गुरुवार, 11 फ़रवरी 2010

हजारीप्रसाद द्विवेदी का प्रेमाख्यान

हजारीप्रसाद द्विवेदी का प्रेम को लेकर जो नजरिया है वह स्त्री को सिर्फ शरीर के रूप में देखने,ज्ञानहीन,पिछड़ा,व्यक्तित्वहीन देखने के साम्राज्यवादी नजरिए से एकदम भिन्न है। हजारीप्रसाद द्विवेदी यह मानने को तैयार नहीं है कि व्यक्तित्वहीनता (बधिया औरत) भारतीय स्त्री की अस्मिता से ऐतिहासिक तौर पर जुड़ा फिनोमिना है। स्त्री के व्यक्तित्व और इच्छा को तरजीह देने के कारण प्रेम की एकदम नयी परिभाषा पेश करते हैं।

कालिदास की कृति 'कुमारसंभव' का मूल्यांकन करते हुए उन्होंने लिखा ''जो प्रेम शारीरिक आकर्षण से उत्पन्न था,वह क्षणभंगुर था,उसमें अशुभ का भविष्य छिपा हुआ था- शकुन्तला के शारीरिक आकर्षणजन्य प्रेम की भी यही कहानी है- परन्तु जो प्रेम तपस्या से उत्पन्न होता है,यह स्थायी होता है और शुभ भविष्य का बीज लेकर आता है।शिव-पार्वती के प्रेम में कालिदास ने इसी महान सिध्दान्त का प्रतिपादन किया है।... कुमार या काम की पराजय नारी के आन्तरिक प्रेम का पराभव नहीं है,बल्कि उसकी महिमा को और भी उज्ज्वल,और भी सरस तथा और भी महान बनाने वाला है।'' आगे लिखा ''प्रेम ,संयम और तप से उत्पन्न होता है।'' मध्ययुग के संस्कृत कवियों के बारे में लिखा '' कामशास्त्रीय ग्रंथों ने उन पर काफी असर छोड़ रखा था। इसीलिए शारीरिक-विशेषकर कामोत्तोजक अंगों के -सौंदर्य का उन्होंने खुलकर वर्णन किया है।'' आलोचना में लंबे समय तक कामशास्त्र और काव्यशास्त्र में अंतर नहीं किया जाता था। यह भी धारणा थी कि कामदेवता और कामशास्त्र का रचयिता एक ही व्यक्ति है। किंतु असल में ये दो हैं। ''कामोद्दीपक क्रिया-कलाप वस्तुत: वैनोदिक समझे जाते थे।''
   
मध्यकाल में प्रेम के तीन तरह के रूप प्रचलन में हैं एक प्रेम वह है जो नियमों का पाबंद है, सत्ता के तंत्र,मंत्र, विधान से जुड़ा है। दूसरा प्रेम वह है जो 'लोक' से जुड़ा है,तीसरा प्रेम वह है जो न नियम से जुड़ा है और न लोक परंपरा से जुड़ा है बल्कि स्त्री प्रेम के रूप में व्यक्त हुआ है। पहली और दूसरी कोटि के प्रेम के फ्रेमवर्क में रखकर सोचने वाले लेखक प्रेम में पितृसत्ता को बनाए रखते हैं।

पहले कोटि के लिए प्रेम का आदर्श कालिदास आदि महाकाव्य रचयिता हैं,दूसरे किस्म के प्रेम के रचयिता सूफी हैं,कुछ हद तक सूरदास भी हैं,तीसरी कोटि का प्रेम स्त्री के रूप में मीरा का है। प्रेम में पुंसवाद से पहले दो केटेगरी के प्रेम में मुक्ति का रास्ता नहीं दिखता। हजारीप्रसाद द्विवेदी ने पहले दो किस्म के प्रेम पर ही विचार किया है,स्त्री प्रेम पर विचार नहीं किया है। प्रेम के संदर्भ में वे निश्चित रूप से रामचन्द्र शुक्ल से भिन्न अनेक नयी बातों पर रोशनी डालते हैं,किंतु प्रेम के पितृसत्तात्मक ढ़ांचे के बाहर नहीं जा पाते।

पुंसवादी विचारधारा से प्रेम को मुक्त करने का अर्थ है प्रेम में समानता के विचार की स्थापना करना, प्रत्येक किस्म के वर्चस्व का विरोध करना। हजारीप्रसाद द्विवेदी के जिस प्रेम को महान् बताया है,वह मूलत: पितृसत्ताात्मक ही है। हजारीप्रसाद द्विवेदी जिस प्रेम को पसंद करते हैं और महिमामंडन करते हैं वह भी पितृसत्तात्मक है। किंतु इस प्रेम का पुराने पितृसत्ताात्मक प्रेम से भिन्न रवैयया है।
      
