रविवार, 28 फ़रवरी 2010

होली की यादें- साहित्यकारों के बिखरे रंग -पुष्पा भारती

         (पुष्पा भारती)                


होली का नाम सुनते ही यादों के घोर धुर बचपन के दिनों से जा जुड़ते हैं। '7-8 साल' की रही होऊँगी यानि 'सन 1942-43' के समय मेरे माता-पिता लखनऊ में रहते थे। वहाँ की गंगा-जमुना की तहज़ीब के बीच पल रहे थे हम। पड़ोस में एक मुस्लिम परिवार रहता था। खाँ साहब हमारे ताऊजी थे और उनकी बेगम हमारी ताई। ईद पर उनके घर में सुबह-सुबह सेंवइयाँ लातीं और शाम को सजधज कर अपनी ईदी वसूलने जाते हम। होली के दिन सबसे पहली पिचकारी खाँ ताऊ को भिगोती। असमत और इस्तम आपा हमारे घर में भागतीं और हम उनके गालों पर गुलाल मले बिना उनका पीछा न छोड़ते। शाम को जब हम होली मिलने जाते तो वे सब हमारी लाई गुझियों-पपड़ियों को खूब स्वाद ले-लेकर खाते। बड़ी-ताई कपड़े की गुड़िया बहुत अच्छी बनाती थीं। हर होली पर एक गुड़िया हमें ज़रूर मिलती फिर हम अपनी गुल्लक तोड़ते और पैसे लेकर बाज़ार भागते। गुड़िया के लिए तरह-तरह के ज़ेवर लाते। लहंगा-ओढ़ानी और चुन्नी पहनाते हाय! कैसे सुहाने थे वे दिन।

मेरे पिताजी मुहल्ले भर के बच्चों को शाम को मुफ़्त पढ़ाया करते थे। तो तमाम कृतहा माता-पिता व मोहल्ले के तमाम लोग हमारे दालन में जमा होते। पिताजी सिर से पाँव तक गुलाल में डूब जाते।

ये लीजिए, एक और याद इस समय अपना सिर उचका रही है। वह ये कि घर में मैं और मेरा छोटा भाई (अब प्रख्यात विश्व ब्रह्मचारी) ही सबसे चंचल और शरारती थे। हमें ये ज़िम्मा दिया जाता था कि होली के '3-4 दिन' पहले से मोहल्ले भर का चक्कर लगाकर गाय का गोबर इकठ्ठा करके लाओ। गोबर इकठ्ठा करके हम तीनों बहनें उसके बहुत छोटे-छोटे उपले जैसे बनाकर उनमें बीच में ऊँगली में छेद करके सूखने रख देते थे। अपने पाँचों भाइयों का नाम ले-लेकर उनके लिए उस गोबर से ढाल और तलवार की शक्ल के उपले बनते थे और उन सबके बीच में छेद करके सूखने को रख देते थे। सूखने पर उन छेदों में सुल्ली पिरोकर मालाएँ बनाई जाती थी। फिर रंग-गुलाल खेलेनेवाली होली की पहली रात में आकार देखकर पहले सबसे बड़ी माला उसके ऊपर उससे छोटी फिर उससे छोटी लगाते-लगाते पिरामिड की शक्ल जैसी होली तैयार की जाती थी। रात को शुभ मुहुर्त में पिताजी और अम्मा उसे जलाते। हम सब बच्चे उस अग्नि में गन्ना और हरे चने के होरहे के गुच्छे भूनते। और होली की प्रदक्षिणा करते। बड़ा इंतज़ार रहता कि पिछले हफ्ते भर में पकवान बना-बनाकर अम्मा कलसों में छिपाकर रख रही थीं उसमें से आज प्रसादस्वरूप कुछ खाने को मिलेगा।

तब घर-घर में होली जला करती थी, पकवान बनते थे रंग की होली खेली जाती थी और शाम को घर-घर जाकर होली मिली जाती थी। सालभर की दुश्मनियाँ होली में जला दी जाती थीं। मन के मैल रंग से धो दिए जाते थे और खुले-खुले धुले-धुले मन से जीवन में फिर प्रेम-प्यार का वातावरण बना लिया जाता था। अब न वे परंपराएँ रहीं न वह मेल मुहब्बत। न त्योहारों के सही अर्थ और स्वरूप।

पर धर्मवीर भारती जी थे, ज़माने की दौड़ में सबसे आगे दौड़नेवालों में शुमार होते हुए भी अपनी संस्कृति, अपनी तहज़ीब और परंपराओं के हमेशा कायम रहे थे। '1960' में जब यहाँ मुंबई आए तो देखा कहीं पर आज तक छोटे बच्चे आपस में पानी के गुब्बारे मारकर एक-दूसरे को भिगो रहे होते और पीछे-पीछे भागकर मुँह पर गुलाल मल देते। ईं-ईं, ऊं-ऊं और हो-हो की हीं-हीं आवाज़ें और बस हो गई होली। तमामो-तमाम लोग झकाझक सफेद और कड़क इस्त्री किए कपड़े पहले एकदम पाक-साफ़ कपड़े पहनकर आते जाते रहते। मजाल है कि रंग का एक छींटा भी कहीं से पड़ जाए। यह सब देखकर भारती जी जब उदास हुए तो पता चला कि अरे! यहाँ तो सारे भइया लोग (जी हाँ, बंबई में उत्तर भारतीयों को भइया लोग ही कहा जाता हैं) जुहू के समुद्र तट पर इकठ्ठे होकर होली खेलते हैं। वहाँ जाकर देखिए होली की धूम। सो अगले बरस वहाँ जाकर भी देखा। रंग गुलाल की नज़ाकत कम और भांग यहाँ तक कि शराब के नशे से सराबोर हुड़दंग भरी बंबईया होली। मायूस होकर घर वापस आकर निश्चय किया कि अपनी परंपराओं और त्योहारों से कटकर तो नहीं ही जिएँगे। अब एक साल नई शुरुआत करेंगे यहाँ। सो अगले बरस पूरी तैयारी से लखनऊ-इलाहाबाद से टेसू के फूल मँगाए गए और रातभर गरम पानी में भिगोकर उनका महकदार रंग बनाया गया। हरा, नीला, पीला, लाल थाल भर-भर इकठ्ठा किया। खार के बनारसी हलवाई जी मोतीलाल मिश्र से कहकर होली के ख़ास पकवान बनाए गए। मिश्र जी स्वयं भी कवि हैं तो भारती जी के इस प्रस्ताव पूरी हौंस के साथ तैयारी में लग गए। बंबई में खुली जगह भला कहाँ नसीब। मगर सौभाग्य से तब हम नितामहल नामकी एक बड़ी बिल्डिंग के टेरेस फ्लैट में रहते थे, सो सारे दोस्तों के साथ खुली छत पर जी भरकर होली खेली।

पुराने दिन बहुरे, हर बरस मित्रों की संख्या में इज़ाफ़ा होता गया। बड़े चर्चे होने लगे थे इन होलियों के। बोरीवली और कुलाबा जैसी दूर-दूर जगहों से मित्र हमारे घर होली खेलो आते। और फिर जब कमलेश्वर जी भी मुंबई आ गए थे तो उनके घर के बाथरुम में बाथ टब में जब देवर लोग एक-एक करके हम भाभियों को डुबोते और भतीजे-भतीजियाँ मामाओं की दुर्गति होते देखकर सहमे से हो जाते तो गायत्री जी चाकलेटों की घूस देकर उनकी मासूम हँसी वापस दिलातीं।

होली की बहार जीवन में वापस आ गई थी कि '1970' में हम बांद्रा में रहने आ गए थे। बड़ी खूबसूरत हरियाली से चारों ओर से घिरी साहित्य-सहवास नामक यह कॉलॉनी हर तरह से भारती जी के मन को भा गई। पर यहाँ का भी वही हाल कि दीवाली पर तो खूब बम-पटाखे फूटते। सब घरों की बाल्कनियाँ झिलमिल रोशनी से जगमग रहती और होली पर वहीं साँय-साँय सूमसाम। तो हमने अपने बच्चों के दोस्तों को होली की अहमियत समझाई और एक टोली तैयार की जिसमें गणेश-चतुर्थी की परंपरानुसार अपनी कॉलॉनी के घर-घर जाकर वर्गणी इकठ्ठा की प्रसिद्ध मराठी कवयित्री शांता शेळके की देख-रेख में प्रभुणे जी को साथ लेकर होली जलाने के लिए लकड़ी ख़रीदी गई। प्रसाद के लिए नारियल और पेड़े लाए गए। कॉलॉनी के बीच में बच्चों के खेलने के लिए एक छोटा-सा मैदान है वहाँ होली जलाई गई। पहले बरस तो लोग अपनी-अपनी बालकनियों से झाँकते रहे। सिर्फ़ बच्चे ही मज़ा लेते रहे। अगले बरसों में धीरे-धीरे कई घरों से बड़े लोग भी जुटने लगे। तो जब भारती जी ने पाया कि माहौल बनने लगा है तो सोचा अब होली खेलने की भी परंपरा शुरू कर देनी चाहिए और एक नया तरीक़ा सोचा।

