आलोचक रामविलास शर्मा
स्वातंत्र्योत्तर दौर की केन्द्रीय विशेषता है फ्रेगमेंटेशन। परंपरागत राष्ट्रीय और जातीय वफादारियां खण्डित हो रही हैं। नए दौर में पाठक सबसे बड़ा व्याख्याकार है। आज साहित्य के सवाल ग्लोबल नेटवर्किंग , इलैक्ट्रोनिक मीडिया और इंटरनेट के सहयोग पर निर्भर हैं। इन माध्यमों से जो सामग्री आ रही है वह पाठकों से ऐतिहासिक और राष्ट्रीय और जातीय पहचान नहीं पूछ रही है और न राष्ट्रीय पहचान को केन्द्र में रखकर ही सामग्री तैयार की जा रही है। बल्कि ये सब सवाल पूछे बगैर सामग्री सप्लाई की जा रही है। आज साहित्य का इतिहास 'समानान्तरता' और 'जातीय उन्मोचन' की चुनौतियों का सामना कर रहा है। 'स्मृति' और 'कालावधि' के सवाल केन्द्र में आ गए हैं। सवाल यह है स्मृति को किस तरह बांटा जाएगा ? किसी भी अनुभव की कालावधि क्या है ? कब तक कोई अनुभव सक्रिय रहता है ? लोगों का नजरिया बदलता है तो क्या स्मृति भी बदलती है ? नजरिया बदलता है तो क्या अनुभव की कालावधि भी बदलती है ? नजरिया कैसे मनुष्य के स्थायीभाव का निर्माण करता है ? क्लोनिंग के कारण साहित्य के इतिहास में 'जेनरेशन'(पीढ़ी) और 'पीरियड'(कालावधि) ये दो अवधारणाएं महत्वपूर्ण हो उठी हैं। इनका पहले भी महत्व था आज भी महत्व है। परंपरागत इतिहास इन दोनों धारणाओं की संतोषजनक व्याख्या पेश नहीं करता।
साहित्येतिहास जबर्दस्त वैचारिक विवादों के गर्भ से पैदा हुआ है, इसी अर्थ में साहित्येतिहास वैचारिक निर्मिति है। मूल सवाल यह है आज की पीढ़ी की चेतना की उम्र क्या है ? इसके कारण अर्थ उत्पादन की रिदम में भी बदलाव आया है। आज किसी भी घटना की कहानी इतिहासकार के पास अनेक माध्यमों के जरिए पहुँच रही है। फलत: इतिहासकार का काम पहले की तुलना में और भी जटिल हो गया है। हमें एक बात का ख्याल रखना होगा कि साहित्येतिहास हमारे पास हमेशा विश्वविद्यालय और स्कूल शिक्षा व्यवस्था के सुरक्षित मार्ग के जरिए ही पहुँचता रहा है।
आजादी के बाद का साहित्य 'इतिहास ' की बजाय 'पाठक के वर्चस्व' का साहित्य है। लोकतंत्र में इतिहास पर कम विवाद होता है। यह अचानक नहीं है कि साहित्येतिहास पर आजादी के पहले पच्चीस सालों में जो सामग्री आई है वह रामचन्द्रशुक्ल के इतिहास मानदंड़ों के बुनियादी आधार को ही चुनौती देती है। यह काम अपने-अपने तरीके से हजारीप्रसाद द्विवेदी ,मुक्तिबोध,नामवरसिंह और रामविलास शर्मा ने किया है।
लोकतंत्र में व्याख्या और पुनर्व्याख्या का लक्ष्य है असहमति को केन्द्र में लाना और सहमति के भावबोध को अपदस्थ करना। स्वातंत्र्योत्तर आलोचना का विकास अप्रत्यक्ष ढ़ंग से इतिहासबोध को बुनियादी तौर पर बदलता है। तयशुदा धारणाओं के प्रति जितनी गहरी अनास्था,अविश्वास और असहमति इस दौर में विकसित हुई है वैसी पहले कभी नहीं देखी गयी। साहित्य में प्रचलित हायरार्की टूटी है। इस दौर में सहमत और असहमत दोनों ही अपने-अपने ढ़ंग से इतिहास को संकुचित कर रहे हैं अथवा त्याग रहे हैं। आलोचना में व्याख्याओं की बाढ़ आ गयी है। आलोचना में भाषास्फीति नजर आ रही है।
