बुधवार, 10 मार्च 2010

साहित्यालोचना में सामयिक रीतिवाद के खतरे



     पाठ की आलोचना में अनेक पुरानी धारणाएं आज भी उपयोगी हैं। पाठ का जगत खुला होता है। जहां पर व्याख्याकार अनंत अन्तर्संबंधों की खोज करता है। भाषा पहले से मौजूद अर्थ को पकड़ने में असमर्थ होती है। भाषा की जिम्मेदारी है कि वह बताए कि अचानक कैसे विपरीतों को व्यक्त किया जा रहा है। असल में विचारों की असंपूर्णता का दर्पण है भाषा। व्यक्ति में रूपान्तरणकारी अर्थ की असमर्थता इस संसार में व्यक्त होती है। कोई भी पाठ एकस्वरीय स्वांग करता है। यह सार्वभौम का गर्भपात है। यह पाठ का घल्लूघारा है। अब तक यह बताया गया  '' यह वह है।'' किंतु इसके विपरीत अबाधित ढ़ंग से स्थानान्तरित अर्थ यह बताता रहा कि 'यह वह नहीं है।'
     सामयिक पाठीय रीतिवाद काफी उदार है।  पाठक के ऊपर लेखक की अलिखित मंशा को आरोपित करता है। इसके कारण लेखक यह महसूस ही नहीं कर पाता कि उसने क्या कहा है। क्योंकि उसकी जगह तो भाषा बोल रही होती है। पाठ की मुक्ति से तात्पर्य है अर्थ के कल्पनाजगत को जागरूकता के अनंत अर्थों में रूपान्तरित करना। ऐसे में पाठक संदेह करता है कि पाठ की प्रत्येक पंक्ति में कोई न कोई गोपनीय अर्थ छिपा है। शब्दों का कार्य था बताना किंतु यहां तो शब्दों का कार्य है अकथनीय को छिपाना। इसी क्रम में पाठक की प्रभावशाली  भूमिका सामने आती है जिसमें वह पाठ में से प्रत्येक चीज की खोज लेता है। सिर्फ उस बात के जो लेखक कहना चाहता है। ज्योंही वह अर्थ को जान लेने का स्वांग करता है तब हम सुनिश्चित होते हैं कि वास्तव अर्थ वह नहीं है जो बताया जा रहा है। वास्तव अर्थ तो कहीं आगे होता है और इस तरह आगे और फिर आगे अर्थ की खोज करते रहते हैं। इस क्रम में हम ' मैं समझ गया' कहना बंद कर देते हैं। उम्ब्रेतो इको ने लिखा है असली पाठक वह है जो पाठ के खोखलेपन की गोपनीयता से वाकिफ होता है।
      पुरानी आलोचना में कहीं न कहीं व्याख्या की सीमा तय करने का आधार रहा है। इसके बावजूद व्याख्या का सिलसिला अनेक रूपों में जारी है। जब एक पाठ अपने वक्ता से अलग होता है अथवा वक्ता की मंशा से पृथक् होता है तो वह बोलने की ठोस परिस्थितियों से अलग हो जाता है।अथवा यह भी कह सकते हैं कि वह अपने संदर्भ से अलग हो जाता है। ऐसी अवस्था में जब आप शून्य में बोलते हैं तो अनंत व्याख्याओं की सम्भावनाएं पैदा हो जाती हैं। पाठ की यदि व्याख्या बतायी जा रही है तो उसे कहीं पर होना चाहिए।
        व्याख्या करते समय आमतौर पर समान तुलनाएं खोज ली जाती हैं। जैसाकि रैनेसां की व्याख्या के क्रम में हुआ। हिन्दी के आलोचकों ने यूरोप और भारतीय रैनेसां के बीच 'समानता' और 'अंतर' खोज लिए। भारतेन्दुयुग को रैनेसां के रूप में व्याख्यायित करने वाला साहित्य व्यापक परिमाण में उपलब्ध है। यह आलोचना ज्यादा सुसंगत नजर आती है। इसमें आलोचना के नियम भी दिखाई देते हैं। जब हम समानता के आधार पर आलोचना विकसित करते हैं तो पुनरावृत्तिा ज्यादा करते हैं,सामान्यीकरण ज्यादा करते हैं। ज्यादा लोचदार ढ़ंग से व्याख्या करते हैं। समानता के आधार पर व्याख्या करते समय कभी व्यवहार में समानता खोजते हैं तो कभी आकार-प्रकार में,कभी तथ्यों में,कभी खास किस्म के संदर्भ में समानता खोजते हैं। इन सबके बीच में किसी न किसी तरह का संबंध स्थापित करते हैं।