प्रसिद्ध नर्तक गोपीकृष्ण की शिष्या और खुद एक नामचीन लेखिका नीरुपमा सेवती जी जगुभाई के साथ नाच-गाने का माहौल बनाया गया। एक बड़ा-सा कंडाल लाकर उसमें रंग भरकर गाड़ी के गैरेज में रखा गया। दर्जनों पिचकारियाँ लाई गईं। वहीं भर-भर थाल गुलाल लाया। खूब-खूब सारी मिठाई, नमकीन और ठंड़ाई जब आलम यह कि प्रसिद्ध डोगरी कवयित्री पद्मा सचदेव टनटन ढोलक बजा रहीं हैं, फाग गाए जा रहे हैं और निरुपमा जी छमाछम नाच रही हैं। महाराष्ट्र में होली की ये रौनक कभी किसी ने जानी ही नहीं थी, पर चूँकि पिछले दो-तीन वर्षों से होली जलाकर जो माहौल बना दिया गया था उससे बड़ी खुशी-खुशी और चाव से तमाम मराठी और गुजराती मित्र भी इस रसभरे माहौल में शरीक होकर आनंद लेने लगे। फिर तो हर बरस होली की सुबह भारती जी अपने कुरते की जेबो में गुलाल भर-भरकर टोली बनाकर निकलते। सबसे पहले बगल की पत्रकार कॉलॉनी में जाते, चित्रा और अवध मुद्गल, मनमोहन सरल, गणेश मंत्री, वयोवृद्ध किशोरी रमण टंडा, श्रीधर पाठक, लतालाल आदि को एकत्र करते हुए पूरे मोहल्ले का चक्कर लगाते हुए अपनी टोली को और-और बड़ा बनाते हुए होली खेलते-खेलते शब्द कुमार के घर में जमा होते। इसलिए कि उनका घर ऐसा था जिसकी बाउंड्री के भीतर खूब सारी खाली जगह थी। वहाँ होली की ये मस्तानी टोली सुस्ताती। शब्द कुमार की पती कांजी के वड़े बहुत अच्छे बनाती थीं। सब लोग मिल कर कांजी पीते, गुझिया, दालमोठ खाते और एक बार फिर होली की भाँति नाच-गाने की महफ़िल जमती। शशिभूषण वाजपेयी की पत्नी सरोज सिर पर पल्ला डालकर नाचतीं। साथ में उनकी बेटियाँ रेखा, सुलेखा और बेबी गातीं -
"मैं हूँ नई रे नवेली, नार अलबेली, तुम तो राजा फूल गुलाब के मैं हूँ चंपा चमेली नार अलबेली।"
तुम तो राजा लड्डू और पेड़ा मैं हूँ गुड़ की भेली, नार अलबेली।

क्या बताएँ आपको कि क्या समां बँधता था। भारती जी तो जिस तरह चटकते, महकते और मटकते थे कि कोई देखे तो विश्वास ही न करे कि होली व्यक्ति के लिए मशहूर है कि ये बड़ा कट्टर अनुशासन प्रिय संपादक है जो अपना प्रतिक्षण धर्मयुग के काम में झोंक देता है और चाहता है कि सहयोगी भी उसी निष्ठा के साथ हर पल सिर्फ़ काम में लगे रहें।

आज भी सोच-सोच कर अचरज होता है कि अपने जीवन को कितने स्तरों, कितने लोगों के नाम कर लेते थे भारती जी। उनके चले जाने के बाद मेरी ज़िंदगी तो कितनी वीरान, कितनी अंधेरी हो गई है, मैं कभी ज़ाहिर भी नहीं करती। लेकिन यादों की जो विरासत वे मुझे दे गये हैं, उसमें आज भी गुलाब महकते हैं, रोशनी झिलमिलाती है, रंग बिखरे पड़ते है। विद्यानिवास जी ने भारती जी के बारे में लिखा "फागुन की धूप सरीखे भारती'', हर होली पर उनके उसी फागुनी गुनगुने पन को महसूस करती जिऊँगी। मेरा उदास होना वे सह ही नहीं पाते थे सो मुझे तो हँसते-खिलते ही जीना है, उनके साथ बिताया हर दिन होली था, हर रात दीवाली थी।
(अभिव्यक्ति ब्लॉग से साभार)

शुक्रवार, 26 फ़रवरी 2010

भगवान के तर्कशास्त्र से मुक्त आलोचक

आधुनिक आलोचक भगवान के तंत्र और तर्कशास्त्र से मुक्त है। मध्यकाल में किसी भी चीज के घटित होने के लिए भगवान को जिम्मेदार ठहराया गया, किंतु आधुनिककाल में भगवान की जगह 'कारण' को बिठा दिया गया। अब प्रत्येक घटना,साहित्यरूप,आंदोलन , व्यक्ति,अस्मिता आदि के 'कारण' की खोज पर जोर दिया गया।

मध्यकाल को जानने अथवा समझने का अर्थ था मध्यकाल के कारणों को जानना। 'कारण' समाज में था किंतु समाज को खोले बिना हमने कारण के प्रयोग की कला विकसित कर ली। यह मूलत: संस्कृत काव्यशास्त्र की कला है। मध्यकालीन कला है। इसका दुष्परिणाम यह निकला कि साहित्य और आलोचना में अध्यात्मवाद की जड़ें बरकरार रहीं। साहित्यकारों के जीवन में ईश्वर की सत्ता बनी रही। लेखकों में अध्यात्मवाद का विकास हुआ। साहित्यकार का धर्मभीरू भाव बना रहा। स्वातंत्र्योत्तर आधुनिक आलोचना ने लेखक के धर्मभीरू और अध्यात्मवादी तंत्र को कभी निशाना नहीं बनाया।

लोकतंत्र में बहुलतावाद,जातीय अस्मिताएं, पुरानी अस्मिताएं ,वर्गीय अस्मिताएं,मिथकीय अस्मिताएं,दलित और स्त्री अस्मिता आदि के सवाल केन्द्र में आ गए हैं। सवाल यह है इन विषयों पर विचार करते हुए हम कहां लौटते हैं ? क्या आलोचना मानवीय मूल्यों की ओर लौटती है ? क्या हमारी आलोचना ने मानवीय मूल्यों के सवालों और सरोकारों की ओर प्रयाण किया है ?

आज जब हम आलोचना और साहित्य के बारे में बातें कर रहे हैं तो मूल परिदृश्य बदल चुका है। विगत साठ सालों में अनेक बदलाव आए हैं। नए बदलाव ये हैं,पहला, आज व्यापक स्तर पर हिन्दी साहित्य का पठन-पाठन हो रहा है। पठन-पाठन में शिक्षा संस्थानों की बड़ी भूमिका है। संस्थानों के कारण ही हिन्दी की अस्मिता,पहचान और अनुशासन के रूप में भूमिका तय हुई है। आज हिन्दी को लेकर कोई भी विवाद उठता है तो सिर्फ साहित्यिक अथवा प्रोफेशनल विवाद नहीं होता। बल्कि सामाजिक और राजनीतिक विवाद बन जाता है। इस तरह के विवाद सार्वजनिक तौर पर ध्यान आकर्षित करते हैं।

दूसरा, हिन्दी साहित्य में कालविभाजन बंद हो गया है। आजादी के बाद के साहित्य को लेकर वैसा वर्गीकरण आलोचना में नहीं दिखता जैसा कालविभाजन के नाम पर पहले होता था। यह प्रक्रिया आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने शुरू की और कालविभाजन की एक तरह से विदाई हो गयी। इसमें उनकी तीन किताबों 'हिन्दी साहित्य में आदिकाल' , 'हिन्दी साहित्य की भूमिका' और 'हिन्दी साहित्य का उद्भव और विकास' की बड़ी भूमिका है। अब साहित्य में वर्गीकरण सामाजिक,लिंगीय और एथनिक आधारों के आधारों पर किए जा रहे हैं। फलत: अब किसी प्रवृत्ति का वर्चस्व नहीं है। यह प्रवृत्ति के वर्चस्व के युग के अंत की घोषणा भी है। सामाजिक,लिंगीय और एथनिक वर्गीकरण किसी के वर्चस्व को स्वीकार नहीं करते।

तीसरा ,साहित्य और साहित्यकार अब बाजार और सत्ता के मूल्यांकन के आधार पर पहचाना जाता है। इसका साहित्य विमर्शों पर असर पड़ा है। फलत: आत्मगत मूल्यांकन ज्यादा हुआ है अकादमिक मूल्यांकन कम हुआ है। व्यक्तिगत और आत्मगत मानकों के आधार पर मूल्यांकन ज्यादा हुए हैं। लेखक की प्रतिष्ठा और जनप्रियता का मानक सत्ता और बाजार के साथ उसके संबंध हैं। जो लेखक बाजार और सत्ता के गलियारों में सफल है वही अकादमिक जगत में भी सफल है।

चौथा , पेशेवर नजरिए से साहित्य का मूल्यांकन कम हुआ है। साहित्य सैद्धान्तिकी के वैविध्यपूर्ण प्रयोगों की तरफ ध्यान ही नहीं दे पाए हैं। इस क्षेत्र में सिर्फ मार्क्सवादी सैद्धान्तिकी के पुराने सिद्धान्तों के आधार पर कुछ विद्वानों ने काम किया है। किंतु परवर्ती मार्क्सवादी चिन्तन के प्रयोगों से अभी भी हिन्दी के मार्क्सवादी काफी दूर हैं।