हजारी प्रसाद द्विवेदी ने 'मध्यकालीन बोध का स्वरूप' में अश्वघोष की रचनाओं का मूल्यांकन करते हुए लिखा '' अश्वघोष के काव्यों में दो पक्ष बहुत स्पष्ट रूप से उभरे हैं। संसार में जो कुछ आकर्षक और मोहक है,उसका वे सोल्लास वर्णन करते हैं किन्तु फिर भी वे उससे अभिभूत नहीं होते। क्षणभंगुर और अस्थिर समझते हैं।''

द्विवेदीजी ने इसी 'क्षणभंगुर ' और 'अस्थिर' तत्व को कालिदास के प्रेम पर भी लागू किया है। कालिदास के यहां 'तपस्या की आग से परिशोधित प्रेम' की अभिव्यक्ति हुई है। शकुंतला और दुष्यंत के प्रेम के बारे में द्विवेदीजी ने लिखा है, '' जो प्रेम शारीरिक आकर्षण से उत्पन्न हुआ था,वह क्षणभंगुर था,उसमें अशुभ भविष्य का बीज छिपा हुआ था-शकुन्तला के शारीरिक आकर्षणजन्य प्रेम की भी यही कहानी है - परन्तु जो प्रेम तपस्या से उत्पन्न होता है,वह स्थायी होता है और शुभ भविष्य का बीज लेकर आता है।...  कुमारसम्भव में कालिदास ने काम पर जो शिव की विजय दिखाई है,वह प्रेम के निखरने ,उज्ज्वल होने और महिमामण्डित बनने का साधन-मात्र है।''

इसी प्रेम का एक अन्य आयाम विरह है जो कालिदास के यहां व्यापक रूप में मिलता है। इसी क्रम में लिखा है '' प्रेम के केन्द्रगत रहस्य को जो कवि नहीं जानता वह किसी प्रकार इतनी विषम परिस्थितियों को नहीं संभाल सकता।'' सवाल यह है कि '' प्रेम '' के किस रूप की हिमायत की जा रही है ? क्या यह 'प्रेम' नियम और असमानता का पाबंद नहीं है , जी,हाँ,यह प्रेम असमानता का पक्षधर है। इसमें खास किस्म के प्रेम का आग्रह है, प्रेम की व्याख्या में पसंदीदा प्रेम के रूपायन को पसंद करना और उसे श्रेष्ठ ठहराना,स्वयं में पितृसत्तात्मकता का पक्षधर होना है, पितृसत्ता के साथ मुश्किल यह है कि वह परिवर्तनीय है, इसमें परिवर्तन करने और अपने मूल स्वभाव -वर्चस्ववादी -को बनाए रखने का गुण है।

रामचन्द्र शुक्ल ,हजारीप्रसाद द्विवेदी में पितृसत्ता के सवाल पर बुनियादी तौर पर कोई फर्क नहीं है। फर्क सिर्फ पितृसत्ता के नए और पुराने रूप का है। हजारीप्रसाद द्विवेदी को प्रेम का वह चित्रण पसंद नहीं है जिसमें स्त्री शरीर प्रमुख नहीं है, वे प्रेम से स्त्री शरीर को अलग करके देखते हैं ,प्रेम को स्त्री शरीर और स्त्री इच्छा से अलग करके देखने का अर्थ है प्रेम को पितृसत्ता के हवाले कर देना।

स्त्री का शरीर साधारण शरीर नहीं है,माया नहीं है,वायवीय नहीं है,स्त्री की इच्छाओं का भी यही हाल है। स्त्री शरीर और स्त्री इच्छाओं का कालिदास के यहां जब उद्दामभाव से वर्णन किया जाता है,स्त्री अपने शरीर और इच्छा को लेकर खेलती है तो वे अंश द्विवेदीजी को पसंद नहीं हैं। यहां तक कि पुरूष के अंदर यदि स्त्री के शरीर को लेकर आकर्षण,प्रेम,भावोन्माद आदि को  कालिदास ने चित्रित किया है तो वह भी उन्हें पसंद नहीं है। यही स्थिति उनके उपन्यासों में भी है। वहां पर भी स्त्री के शरीर को लेकर खास किस्म का रूख है। प्रेम का शारीरिक आकर्षण द्विवेदीजी को पसंद नहीं है।



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