकालीन साहित्य में आदर्श राम ,कृष्ण, सीता,और राधा के चरित्रों के मूल्यांकन के जरिए आधुनिक आलोचना ने सम्पूर्ण मनुष्य की गाथा को स्थापित किया है। यहां परफेक्ट मनुष्य है। कोहरेंट जगत है। यह ऐसा जगत है जिसमें जातियां और भाषाएं भी हैं। जातियां और भाषाएं लोगों और विचारों का अतिक्रमण कर जाती हैं। यह ऐसे जगत का संदेश है जिसमें प्रत्येक अच्छी चीज को सहन करना चाहिए। मध्यकाल में जितनी भी चीजें सामने आती हैं वे सब पूजा की चीज हुआ करती थीं किंतु आधुनिककाल के आने बाद ये सारी चीजें अचानक पूजारूप खो देती हैं। हम सदियों से उन चीजों की पूजा कर रहे थे किंतु आधुनिककाल में आते ही इनकी पुरानी अस्मिता कहीं घुलमिल जाती है।
प्राचीनकाल में हमारे यहां कई विशाल विश्वविद्यालय थे ,नालन्दा,तक्षशिला आदि का नाम हमने सुना है। इनके पास विशाल पुस्तकालय थे। प्रकृति और सभ्यता के प्राकृतिक विनाश की प्रक्रिया में ये कहीं खो गए। ऐसी अवस्था में हमारे पास पोथियां किसी तरह बची रह गयीं , ये पोथियां वाचिक परंपरा के कारण बची रह गयीं और ये एक दो पोथी नहीं थीं बल्कि सैंकड़ों पोथियां थीं जो हमारे विचारकों-बौद्धिकों के मन में संचित रह गयीं और बाद में उन्हें लिखा गया। इनमें वेद की पोथियां,श्रीमद्भगवतगीता,भरत का नाटयशास्त्र, सुश्रुत की चरक संहिता,रामायण और महाभारत सबसे पुराने ग्रंथ हैं। सवाल यह है क्या ये किताबें सुपरफ्लुअस हैं, अथवा उन्होंने भिन्न ढ़ंग से अपनी बातें कही हैं। क्या ये किताबें गलत हैं,हानिकारक हैं। मूल सवाल यह है कि किताब को किस आधार पर परखा जाए ?
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