हिन्दी की सबसे बड़ी कमजोरी है पेशेवर आलोचना का अभाव। हमारे यहां पेशेवर लेखक हैं किंतु पेशेवर आलोचक नहीं हैं। ऐसी आलोचना नहीं है जिसमें अकादमिक अनुशासन हो। आलोचना हिन्दी में अकादमिक अनुशासन का दर्जा क्यों ग्रहण नहीं कर पायी ? इसका कोई संतोषजनक उत्तर हमारे पास नहीं है। भक्तिकाल, भारतेन्दुयुग, छायावाद और प्रगतिवाद के बारे में कुछ पेशेवर मूल्यांकन कृतियां उपलब्ध हैं किंतु अन्य क्षेत्रों में अभी भी अभाव बना हुआ है।

गुरुवार, 25 फ़रवरी 2010

फ्रेगमेंटेशन के समय में खंडित इतिहासदृष्टि



आलोचक रामविलास शर्मा          

    स्वातंत्र्योत्तर दौर की केन्द्रीय विशेषता है फ्रेगमेंटेशन। परंपरागत राष्ट्रीय और जातीय वफादारियां खण्डित हो रही हैं। नए दौर में पाठक सबसे बड़ा व्याख्याकार है। आज साहित्य के सवाल ग्लोबल नेटवर्किंग , इलैक्ट्रोनिक मीडिया और इंटरनेट के सहयोग पर निर्भर हैं। इन माध्यमों से जो सामग्री आ रही है वह पाठकों से ऐतिहासिक और राष्ट्रीय और जातीय पहचान नहीं पूछ रही है और न राष्ट्रीय पहचान को केन्द्र में रखकर ही सामग्री तैयार की जा रही है। बल्कि ये सब सवाल पूछे बगैर सामग्री सप्लाई की जा रही है। आज साहित्य का इतिहास 'समानान्तरता' और 'जातीय उन्मोचन' की चुनौतियों का सामना कर रहा है। 'स्मृति' और 'कालावधि' के सवाल केन्द्र में आ गए हैं। सवाल यह है स्मृति को किस तरह बांटा जाएगा ? किसी भी अनुभव की कालावधि क्या है ? कब तक कोई अनुभव सक्रिय रहता है ? लोगों का नजरिया बदलता है तो क्या स्मृति भी बदलती है ? नजरिया बदलता है तो क्या अनुभव की कालावधि भी बदलती है ? नजरिया कैसे मनुष्य के स्थायीभाव का निर्माण करता है ? क्लोनिंग के कारण साहित्य के इतिहास में 'जेनरेशन'(पीढ़ी) और 'पीरियड'(कालावधि) ये दो अवधारणाएं महत्वपूर्ण हो उठी हैं। इनका पहले भी महत्व था आज भी महत्व है। परंपरागत इतिहास इन दोनों धारणाओं की संतोषजनक व्याख्या पेश नहीं करता।
     साहित्येतिहास जबर्दस्त वैचारिक विवादों के गर्भ से पैदा हुआ है, इसी अर्थ में साहित्येतिहास वैचारिक निर्मिति है। मूल सवाल यह है आज की पीढ़ी की चेतना की उम्र क्या है ? इसके कारण अर्थ उत्पादन की रिदम में भी बदलाव आया है। आज किसी भी घटना की कहानी इतिहासकार के पास अनेक माध्यमों के जरिए पहुँच रही है। फलत: इतिहासकार का काम पहले की तुलना में और भी जटिल हो गया है। हमें एक बात का ख्याल रखना होगा कि साहित्येतिहास हमारे पास हमेशा विश्वविद्यालय और स्कूल शिक्षा व्यवस्था के सुरक्षित मार्ग के जरिए ही पहुँचता रहा है।
           आजादी के बाद का साहित्य 'इतिहास ' की बजाय 'पाठक के वर्चस्व' का साहित्य है। लोकतंत्र में इतिहास पर कम विवाद होता है। यह अचानक नहीं है कि साहित्येतिहास पर आजादी के पहले पच्चीस सालों में जो सामग्री आई है वह रामचन्द्रशुक्ल के इतिहास मानदंड़ों के बुनियादी आधार को ही चुनौती देती है। यह काम अपने-अपने तरीके से हजारीप्रसाद द्विवेदी ,मुक्तिबोध,नामवरसिंह और रामविलास शर्मा ने किया है।

          लोकतंत्र में व्याख्या और पुनर्व्याख्या का लक्ष्य है असहमति को केन्द्र में लाना और सहमति के भावबोध को अपदस्थ करना। स्वातंत्र्योत्तर आलोचना का विकास अप्रत्यक्ष ढ़ंग से इतिहासबोध को बुनियादी तौर पर बदलता है। तयशुदा धारणाओं के प्रति जितनी गहरी अनास्था,अविश्वास और असहमति इस दौर में विकसित हुई है वैसी पहले कभी नहीं देखी गयी। साहित्य में प्रचलित हायरार्की टूटी है। इस दौर में सहमत और असहमत दोनों ही अपने-अपने ढ़ंग से इतिहास को संकुचित कर रहे हैं अथवा त्याग रहे हैं। आलोचना में व्याख्याओं की बाढ़ आ गयी है। आलोचना में भाषास्फीति नजर आ रही है।  
   इस दौर में भाषा का व्यापक इस्तेमाल हुआ है भाषा के नाम पर जितने झगड़े हुए हैं वैसे पहले कभी नहीं देखे गए। लोकतंत्र के विकास की प्रक्रिया में चीजें जैसी हैं अथवा उनकी जैसी व्याख्या है उसके प्रति सवालिया निशान लगते हैं। निश्चित भावबोध,निश्चित नजरिया और निश्चित निष्कर्ष के युग का अंत होता है। सभी क्षेत्र में अनिश्चितता और अनंत व्याख्या के दौर की शुरूआत होती है। इस समूची प्रक्रिया ने साहित्य,साहित्यकर्म और पाठक तीनों को बदला है। 
   स्वातन्त्रयोत्तर दौर में आलोचना में तीन क्षेत्रों पर सबसे ज्यादा काम हुआ है, पहला क्षेत्र है मध्यकालीन भक्तिकाव्य ,दूसरा, भारतेन्दुयुग और तीसरा हिन्दी भाषा। इनमें भक्तिकाव्य पर सबसे ज्यादा काम हुआ है। सवाल  उठता है मध्यकालीन भक्तिकाव्य के मूल्यांकन पर इतनी शक्ति क्यों खर्च की गई और उससे क्या निकला ? किस चीज की तलाश थी लेखक की मंशा  और पाठ की रीडिंग इन दो पहलुओं पर ज्यादा ध्यान दिया गया। भक्तिकाव्य और मध्यकालीन साहित्य की आलोचना मूलत: भारतीय सभ्यता की 'तर्कशक्ति' और 'सीमा' को उद्धाटित करती है। तार्किकता (रेशनलिज्म)की व्याख्या के निर्माण के क्रम में अतार्किकता के विकास की प्रक्रिया का भी उद्धाटन हुआ। इसी क्रम में आधुनिकतावादी समझ और उसकी सीमा का दायरा परिभाषित हुआ। उल्लेखनीय है मध्यकालीन साहित्य के बहाने 'रेशनलिज्म' अथवा तार्किकता की खोज का काम बेतरतीव ढ़ंग से हुआ है। इस क्रम में पहले मध्यकाल के रेशनल की तलाश की गई और बाद में इस रेशनल को आधुनिकाल के रेशनलिज्म के चौखटे में फिट कर दिया गया।
     मध्यकालीन रेशनलिज्म के दायरे में ही आधुनिकता को परिभाषित किया गया। मध्यकालीन रेशनलिज्म के दायरे में ही रखकर आधुनिक पहचान, आधुनिक जीवनरूपों और जीवनशैली को तय किया गया और उसके आधार पर ही इरेशनलिज्म को परिभाषित किया गया। जो चीज रेशनल नहीं है उसे इरेशनल की केटेगरी में ड़ाल दिया गया। पाठ की व्याख्या के आधार के तौर पर रेशनलिज्म और इरेशनलिज्म को ही चुना गया। उसके साथ 'मंशा' को जोड़कर देखा गया। मध्यकालीन साहित्य की व्याख्या में 'पाठ ही जगत है।' पाठ की महानता और पाठ में से ही संसार को खोज निकालने की कला का कौशल के साथ विकास किया गया फलत: संसार में झांककर देखने की जरूरत ही नहीं पड़ी।  मध्यकालीन पाठ के साथ यदि मध्यकालीन समाज की परतों को आलोचना ने खोला होता तो आलोचना का स्वरूप कुछ और होता। मध्यकाल के संदर्भ में पाठ ही सब कुछ था। समाज बेकार की चीज थी,अथवा समाज में कोई गड़बड़ी नहीं थी ?
   