     समस्या यह है कि ज्योंही आप तुलना करने बैठते हैं तो यह सिलसिला फिर थमने का नाम नहीं लेता। इमेज,अवधारणा और सत्य में समानताएं खोज ली जाती हैं। इसके चलते फिर एक और नयी तुलना सामने आ सकती है। रामविलास शर्मा के द्वारा 19वीं शताब्दी के रैनेसां की यूरोप के रैनेसां के साथ की गई तुलना वहीं तक थम नहीं गयी बल्कि उसे प्राचीनकाल तक खींचकर ले जाते हैं। यही हाल भक्तिकाल का हुआ है। कुछ आलोचकों ने आधुनिकाल की अवधारणएं मध्यकालीन भक्तिकाव्य में ही खोज ली हैं। मसलन् धर्मनिरपेक्षता, साम्प्रदायिकता, इतिहासबोध, इतिहासदृष्टि, आधुनिकता आदि के तमाम लक्षण तुलना के आधार पर भक्तिकाल में भी खोज लिए गए हैं।
    कहने का तात्पर्य यह है कि आप तुलना करने लगते हैं तो फिर चीजें थमती नहीं हैं। प्रत्येक बार जो चीज सामने आई है वह है तुलना। यानी तुलनाओं का अन्तहीन सिलसिला चल पड़ता है। हमारा संसार तुलनाओं के तर्क से भरा पड़ा है। प्रत्येक व्याख्याकार की यह जिम्मेदारी है कि वह तुलनाओं को संदेह की नजर से देखे। उनमें छिपे संकेतों को संदेह की नजर से देखे। जिससे संकेत के भावी अर्थ को खोला जा सके। जब चीजें समान हों तो वह संकेत बन जाती हैं। उन्हें एक-दूसरे के आधार पर पहचाना जा सकता है। किंतु यह समानता स्वचालित नहीं है। जैसे लेखक लेखक बराबर होते हैं। किंतु क्या बांग्ला लेखक और हिन्दी लेखक बराबर हैं ,क्या वास्तव में उनमें कोई बराबरी है ? सिवाय इसके कि सतह पर दोनों लेखक के रूप में जाने जाते हैं। इससे समानता और तुलना करना क्या सही होगा ? क्या कालिदास और रवीन्द्रनाथ की तुलना संभव है ? क्या टैगौर और निराला में तुलना संभव है ? आलोचना में तुलना का तत्व विभ्रम पैदा करता है। कभी-कभी गलत समझ भी पैदा करता है। खासकर परिप्रेक्ष्यभेद को छिपाने की कोशिश की जाती है।
              संकेत के आधार पर तुलना करना बेहद मुश्किल और जटिल काम है। इसमें अनेक मुश्किलें हैं।यह सच है कि मनुष्य अस्मिता और तुलना के आधार पर सोचता है। दैनन्दिन जीवन में इस तरह की तुलनाओं के हम अभ्यस्त होते हैं। साथ ही यह भी जानते हैं  तुलना करते समय कैसे अंतर करें और किन चीजों में अंतर करें ? जो चीजें नजर आती हैं उनमें तुलनाएं करना और जो चीजें नजर नहीं आतीं ,भविष्य के गर्भ में छिपी होती हैं, काल्पनिक होती हैं उनमें तुलना करना ये दो अलग चीजें हैं। दृश्य चीजों के बीच में तुलनाएं न्यूनतम के आधार पर होती हैं और जो अदृश्य में तुलनाएं अधिकतम के आधार पर होती है।
      परिस्थितियों के आधार पर तुलना करना सटीक अर्थ के उद्धाटन में मदद नहीं करता। तुलना को हमेशा परिस्थितियों के आधार पर विकसित नहीं किया जाना चाहिए। परिस्थितियों के आधार पर की गई तुलना ज्यादा सटीक नहीं होती। किसी एक कारण के आधार पर चीजों को व्याख्यायित नहीं किया जा सकता। अथवा किसी वर्ग विशेष की भूमिका के बारे में उसकी सीमित संभावनाओं की बात नहीं की जा सकती। अथवा किसी वर्ग विशेष की सुनिश्चित परिभाषा अथवा सुनिश्चित अर्थ बताकर मामले को सिलटाया नहीं जा सकता। हमने तुलना की पध्दति का इस्तेमाल करते हुए भक्तिकाल और आधुनिकाल के साहित्य का व्यापक मूल्यांकन किया है और इसमें वर्गविशेष की भूमिका भी तय मान ली है। उसके प्रभाव भी निश्चित मान लिए हैं। इससे आलोचना गलत निष्कर्षों पर पहुँची है।
          


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