इस दौर में भाषा का व्यापक इस्तेमाल हुआ है भाषा के नाम पर जितने झगड़े हुए हैं वैसे पहले कभी नहीं देखे गए। लोकतंत्र के विकास की प्रक्रिया में चीजें जैसी हैं अथवा उनकी जैसी व्याख्या है उसके प्रति सवालिया निशान लगते हैं। निश्चित भावबोध,निश्चित नजरिया और निश्चित निष्कर्ष के युग का अंत होता है। सभी क्षेत्र में अनिश्चितता और अनंत व्याख्या के दौर की शुरूआत होती है। इस समूची प्रक्रिया ने साहित्य,साहित्यकर्म और पाठक तीनों को बदला है।
स्वातन्त्रयोत्तर दौर में आलोचना में तीन क्षेत्रों पर सबसे ज्यादा काम हुआ है, पहला क्षेत्र है मध्यकालीन भक्तिकाव्य ,दूसरा, भारतेन्दुयुग और तीसरा हिन्दी भाषा। इनमें भक्तिकाव्य पर सबसे ज्यादा काम हुआ है। सवाल उठता है मध्यकालीन भक्तिकाव्य के मूल्यांकन पर इतनी शक्ति क्यों खर्च की गई और उससे क्या निकला ? किस चीज की तलाश थी ? लेखक की मंशा और पाठ की रीडिंग इन दो पहलुओं पर ज्यादा ध्यान दिया गया। भक्तिकाव्य और मध्यकालीन साहित्य की आलोचना मूलत: भारतीय सभ्यता की 'तर्कशक्ति' और 'सीमा' को उद्धाटित करती है। तार्किकता (रेशनलिज्म)की व्याख्या के निर्माण के क्रम में अतार्किकता के विकास की प्रक्रिया का भी उद्धाटन हुआ। इसी क्रम में आधुनिकतावादी समझ और उसकी सीमा का दायरा परिभाषित हुआ। उल्लेखनीय है मध्यकालीन साहित्य के बहाने 'रेशनलिज्म' अथवा तार्किकता की खोज का काम बेतरतीव ढ़ंग से हुआ है। इस क्रम में पहले मध्यकाल के रेशनल की तलाश की गई और बाद में इस रेशनल को आधुनिकाल के रेशनलिज्म के चौखटे में फिट कर दिया गया।
मध्यकालीन रेशनलिज्म के दायरे में ही आधुनिकता को परिभाषित किया गया। मध्यकालीन रेशनलिज्म के दायरे में ही रखकर आधुनिक पहचान, आधुनिक जीवनरूपों और जीवनशैली को तय किया गया और उसके आधार पर ही इरेशनलिज्म को परिभाषित किया गया। जो चीज रेशनल नहीं है उसे इरेशनल की केटेगरी में ड़ाल दिया गया। पाठ की व्याख्या के आधार के तौर पर रेशनलिज्म और इरेशनलिज्म को ही चुना गया। उसके साथ 'मंशा' को जोड़कर देखा गया। मध्यकालीन साहित्य की व्याख्या में 'पाठ ही जगत है।' पाठ की महानता और पाठ में से ही संसार को खोज निकालने की कला का कौशल के साथ विकास किया गया फलत: संसार में झांककर देखने की जरूरत ही नहीं पड़ी। मध्यकालीन पाठ के साथ यदि मध्यकालीन समाज की परतों को आलोचना ने खोला होता तो आलोचना का स्वरूप कुछ और होता। मध्यकाल के संदर्भ में पाठ ही सब कुछ था। समाज बेकार की चीज थी,अथवा समाज में कोई गड़बड़ी नहीं थी ?
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