बुधवार, 24 फ़रवरी 2010

इंटरनेट युग में हिन्दी साहित्य के इतिहास का नया परिपेक्ष्य

(आचार्य रामचन्द्र शुक्ल)

हिन्दी साहित्य के इतिहास का जन्म राष्ट्र-राज्य और राष्ट्रवाद की प्रक्रिया के साथ होता है। फलत: जातीय साहित्यकेन्द्रित अध्ययन की प्रक्रिया शुरू हुई। जातीय भाषाओं का उदय हुआ। इसी की रोशनी में साहित्य के अध्ययन-अध्यापन का एजेण्डा तय हुआ। साहित्य को सुनहरे इतिहास की स्मृतियों के महिमामंडन के उपकरण के तौर पर इस्तेमाल किया गया। यह वह अतीत है जो 19वीं शताब्दी में हल्का दिखता था किंतु 20वीं शताब्दी के आरंभ में कुछ ज्यादा ही सुंदर नजर आने लगा। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल का ''हिन्दी साहित्य का इतिहास'' हिन्दी समाज के अध्ययन का पहला संस्थानगत प्रयास है। इसके जरिए स्पष्टरूप में राष्ट्रीयतावादी अस्मिता व्यक्त हुई। इसने हिन्दी को जातीय संप्रभुता का दर्जा दिया। 
              राष्ट्र-राज्य के निर्माण के दौर में हिन्दी साहित्य का इतिहास सामने आया था अत: उसमें प्रत्यक्षत: राष्ट्र-राज्य और राष्ट्रवादी चिन्ताएं भी चली आयीं। इसमें अन्य जातीय भाषाओं के साथ संवाद,संपर्क और विनिमय दिखाई नहीं देता। यह ऐसा इतिहास है जो अपनी भाषा के गौरव में डूबा है। इसमें पूरे राष्ट्र के साथ अन्तर्ग्रथन का भाव नहीं है। आजादी के कई दशक बाद रामविलास शर्मा को 'भारतीय साहित्य की भूमिका' में यह महसूस हुआ कि हिन्दी साहित्य को भारतीय साहित्य के परिप्रेक्ष्य में देखना चाहिए। उल्लेखनीय है रामविलास शर्मा ने यह बात तब कही जब हमारे देश में नयी सूचना और संचार तकनीकी का व्यवहार शुरू हो चुका था। नयी सूचना तकनीकी ने औपनिवेशिक ढ़ांचे को ध्वस्त करना शुरू कर दिया था। औपनिवेशिक ढ़ांचे को ध्वस्त करने के क्रम में ही इतिहास का पहले वाला स्वरूप अधूरा लगने लगा।
             भूमंडलीकरण के दौर में पुरानी औपनिवेशिक संरचनाएं और मान्यताएं तेजी से नष्ट होती हैं और नए किस्म की मिश्रित ग्लोबल और राष्ट्रीयचेतना सामने आती है। जातीयताओं के बीच में सहमेल और सम्मिश्रण की प्रक्रिया तेज होती है। राष्ट्र का ग्लोबल अर्थव्यवस्था से एकीकरण और राष्ट्रीय एकीकरण की प्रक्रिया तेज होती है,यही बृहत्तर प्रक्रिया है जिसके परिप्रेक्ष्य में रामविलास शर्मा ने भारतीय साहित्य के परिप्रेक्ष्य में हिन्दी साहित्य के इतिहास को देखने पर जोर दिया । पहले के इतिहास के केन्द्र में सिर्फ हिन्दीभाषी क्षेत्र का साहित्य ही इतिहास में शामिल है । गैर हिन्दीभाषी क्षेत्र का हिन्दी साहित्य इस इतिहास का हिस्सा नहीं है। इसमें देशी-विदेशी हिन्दी साहित्य भी शामिल नहीं है।
        हिन्दी साहित्य का इतिहास जब आया था तब से लेकर आज तक साहित्य के उपभोग का पैटर्न बदला है। विगत 75 सालों में सिनेमा और 1984 के बाद से टेलीविजन के द्वारा साहित्यिक कृतियों का जितने बड़े पैमाने पर उपभोग हुआ है उसने साहित्य के वर्गीकरण को प्रभावित किया है। जनप्रियता के मानक बदले हैं। आचार्य रामचन्द्रशुक्ल ने श्रेष्ठ और निम्नजन के साहित्य की केटेगरी को केन्द्र में रखकर इतिहास लिखा। बाजारू जनप्रिय साहित्य को साहित्य की कोटि में नहीं रखा,इसका आदर्श उदाहरण है देवकीनंदन खत्री के उपन्यासों को उपन्यास के रूप में स्वीकार न करना। किंतु प्रेस ने उपन्यास को जनप्रियता दी, सिनेमा ने नयी कलात्मक अभिव्यक्ति दी। बृहत्तर जनता को पाठक अथवा दर्शक के रूप में मुहैयया कराया।
    आज प्रेस ,सिनेमा और टीवी में जिस विधा का प्रयोग होने लगता है वही विधा बाद में किताब की शक्ल में साहित्यकारों और पाठकों की मेज पर दिखाई देती है। मसलन् व्यंग्य,संपादक के नाम पत्र,निजी पत्राचार, धारावाहिक उपन्यास, निजी डायरी, कॉमिक्स, भावानुवाद, भाषान्तरण,अनुवाद आदि ऐसे ही विधा रूप हैं जिन्हें मासमीडिया ने पैदा किया और आज ये सब साहित्य की शोभा बढ़ा रहे हैं। क्या इनके आधार पर इतिहास नहीं लिखा जाएगा ? आज पहले वाला साहित्य का वर्गीकरण,नामकरण अर्थहीन हो गया है।

एक जमाना था साहित्यकार और  इतिहासकार दैनन्दिन जीवन के रूपायन को साहित्य नहीं मानते थे। उससे कुछ हटकर होने पर ही साहित्य बनता था,किंतु आज स्थिति एकदम विपरीत है आज दृश्य और श्रव्य माध्यमों से लेकर प्रिंट तक दैनन्दिन जीवन का रूपायन ही सबसे बड़ी अंतर्वस्तु है। दैनन्दिन जीवन ही साहित्य की अंतर्वस्तु का प्रमुख स्रोत है। साहित्य दैनन्दिन जीवन के रूपायन से किनाराकशी नहीं कर सकता।
    आज हम इलैक्ट्रनिक मीडिया और इंटरनेट के युग में हैं। इस दौर में तथ्य और कल्पना का अंतर खत्म हो जाता है। यह इंटरेक्टिव तकनीक का युग  है ,इसके कारण पाठ पूरी तरह खुला और पारदर्शी है। बागी पाठ बड़ी मात्रा में सामने आ रहा है। परंपरागत इतिहास में अनुगामी पाठ सामने लाता है, मौजूदा युग में गैर अनुगामी पाठ सामने आ रहा है। यह ऐसा पाठ है जिसका निरंतर संशोधन और परिवर्द्धन किया जा सकता है। यह सुविधानुसार परिवर्तन की सीमा के परे का पाठ है। अब पाठ की हैसियत बदल गयी है। हाइपरटेक्स्ट इस दिशा में उठा सबसे बड़ा कदम है।

शुक्लजी का इतिहास प्रेस,पाठ और राष्ट्र-राज्य के परिप्रेक्ष्य में लिखा गया था। आजादी के बाद का इतिहास इलैक्ट्रोनिक मीडिया,सैटेलाइट और हाइपरटेक्स्ट के परिप्रेक्ष्य में पढ़ा जाना चाहिए। इतिहास के पुराने मानक अप्रासंगिक हो गए हैं। लेखक- पाठक के बीच का भेद  पूरी तरह खत्म हो चुका है। शुक्लजी के यहां यह भेद है। इसके अलावा 'ग्रहण' और इतिहास की 'सीमाओं' को भी यह दौर पूरी तरह खारिज करता है।
   



