आधुनिक आलोचक भगवान के तंत्र और तर्कशास्त्र से मुक्त है। मध्यकाल में किसी भी चीज के घटित होने के लिए भगवान को जिम्मेदार ठहराया गया, किंतु आधुनिककाल में भगवान की जगह 'कारण' को बिठा दिया गया। अब प्रत्येक घटना,साहित्यरूप,आंदोलन , व्यक्ति,अस्मिता आदि के 'कारण' की खोज पर जोर दिया गया।
मध्यकाल को जानने अथवा समझने का अर्थ था मध्यकाल के कारणों को जानना। 'कारण' समाज में था किंतु समाज को खोले बिना हमने कारण के प्रयोग की कला विकसित कर ली। यह मूलत: संस्कृत काव्यशास्त्र की कला है। मध्यकालीन कला है। इसका दुष्परिणाम यह निकला कि साहित्य और आलोचना में अध्यात्मवाद की जड़ें बरकरार रहीं। साहित्यकारों के जीवन में ईश्वर की सत्ता बनी रही। लेखकों में अध्यात्मवाद का विकास हुआ। साहित्यकार का धर्मभीरू भाव बना रहा। स्वातंत्र्योत्तर आधुनिक आलोचना ने लेखक के धर्मभीरू और अध्यात्मवादी तंत्र को कभी निशाना नहीं बनाया।
लोकतंत्र में बहुलतावाद,जातीय अस्मिताएं, पुरानी अस्मिताएं ,वर्गीय अस्मिताएं,मिथकीय अस्मिताएं,दलित और स्त्री अस्मिता आदि के सवाल केन्द्र में आ गए हैं। सवाल यह है इन विषयों पर विचार करते हुए हम कहां लौटते हैं ? क्या आलोचना मानवीय मूल्यों की ओर लौटती है ? क्या हमारी आलोचना ने मानवीय मूल्यों के सवालों और सरोकारों की ओर प्रयाण किया है ?
आज जब हम आलोचना और साहित्य के बारे में बातें कर रहे हैं तो मूल परिदृश्य बदल चुका है। विगत साठ सालों में अनेक बदलाव आए हैं। नए बदलाव ये हैं,पहला, आज व्यापक स्तर पर हिन्दी साहित्य का पठन-पाठन हो रहा है। पठन-पाठन में शिक्षा संस्थानों की बड़ी भूमिका है। संस्थानों के कारण ही हिन्दी की अस्मिता,पहचान और अनुशासन के रूप में भूमिका तय हुई है। आज हिन्दी को लेकर कोई भी विवाद उठता है तो सिर्फ साहित्यिक अथवा प्रोफेशनल विवाद नहीं होता। बल्कि सामाजिक और राजनीतिक विवाद बन जाता है। इस तरह के विवाद सार्वजनिक तौर पर ध्यान आकर्षित करते हैं।
दूसरा, हिन्दी साहित्य में कालविभाजन बंद हो गया है। आजादी के बाद के साहित्य को लेकर वैसा वर्गीकरण आलोचना में नहीं दिखता जैसा कालविभाजन के नाम पर पहले होता था। यह प्रक्रिया आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने शुरू की और कालविभाजन की एक तरह से विदाई हो गयी। इसमें उनकी तीन किताबों 'हिन्दी साहित्य में आदिकाल' , 'हिन्दी साहित्य की भूमिका' और 'हिन्दी साहित्य का उद्भव और विकास' की बड़ी भूमिका है। अब साहित्य में वर्गीकरण सामाजिक,लिंगीय और एथनिक आधारों के आधारों पर किए जा रहे हैं। फलत: अब किसी प्रवृत्ति का वर्चस्व नहीं है। यह प्रवृत्ति के वर्चस्व के युग के अंत की घोषणा भी है। सामाजिक,लिंगीय और एथनिक वर्गीकरण किसी के वर्चस्व को स्वीकार नहीं करते।
तीसरा ,साहित्य और साहित्यकार अब बाजार और सत्ता के मूल्यांकन के आधार पर पहचाना जाता है। इसका साहित्य विमर्शों पर असर पड़ा है। फलत: आत्मगत मूल्यांकन ज्यादा हुआ है अकादमिक मूल्यांकन कम हुआ है। व्यक्तिगत और आत्मगत मानकों के आधार पर मूल्यांकन ज्यादा हुए हैं। लेखक की प्रतिष्ठा और जनप्रियता का मानक सत्ता और बाजार के साथ उसके संबंध हैं। जो लेखक बाजार और सत्ता के गलियारों में सफल है वही अकादमिक जगत में भी सफल है।
चौथा , पेशेवर नजरिए से साहित्य का मूल्यांकन कम हुआ है। साहित्य सैद्धान्तिकी के वैविध्यपूर्ण प्रयोगों की तरफ ध्यान ही नहीं दे पाए हैं। इस क्षेत्र में सिर्फ मार्क्सवादी सैद्धान्तिकी के पुराने सिद्धान्तों के आधार पर कुछ विद्वानों ने काम किया है। किंतु परवर्ती मार्क्सवादी चिन्तन के प्रयोगों से अभी भी हिन्दी के मार्क्सवादी काफी दूर हैं।
हिन्दी की सबसे बड़ी कमजोरी है पेशेवर आलोचना का अभाव। हमारे यहां पेशेवर लेखक हैं किंतु पेशेवर आलोचक नहीं हैं। ऐसी आलोचना नहीं है जिसमें अकादमिक अनुशासन हो। आलोचना हिन्दी में अकादमिक अनुशासन का दर्जा क्यों ग्रहण नहीं कर पायी ? इसका कोई संतोषजनक उत्तर हमारे पास नहीं है। भक्तिकाल, भारतेन्दुयुग, छायावाद और प्रगतिवाद के बारे में कुछ पेशेवर मूल्यांकन कृतियां उपलब्ध हैं किंतु अन्य क्षेत्रों में अभी भी अभाव बना हुआ है।
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