मंगलवार, 23 फ़रवरी 2010

हिन्दी साहित्य में निजी और सार्वजनिक वातावरण की पेचीदगियां




 नया बुर्जुआ सार्वजनिक परिवेश वह है जिसमें निजी लोग जनता के रूप में शामिल होते हैं। ऐसा पहलीबार होता है और यह अभूतपूर्व है। इस सार्वजनिक परिवेश के एक ओर नागरिक समाज और परिवार है और दूसरी ओर सरकारी तंत्र से जुड़े लोग हैं। बुर्जुआ सार्वजनिक परिवेश में साहित्यिक,सांस्कृतिक और राजनीतिक परिवेश भी शामिल है।  बुर्जुआ परिवेश ने संस्कृति को बहस की चीज बनाया और बिकाऊ माल की तरह बेचा। इस अवस्था में साहित्यिक परिवेश की भूमिका राजनीतिक क्षेत्र में दबाब बनाने वाले की होती है। इसके जरिए आलोचनात्मक प्रशिक्षण का आधार तैयार किया जाता है, जो अभी तक आत्माभिव्यक्ति का क्षेत्र था।
    निजी जीवन के विशिष्ट अनुभवों की सार्वजनिक अभिव्यक्ति पर जोर दिया जाता है। किंतु विशिष्ट निजी का उदय तब तक संभव नहीं है जब तक निजी परिवेश का नया रूप पैदा न हो। पितृसत्तात्मक सद्भावनापूर्ण परिवार का आंतरिक संसार सामने आ जाता है,निजी जैसी कोई चीज नहीं बचती।इस प्रक्रिया को सघन बनाने में व्यक्तिवाद की बड़ी भूमिका है। फलत: ऑडिएंस केन्द्रित निजी व्यक्ति को बढ़ावा दिया गया। ऑडिएंस केन्द्रित निजी व्यक्ति को बढ़ावा देने का सीधा संबंध संस्कृति के वस्तुकरण की प्रक्रिया से है, यह प्रक्रिया बहस का माहौल बनाती है। निजी मसलों को बहसतलब बनाती है और इसी के अनुरूप राजनीतिक संस्कृति भी पैदा करती है।
     नया वातावरण का मूल तत्व है आत्मप्रशंसा अथवा निजी गुणगान।  कथासाहित्य में आत्मगत भावनाओं की अभिव्यक्ति में इसका व्यापक प्रसार सहज ही देखा जा सकता है। अभिव्यक्ति का यह रूप प्रेस की प्रकृति में आसानी से फिट बैठता है। यही साहित्य में भी अपील बनाता है। इससे साहित्य को बृहत्तार पाठकवर्ग तक पहुँचने में मदद मिलती है।
      आजादी के बाद का जो सार्वजनिक वातावरण बना है उसकी सबसे बड़ी उपलब्धि है समानता की अवधारणा का जनप्रिय होना और संविधान की नजर में सबको समानता प्राप्त है,इस चीज का जनप्रिय बनना। आजादी के पहले वैषम्य के प्रचार पर जोर था। आजादी के बाद समानता पर जोर है। आज हमारे देश में समानता मूल्य का रूप अर्जित कर चुकी है। आप किसी भी जाति,धर्म आदि के हों,कोई भी सामाजिक हैसियत रखते हों ,संस्थान की नजरों में समान हैं। दूसरा बड़ा परिवर्तन यह आया है कि अनेक सामाजिक समुदायों ने अपने को धर्म की पकड़ या गिरफ्त से बाहर कर लिया है। ये लोग नए साझा मीडियाजनित तार्किक और वाचिक संचार के आधार पर संवाद और संपर्क कर रहे हैं। तीसरा बड़ा परिवर्तन यह हुआ है कि आप चाहे जितना छिपाएं कोई भी चीज छिपने वाली नहीं है।  आमलोगों में चर्चा के केन्द्र में रहेगी और उसके तथ्यों और तर्कों से वे वाकिफ होंगे।  अब प्रत्येक के जीवन में व्यक्ति शिरकत कर सकता है।  प्रत्येक चीज प्रचार के केन्द्र होगी और सार्वभौम और विशिष्ट होगी।
     निजी परिवेश का बहुत गहरा संबंध निजी संपत्ति संबंधों से है। व्यक्ति की निजता और निजी संपत्ति के बीच गहरा संबंध है। यह संबंध ही है जो बुर्जुआ परिवेश के मॉडल में तनाव बनाए रखता है। अमूर्त नैतिक तर्कों और ठोस तार्किकता के बीच फांक बनाए रखता है। प्राइवेसी और परिवार के साथ बाजार की जरूरतों के अनुसार संबंध बनता है। व्यक्ति की निजी अस्मिता जो सार्वजनिक जीवन में दिखाई देती है,उसको मानवीयता के आधार पर नहीं बल्कि संपत्ति और हैसियत के आधार पर देखा जाता है।
     संपत्ति,आय,साक्षरता,सांस्कृतिक पृष्ठभूमि आदि मुख्य बाधाएं हैं जिनके कारण लोग सार्वजनिक बुर्जुआ परिवेश में शिरकत करने में बाधाएं महसूस करते हैं। इसके कारण औरत,अल्पसंख्यक और दलित की शिरकत भी प्रभावित होती है। ये असल में आधुनिकता के छंटनी के उपकरण हैं। फलत: बुर्जुआ सार्वजनिक वातावरण में समानता और शिरकत के क्षेत्र में आंशिक सफलता मिलती है। कल्याणकारी पूंजीवाद में हमें उन पक्षों पर सोचना चाहिए जो छांट दिए जाते हैं अथवा अचर्चित हैं।
    
छंटनी के बिना आधुनिकता तैयार नही होती। छंटनी आधुनिकता की धुरी है। आधुनिकता में किसी चीज का शामिल होना अपने आप में बड़ी चीज नहीं है बल्कि छंटनी बड़ी चीज है। हिन्दी आलोचना में छंटनी के उपकरण् व्यापक प्रयोग मिलता है। यह उपकरण आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के जमाने से ही जमकर इस्तेमाल होता रहा है। छंटनी के उपकरण का अंतत: असर यह हुआ कि आज आलोचना और आलोचक पूरी तरह हाशिए पर चले गए हैं।  अब ज्यादा बेहतर आलोचना वे लोग लिख रहे हैं जो पेशेवर आलोचक नहीं हैं, साहित्य के पेशेवर रक्षक अथवा संरक्षक नहीं हैं।
      




सोमवार, 22 फ़रवरी 2010

लोकतांत्रिक आलोचना का परिवेश

आंतरिक गुलामी से मुक्ति के प्रयासों के तौर पर तीन चीजें करने की जरूरत है, प्रथम, व्यवस्था से अन्तर्ग्रथित तानेबाने को प्रतीकात्मक पुनर्रूत्पादन जगत से हटाया जाए, दूसरा, पहले से मौजूद संदर्भ को हटाया जाए ,यह हमारे संप्रेषण के क्षेत्र में सक्रिय है। तीसरा, नए लोकतांत्रिक जगत का निर्माण किया जाए जो राज्य और आधिकारिक व्यवस्था के ऊपर मानवीय जीवन के नियंत्रण को स्थापित करे। साथ ही उन तमाम आन्दोलनों की भी पहचान करनी चाहिए जो मुक्तिकामी हैं।
     आजादी के बाद जो समाज पैदा हुआ उसमें स्वतंत्र प्रेस था, लोकतांत्रिक सरकार थी, क्लब ,सभा , सोसायटी , राजनीतिक तौर पर लोकतांत्रिक संरचनाएं थी, स्वतंत्र न्यायपालिका थी,मीडियाजनित मनोरंजन था। किंतु उदारीकरण और ग्लोबलाइजेशन के आने के बाद से खासकर 1980 के बाद से लोकतंत्र में गिरावट दर्ज की गई।

आपात्काल में 25जून 1975 से 1977 फरवरी तक का दौर अधिनायकवाद के अनुभव को झेल चुका था। इसके कारण लोकतंत्र पर खतरा साफ नजर आ रहा था। आपात्काल का अनुभव बेहद खराब था, उसके बाद लोकतंत्र को सत्ता के तंत्र के जरिए नियंत्रित करने की बजाय आंतरिक तौर पर नियंत्रित करने का निर्णय लिया गया। लंबे समय तक पंचायतों के चुनाव स्थगित रहे। बाद में अदालत के हस्तक्षेप के बाद पंचायती व्यवस्था को सुचारू रूप से स्थापित किया जा सका।

आपात्काल के दौर में प्रत्यक्ष गुलामी थी जिसका बुद्धिजीवियों के एक तबके ने स्वागत किया। ये वे लोग थे जो कल्याणकारी पूंजीवाद राज्य के तहत मुक्ति के सपने देख रहे थे अथवा कल्याणकारी राज्य के संरक्षण में मलाई खा रहे थे।  आपात्काल के बाद आम जिंदगी को आंतरिक तौर पर गुलाम बनाने की प्रक्रिया तेज हो गयी। आंतरिक गुलामी से लड़ना बेहद जटिल हो गया। आंतरिक गुलामी प्रत्यक्ष गुलामी से भी बदतर होती है।
     अब हमने इस चीज पर विचार करना बंद कर दिया है कि किसी विषय पर विचार विमर्श का सामाजिक  और राजनीतिक संस्थानों के ऊपर क्या असर होता है ? क्या संबंधित विमर्श का माहौल पहले से मौजूद था ?
        
हिन्दी में आधुनिकता की जितनी भी बहस है वह आंतरिक गुलामी की प्रक्रियाओं को नजरअंदाज करती है। मध्यकालीन मूल्यों और मान्यताओं का महिमामंडन करती है। यह काम परंपरा और इतिहास की खोज के नाम पर किया गया,इस तरह जाने-अनजाने कल्याणकारी राज्य की वैचारिक सेवा हुई। परंपरा और इतिहास सर्वस्व है की बजाय सामयिक साहित्य और आलोचना पद्धति का विकास किया गया होता तो ज्यादा सार्थक चीजें सामने आतीं। परंपरा और इतिहास पर चली बहसों ने हिन्दी विभागों में मध्यकालीन मान्यताओं और मूल्यों को और भी पुख्ता बनाया।
      
आधुनिककाल में धर्म को सार्वजनिक परिवेश का हिस्सा नहीं माना जाता था,यही वजह है कि सार्वजनिक स्थान के तौर पर मंदिरों मेंअसवर्णों के प्रवेश को लेकर आन्दोलन हुए। सार्वजनिक पुनर्परिभाषित हुआ। धर्म भी पुनर्परिभाषित हुआ। धीरे-धीरे धर्म सामाजिक हैसियत का प्रतीक बन गया। नये सार्वजनिक वातावरण की विशेषता है स्वयं का प्रदर्शन। स्वयं को किसी बड़ी ताकत के प्रतिनिधि के रूप में पेश करना।
    
प्रतिनिधित्व हमेशा सार्वजनिक होता है। निजी विषयों पर प्रतिनिधित्व नहीं हो सकता। यह तत्व मूलत:सामंती है। सामंती दौर में प्रतिनिधित्व को सार्वजनिक माना गया । निजी विषय के प्रतिनिधित्व करने की अनुमति नहीं थी। प्रतिनिधित्व में प्रचार बुनियादी चीज है। प्रतिनिधित्व करने वाले लोग जब आधुनिक राष्ट्र-राज्य का अंग बने उस समय प्रतिनिधित्व राजनीतिक संचार का हिस्सा नहीं था और न इसके लिए किसी स्थायी जगह की जरूरत थी। बल्कि यह सत्ता के प्रतिनिधियों के द्वारा नियोजित ऑडिएंस के सामने पेश की गई प्रस्तुति थी। जिसमें सामंती विषयों को समायोजित कर लिया गया था।
    आजकल मध्यकाल नहीं है अत: सामंत लोग अपनी सत्ता,अधिकार और प्रभाव का वैसा प्रदर्शन नहीं कर पाते जैसा वे मध्यकाल में करते थे। अत: उन्होने नए सिरे से अपनी शक्ति ,सत्ताा और अधिकार का प्रदर्शन के तरीके निकाल लिए हैं। वे अब मेले,सार्वजनिक आयोजनों,सार्वजनिक दावतों,शादी-ब्याह,टीवी टॉक शो आदि में शरीक होते हैं,  वे लोग उन तमाम आयोजनों और कार्यक्रमों में शरीक होते हैं जिनका दृश्य मूल्य है। 

शनिवार, 20 फ़रवरी 2010

गुलामी से मुक्ति का अवरुद्ध मार्ग



कल्याणकारी राज्य के आने के साथ सार्वजनिक और निजी के बीच का भेद कम होने लगता है। कल्याणकारी राज्य वस्तुओं की खपत,मांग,आकांक्षा आदि को बढ़ावा देता है ,उपभोक्ता के असंतोष में इजाफा करता है। वस्तुओं के उपभोग में इजाफा और उपभोक्ता असंतोष को विस्तार देता है। वस्तुओं के उपभोग में वृद्धि और नागरिक अधिकारों का क्षय, पत्रकारिता का मासमीडिया में रूपान्तरण, सार्वजनिक वातावरण के प्रति सम्मानभाव, निजता की उपेक्षा, राजनीतिक दलों में नौकरशाहाना रवैयये का विकास, साहित्य में सैलेबरेटी भाव,पूजाभाव,समाज और साहित्य से आलोचना का अलगाव,साहित्य और पाठक के बीच महा-अंतराल कल्याणकारी राज्य की सौगात है।  कल्याणकारी राज्य में नौकरशाही सबसे ज्यादा ताकतवर और आम जनता शक्तिहीन होती है। कल्याणकारी राज्य आम जनता को निरस्त्र बनाता है। प्रतिरोधहीन बनाता है। जो लोग सोचते हैं कि आज की तुलना में कल्याणकारी राज्य ठीक था, वे गलत सोचते हैं, कल्याणकारी रास्ते से ही परवर्ती पूंजीवाद का विकास होता है। कल्याणकारी राज्य स्वभावत: बर्बर होता है। आपात्काल को कल्याणकारी राज्य ने ही लागू किया था। आपात्काल में ही हमारे संविधान में बदनाम 44वें संविधान संशोधन के द्वारा संविधान के आमुख में धर्मनिरपेक्षता और समाजवाद जोड़े गए थे।
कल्याणकारी नीतियों के कारण जीवन के बुनियादी क्षेत्रों शिक्षा,स्वास्थ्य, परिवार कल्याण,पानी,बिजली आदि क्षेत्रों की समस्त संरचनाएं खोखली हो जाती हैं। इसका असर साहित्य और अन्य कलारूपों पर भी पड़ता है ऐसा साहित्य और आलोचना बड़ी मात्रा में सामने आता है जो कृत्रिम है अथवा निर्मित है अथवा खोखली अवधारणाओं को व्यक्त करता है। अब हम निर्मित आलोचना को ही वास्तव आलोचना समझने लगते हैं। सारी मुश्किलें आलोचना के इसी रूप के गर्भ से पैदा हो रही हैं। उल्लेखनीय है निर्मित साहित्य,निर्मित आलोचना मूलत: स्टीरियोटाइप आलोचना है। इसका समाज की वास्तविकता,साहित्य की वास्तविकता और आम जनता के जीवन की वास्तविकताओं के साथ कोई संबंध नहीं है। मजेदार बात यह है जो आलोचना के पुरस्कत्तर्ाा हैं वे ही निर्मित आलोचना के भी सर्जक हैं।
                कल्याणकारी राज्य प्रतीकात्मक सामाजिकीकरण करता है। व्यवस्था से जोड़े रखता है। कल्याणकारी राज्य के संस्थान प्रतीकात्मक भूमिका निभाते हैं। प्रतीकात्मक भूमिका की ओट में बर्बरता, मूल्यहीनताऔर आंतरिक उपनिवेशवाद का निर्माण किया जाता है।  कल्याणकारी राज्य के लक्ष्यों से नाभिनालबध्द आलोचना का लक्ष्य है आलोचनात्मक विवेक से मनुष्य को मुक्त करना ,आलोचना के वातावरण को नष्ट करना और मनुष्य को आंतरिक तौर पर गुलाम बनाना। अब जीवन और व्यवस्था के बीच 'पैसा' और 'पावर' के नियम निर्णायक भूमिका अदा करने लगते हैं। वे जीवन के आंतरिक आयामों में गहरे पैठ बना लेते हैं।
      अर्थव्यवस्था और प्रशासनिक संरचनाओं के द्वारा सार्वजनिक और निजी को मातहत बनाकर रखने का भाव खत्म हो जाता है। अब प्रशासन के द्वारा तय मूल्य,नियम,मान्यताएं व्याख्याओं आदि का दैनन्दिन जीवन में महत्व खत्म हो जाता है। मजदूरवर्ग  और नागरिकों की जीवनमूल्यों ,आंतरिक जिंदगी और व्यवस्था को प्रभावित करने की क्षमता खत्म हो जाती है। अब नए किस्म का विरेचन शुरू हो जाता है।  अब नागरिक की बजाय उपभोक्ता और ग्राहक महान बन जाता है। अब मूल्याधारित परिवर्तनों की बजाय भेदपूर्ण संचार का संदर्भ भूमिका अदा करने लगता है। सांस्कृतिक संसाधनों में नए सिरे से प्राणसंचार संभव नहीं रहता। अब सांस्कृतिक संसाधन व्यक्तिगत और सामुदायिक की प्रतीकात्मक पहचान का हिस्साभर बनकर रह जाते हैं।  प्रतीकात्मक पुनर्रूत्पादन अस्थिर हो जाता है। अस्मिता के लिए खतरा पैदा हो जाता है और सामाजिक संकट की आम फिनोमिना के तौर पर फूट पड़ता प्रवृत्ति है।
     उल्लेखनीय है कल्याणकारी राज्य शीतयुध्द के परिप्रेक्ष्य में विकसित होता है जिसका हमारे समूचे चिन्तन पर असर पड़ता है। आलोचना से लेकर राजनीति तक सभी क्षेत्रों में शीतयुध्दीय केटेगरी और अवधारणाओं का उत्पादन और पुनर्रूत्पादन बढ़ जाता है।  हिन्दी के सन् 1972-73 के बाद के प्रगतिशील साहित्य,नयी कविता, जनवादी साहित्य,आधुनिकतावादी साहित्य पर शीतयुध्द की अवधारणाओं का गहरा असर साफ तौर पर देखा जा सकता है।
    कल्याणकारी राज्य में आंतरिक उपनिवेशवाद के कारण नए किस्म के अन्तर्विरोध और संकट पैदा होते हैं। नयी उन्नत तकनीक के आने के कारण पेशेवर पहचान बदलती है , निजी जीवन में पैसे की भूमिका निर्णायक हो जाती है। उपभोक्ता की भूमिका बढ जाती है। वर्गसंघर्ष और बुर्जुआ क्रांति के कार्यभारों को कल्याणकारी राज्य स्थगित कर देता है। अब मजदूर संघर्ष नहीं करते बल्कि ज्यादा से ज्यादा अन्य गैर बाजिव समस्याओं में मशगूल रहते हैं।  संकट को प्रतीकात्मक तौर पर भौतिक पुनर्रूत्पादन का विरोध करते हुए सम्बोधित किया जाता है। फलत: नए किस्म के मुक्तिसंग्राम शुरू हो जाते हैं। ऐसे संग्राम सामने आ जाते हैं जिनके बारे में पहले कभी सोचा नहीं था । इन तमाम संग्रामों का बुनियादी आधार है आंतरिक गुलामी से मुक्ति। स्त्री मुक्ति, दलित मुक्ति,स्त्री साहित्य,दलित साहित्य ,पर्यावरण संरक्षण, जल संरक्षण आदि ऐसे ही नए प्रसंग हैं।


शुक्रवार, 19 फ़रवरी 2010

कल्याणकारी पूंजीवादी राज्य, मासकल्चर और साहित्य

        हिन्दी साहित्य में नए मूल्यों और मान्यताओं के प्रति संदेह,हिकारत और अस्वीकार का भाव बार-बार व्यक्त हुआ है। इसका आदर्श नमूना है परिवार के विखंडन खासकर संयुक्त परिवार के टूटने पर असंतोष का इजहार। एकल परिवार को अधिकांश आलोचकों के द्वारा सकारात्मक नजरिए से न देख पाना। सार्वजनिक और निजी जीवन में 'तर्क' की बजाय 'अतर्क' के प्रति समर्पण और महिमामंडन। जादी के बाद की आलोचना की केन्द्रीय कमजोरी है कल्याणकारी राज्य की सही समझ का अभाव। सार्वजनिक और निजी के रूपान्तरण की प्रक्रियाओं का अज्ञान। सच यह है कि कल्याणकारी पूंजीवादी राज्य की सांस्कृतिक भूमिका के बारे में हमने कभी विचार नहीं किया गया। उलटे कल्याणकारी राज्य का महिमामंडन किया। अथवा उसे एकसिरे से खारिज किया।

            प्रशंसा और खारिज करना ये दोनों ही अतिवादी नजरिए की देन हैं। इनका सही समझ के साथ कोई संबंध नहीं है। कल्याणकारी पूंजीवादी राज्य का अर्थ सब्सीडी, राहत उपायों  अथवा सार्वजनिक क्षेत्र के कारखानों का निर्माण करना ही नहीं है। अपितु कल्याणकारी राज्य आंतरिक गुलामी भी पैदा करता है। कल्याणकारी राज्य ने दो बड़े क्षेत्रों के चित्रण पर जोर दिया पहला-परिवार,इसमें भी मध्यवर्गीय परिवार पर जोर रहा है, चित्रण का दूसरा क्षेत्र है राजसत्ता और बाजारस्वातंत्र्योत्तर अधिकांश साहित्य इन दो क्षेत्रों का ही चित्रण करत है। 
   
सवाल उठता है कल्याणकारी राज्य हो और आंतरिक गुलामी न हो ? कल्याणकारी राज्य के परिप्रेक्ष्य में साहित्य के प्रति क्या नजरिया होना चाहिए ? साहित्य को प्रदर्शन की चीज बनाया जाए, अथवा आलोचनात्मक वातावरण बनाने का औजार बनाया जाए ? कल्याणकारी राज्य में 'सार्वजनिक' और 'निजी' स्पेयर या वातावरण का क्या रूप होता है ? इसके दौरान किस तरह का साहित्य लिखा जाता है ? किस तरह के मुद्दे बहस के केन्द्र में आते हैं ? साहित्य की धारण,भूमिका और प्रभाव की प्रक्रिया में किस तरह के परिवर्तन आते हैं ?
     कल्याणकारी राज्य साहित्य को 'सेलीबरेटी',प्रदर्शन,नजारे,तमाशे,बहस आदि की केटेगरी में पहुँचा देता है, कृति और साहित्यकार को सैलीबरेटी बना देता है। अब साहित्य और साहित्यकार के प्रदर्शन और सार्वजनिक वक्तव्य का महत्व होता है किंतु उसका कोई असर नहीं होता।

लेखक का बयान अथवा कृति को साहित्येतिहास का हिस्सा माना जाता है। उसका सामाजिक -राजनीतिक तौर पर गंभीर असर नहीं होता, लेखक की जनप्रियता बढ़ जाती है। किंतु सामाजिक संरचनाओं पर उसका प्रभाव नहीं होता। साहित्य और लेखक अप्रभावी घटक बनकर रह जाता है। लिखे का सामाजिक रूपान्तरण नहीं हो पाता।

आप लिखे पर बहस कर सकते हैं किंतु भौतिक,सामाजिक और सांस्कृतिक शक्ति के रूप में उसे रूपान्तरित नहीं कर सकते। अब साहित्य और साहित्यकार दिखाऊ माल बनकर रह जाते हैं। आलोचना का उपयोगितावाद के साथ चोली-दामन का संबंध बन जाता है। अब साहित्यालोचना उपयोगिता के नजरिए से लिखी जाती है,आलोचकगण सामयिक मंचीय जरूरतों के लिहाज से बयान देते हैं। यह एक तरह का साहित्यिक प्रमोशन है। साहित्य प्रमोशन और तद्जनित आलोचना का मासकल्चर के प्रसार के साथ गहरा संबंध है। मासकल्चर का प्रसार जितना होगा साहित्य में प्रायोजित आलोचना का उतना ही प्रचार होगा। प्रायोजित आलोचना मासकल्चर की संतान है।
                 
                भारत में कल्याणकारी राज्य का उदय साम्राज्यवाद के साथ आंतरिक अन्तर्विरोधों के गर्भ से हुआ । राज्य और जनता के संबंधों के बीच में गहरी गुत्थमगुत्था चल रही थी और सार्वजनिक और निजी में तनाव था, राज्य और जनता के बीच पैदा हुए संकट के 'प्रबंधन' तंत्र के रूप में कल्याणकारी राज्य का उदय हुआ। इस संकट के समाधानों को उपभोग और बाजार के तर्कों के बहाने हल करने की कोशिश की। उपभोग और बाजार की प्रबंधन में केन्द्रीय भूमिका रही है। संकट के प्रबंधन की इस पध्दति का लक्ष्य था राज्य निर्देशित सार्वजनिक वातावरण तैयार करना,सार्वजनिक क्षेत्र खड़ा करना, आमजनता को संकट से बचाने के लिए राहत देना, कल्याणकारी राहतों के तौर पर मजदूर संगठनों और सामाजिक आन्दोलनों को राहत देना।

आधुनिककाल का सार्वजनिक वातावरण


आधुनिकाल के आगमन के साथ विभिन्न किस्म के विनिमय रूपों का व्यापक विकास हुआ। परिवारों के बीच में विनिमय। वस्तुओं का विनिमय। वफादारी,आज्ञाकारिता और करवसूली आदि प्रशासन की नीतियों के परिणाम थे। राज्य और जनता के बीच में भी व्यापक विनिमय की प्रक्रिया शुरू हुई। एकल परिवार अच्छा परिवार था, सकारात्मक कदम था, किंतु भारत में इसका असमान ढ़ंग से विकास हुआ। एकल परिवार को हिन्दी क्षेत्र में आजादी के बाद ही विकास का मौका मिला। उसे संदेह और घृणा की नजर से देखा गया। सार्वजनिक व्यवस्था राज्य नियंत्रित थी । इसके विपरीत निजी व्यवस्था और निजी वातावरण का नियंत्रण राज्य नहीं करता था। निजी वातावरण और निजता का नियंत्रण पुराने मूल्यों के हवाले था। निजता पर प्राचीनता हावी थी। बड़ा ही सुंदर दायित्व विभाजन आजादी पूर्व के दौर में मिलता है सार्वजनिक वातावरण आधुनिक सत्ताा की शक्तियों के जिम्मे था तो निजी वातावरण प्राचीनतापंथियों के जिम्मे था। यह सार्वजनिक और निजी का 'व्यवस्था' के स्तर पर किया गया विभाजन था।
     नए उपभोक्तावर्ग का उदय हुआ। पहलीबार औरतों के निजी और सार्वजनिक वातावरण के बारे में विस्तार के साथ आमजीवन में बहस शुरू हुई। मध्यकाल में औरतों के सार्वजनिक और निजी में भेद नहीं था। उसे लेकर बहस भी नहीं थी। रैनेसां में औरतों की सामाजिक शिरकत को लेकर बहस शुरू हुई, औरतों के सवालों को सार्वजनिक तौर पर उठाया गया। मजदूरवर्ग का उदय हुआ। मजदूरवर्ग की भूमिका परिभाषित की गई। निजी अर्थव्यवस्था और सार्वजनिक अर्थव्यवस्था में अंतर किया गया। मजदूरवर्ग के उदय का अर्थ है मर्दानगी के नए युग का उदय।मर्दानगी पहले घरेलू जीवन में वर्चस्व बनाए हुए थी अब यह मजदूरवर्ग और पूंजीपतिवर्ग के रूप में सार्वजनिक जीवन में वर्चस्व बनाए हुए है। पूंजीवादी व्यवस्था मजदूरवर्ग को आर्थिक और सांस्कृतिक तौर पर पामाल करती है।  मनोवैज्ञानिक तबाही लेकर आती है।
             
        मजदूरवर्ग की मर्दानगी के कारण औरतों को श्रम के लिए समान वेतन और सुविधाएं नहीं मिलीं। सहयोगी कार्यों के तौर पर औरतों के श्रम को देखा गया। औरतों के कार्य का स्त्रीकरण किया गया और स्त्री के काम को सेवाक्षेत्र के रूप में देखा गया। स्त्रीसेवा कार्यों  में सचिव,घरेलू नौकरानी, सेल्सगर्ल, वेश्या,हाल ही में हवाई यात्राओं और दूरसंचार के क्षेत्र में भी औरत को देख सकते हैं।

        साथ ही औरतों के सहयोगीकर्म के रूप में स्त्री के मातृत्ववाले गुणों से जुड़े कार्यों को रखा गया। जैसे नर्स,सामाजिक कार्यकर्त्त, आया, प्राइमरी स्कूल शिक्षिका आदि। औरतों के उत्पीड़न के भी क्षेत्र तय रहे हैं जैसे शारीरिक उत्पीडन, कम मजदूरी, कम कौशल का काम,पार्टटाइम नौकरानी, दो शिफ्टों में काम करने वाले मजदूर ,दोनों शिफ्टों में काम करने वालों में बंधुआ घरेलू नौकर, वेतनभोगी घरेलू नौकर दोनों ही शामिल हैं। मजदूरों में मजदूरनी को दोयमदर्जा दिया गया। इसके अलावा लिंगाधारित कार्यक्षेत्र आ गए जिनमें कामकाजी माँ, कामकाजी पत्नी आदि पदबंधों का प्रयोग चल निकला इन पदबंधों का अर्थ है कि जो औरत काम कर रही है वह प्राथमिकतौर पर मॉ है और कमाई के लिए घर से बाहर निकली है। जिससे पूरक के रूप में कुछ कमाई कर सके। ये सारी चीजें मिलकर आजादी के पहले का सार्वजनिक वातावरण  बनाती हैं।     
    आजादी के बाद भारत विभाजन,साम्प्रदायिक हिंसाचार, लाखों लोगों का कत्ल। लोकतंत्र का आगमन। लोकतांत्रिक संरचनाओं का निर्माण। लोकतांत्रिक मूल्यों,नियमों आदि के प्रति वचनवध्दता। नए वर्ग के तौर पर क्षेत्रीय पूंजीपतिवर्ग का उदयठेकेदारइंजीनियरडाक्टर,राजनीतिज्ञ आदि पेशेवर तबकों का उदय और विस्तार। संरचनाओं में नए और पुराने का द्वंद्व। न्यायपालिका और कार्यपालिका में पुराने मूल्यों और रूढियों के प्रति गहरी आस्था, संविधान में पर्सनल लॉ के रूप में 750 से ज्यादा समुदायों के निजी कानूनों का बने रहना।  सामाजिक जीवन में पुराने मूल्यों,रीति-रिवाजों,मान्यताओं आदि को संविधान के द्वारा खुला संरक्षण। इसका समूचे सार्वजनिक और निजी जीवन पर दुष्प्रभाव पड़ा। संविधान में पितृसत्ता और मर्दानगी को सर्वोच्च दर्जा और उसका महिमामंडन किया गया। इसने सार्वजनिक और निजी को नए सिरे से नियमित किया और निजता को विकसित ही नहीं होने दिया। निजता का व्यापक विकास तब ही हो पाया जब हम भूमंडलीकरण के दौर में दाखिल होते हैं। सार्वजनिक वातावरण के नाम उपभोक्तावादी वातावरण बनाने पर ज्यादा जोर दिया गया इसके कारण पितृसत्ता को नयी ऊर्जा मिली।
       

गुरुवार, 18 फ़रवरी 2010

साहित्य,सम्प्रेषण तकनीक और जनतंत्र

                                             (तेज कम्प्यूटर )

साहित्य को समाज के साथ देखना,समाज की देन मानना,पुराना नजरिया है।हमारे आलोचक लंबे समय तक इस नजरिए के शिकार रहे हैं। साहित्य के नए नजरिए का संबंध सम्प्रेषण तकनीक से है। साहित्य कैसा है ? साहित्य की मुख्य समस्याएं क्या हैं ? साहित्य का प्रयोजन क्या है ? साहित्य की भूमिका क्या है ? साहित्यकार का प्रयोजन क्या है ?इन सारे सवालों के जबाव इस समझ पर टिके हैं कि समाज में सम्प्रेषण के साधन किस तरह के हैं।

साहित्य की नयी धारणा का सम्प्रेषण तकनीक के नए रूपों के साथ गहरा संबंध है। हिन्दी साहित्य के इतिहास में हजारीप्रसाद द्विवेदी पहले इतिहासकार हैं जो साहित्य के नए उभार को कम्युनिकेशन की तकनीक के साथ जोड़कर देखते हैं।

आधुनिक काल में गद्य- युग के आरंभ में आधुनिकता के आगमन को उन्होंने प्रेस के आगमन से जोड़ा,उन्होंने लिखा '' वस्तुत: साहित्य में आधुनिकता का वाहन प्रेस है और उसके प्रचार के सहायक हैं:यातायात के समुन्नत साधन। पुराने साहित्य और नए साहित्य का प्रधान अंतर यह है कि पुराने साहित्यकार की पुस्तकें प्रचारित होने का अवसर कम पाती थीं।राजाओं की कृपा,विद्वानों की गुणग्राहिता,विद्यार्थियों के अध्ययन में उपयोगिता आदि अनेक बातें उनके प्रचार की सफलता का निर्धारण करती थीं।प्रेस हो जाने के बाद पुस्तकों के प्रचारित होने का काम सहज हो गया,और फिर प्रेस के पहले गद्य की बहुत उपयोगिता नहीं थी।प्रेस हो जाने के बाद उसकी उपयोगिता बढ़ गई और विविध विषयों की जानकारी देने वाली पुस्तकें प्रकाशित होने लगीं। वस्तुत:प्रेस ने साहित्य को जनतांत्रिक रुप दिया।’’
       
प्रेस के आगमन के पहले साहित्य में जनतंत्र नहीं था। आधुनिक काल के पहले साहित्य में जनतंत्र नहीं था,समाज में जनतंत्र नहीं था। प्रेस साहित्य में जनतंत्र की प्रतिष्ठा करता है।साहित्य को जनतांत्रिक बनाता है। इसके अलावा साहित्य को यदि प्रेस ने जनतांत्रिक बनाया है तो साहित्य के कालान्तर में विकसित रूपों के विकास में फिल्म, रेडियो, टीवी,इंटरनेट आदि का भी गहरा संबंध रहा है। इस पक्ष की कायदे से खोज की जानी चाहिए

 दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि संचार की आधुनिक तकनीक जनतांत्रिक प्रक्रिया को शक्ति देती है,जनतांत्रिक प्रक्रियाओं,जनतांत्रिक शक्तियों और जनतांत्रिक संस्थाओं को मजबूती प्रदान करती है। इसके अलावा हजारीप्रसाद द्विवेदी पहले आलोचक हैं जो संचार और परिवहन के नए रूपों और तकनीक को तटस्थ और समानतावादी भूमिका के रूप में नहीं देखते।

द्विवेदीजी ने लिखा है '' रेल तो सन् सत्तावन के विद्रोह का प्रमुख कारण थी और तार उस विद्रोह को दबाने का सफल अस्त्र साबित हुआ।'' इन साधारण सी दिखने वाली पंक्तियों में आधुनिक तकनीक का समग्र रहस्य छिपा है। आधुनिक तकनीक के रूप न तो तटस्थ होते हैं और न विचारधारा रहित होते हैं बल्कि वर्चस्व स्थापित करने के साधन हैं।शोषण के साधन हैं।साम्राज्यवादी वर्चस्व के साधन हैं। द्विवेदीजी ने रेल को बगावत का स्रोत बताया है, साथ ही तार को विद्रोह को दबाने का प्रधान अस्त्र बताया है। निष्कर्ष यह कि भारत में संचार और परिवहन के रूपों ने वर्चस्वका विकास किया।

एक अन्य संदर्भ में द्विवेदीजी ने लिखा '' अब मशीनों के उत्पात ने दुनिया बदल दी है। ...  छापे की कल ने कविता के व्यापक क्षेत्र को कई हिस्सों में बांट दिया है।कहानियों ने बहुत हिस्सा पाया है।उपन्यासों ने बहुत -कुछ हथिया लिया है। निबन्धों ने भी कम नहीं पाया है। समाचार-पत्रों ने - और विशेष रूप से मासिक पत्रों ने- कवि सम्मेलनों की कमर तोड़ दी है।कविता कान का विषय न होकर ऑंख का विषय हो गयी है।सुनना अब उतना महत्व नहीं रखता, पढ़ना अधिक महत्वपूर्ण हो गया है और इन्द्रिय-परिवर्तन के साथ -ही साथ कविता के आस्वाद्य  वस्तु में भी परिवर्तन हुआ है। ... छापे की कल ने हमें भावावेश पर से धकियाकर बुध्दि-प्रवाह में फेंक दिया है।'' यह भी लिखा '' जब तक दुनिया में छापे की मशीन नहीं थी तब तक मुक्त -छन्द भी नहीं थे।... समस्त संसार में मुक्त छन्द के प्रसार का कारण मशीनें हैं।''

प्रेस ने हमारी स्मृति को चिरस्थायी बनाया है। 'स्मृति' को नए आयाम दिए हैं। प्रेस के आने साथ ही 'पुस्तक' का जन्म होता है। 'पुस्तक' एक नया मीडियम हैइसके पहले हम पोथी के युग में थेनयी तकनीक के आने के बाद इधर के वर्षों में लोग पुस्तक के लोप के बारे में चर्चाएं कर रहे हैं। संक्षेप में यही कह सकते हैं कि नयी संचार तकनीक का पुस्तक से बैर नहीं है। नए कम्युनिकेशन के माध्यम पुराने माध्यमों को अप्रासंगिक नहीं बनाते,बल्कि उनकी गतिविधियां बढ़ा देते हैं।