(आचार्य रामचन्द्र शुक्ल)
हिन्दी साहित्य के इतिहास का जन्म राष्ट्र-राज्य और राष्ट्रवाद की प्रक्रिया के साथ होता है। फलत: जातीय साहित्यकेन्द्रित अध्ययन की प्रक्रिया शुरू हुई। जातीय भाषाओं का उदय हुआ। इसी की रोशनी में साहित्य के अध्ययन-अध्यापन का एजेण्डा तय हुआ। साहित्य को सुनहरे इतिहास की स्मृतियों के महिमामंडन के उपकरण के तौर पर इस्तेमाल किया गया। यह वह अतीत है जो 19वीं शताब्दी में हल्का दिखता था किंतु 20वीं शताब्दी के आरंभ में कुछ ज्यादा ही सुंदर नजर आने लगा। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल का ''हिन्दी साहित्य का इतिहास'' हिन्दी समाज के अध्ययन का पहला संस्थानगत प्रयास है। इसके जरिए स्पष्टरूप में राष्ट्रीयतावादी अस्मिता व्यक्त हुई। इसने हिन्दी को जातीय संप्रभुता का दर्जा दिया।
राष्ट्र-राज्य के निर्माण के दौर में हिन्दी साहित्य का इतिहास सामने आया था अत: उसमें प्रत्यक्षत: राष्ट्र-राज्य और राष्ट्रवादी चिन्ताएं भी चली आयीं। इसमें अन्य जातीय भाषाओं के साथ संवाद,संपर्क और विनिमय दिखाई नहीं देता। यह ऐसा इतिहास है जो अपनी भाषा के गौरव में डूबा है। इसमें पूरे राष्ट्र के साथ अन्तर्ग्रथन का भाव नहीं है। आजादी के कई दशक बाद रामविलास शर्मा को 'भारतीय साहित्य की भूमिका' में यह महसूस हुआ कि हिन्दी साहित्य को भारतीय साहित्य के परिप्रेक्ष्य में देखना चाहिए। उल्लेखनीय है रामविलास शर्मा ने यह बात तब कही जब हमारे देश में नयी सूचना और संचार तकनीकी का व्यवहार शुरू हो चुका था। नयी सूचना तकनीकी ने औपनिवेशिक ढ़ांचे को ध्वस्त करना शुरू कर दिया था। औपनिवेशिक ढ़ांचे को ध्वस्त करने के क्रम में ही इतिहास का पहले वाला स्वरूप अधूरा लगने लगा।
भूमंडलीकरण के दौर में पुरानी औपनिवेशिक संरचनाएं और मान्यताएं तेजी से नष्ट होती हैं और नए किस्म की मिश्रित ग्लोबल और राष्ट्रीयचेतना सामने आती है। जातीयताओं के बीच में सहमेल और सम्मिश्रण की प्रक्रिया तेज होती है। राष्ट्र का ग्लोबल अर्थव्यवस्था से एकीकरण और राष्ट्रीय एकीकरण की प्रक्रिया तेज होती है,यही बृहत्तर प्रक्रिया है जिसके परिप्रेक्ष्य में रामविलास शर्मा ने भारतीय साहित्य के परिप्रेक्ष्य में हिन्दी साहित्य के इतिहास को देखने पर जोर दिया । पहले के इतिहास के केन्द्र में सिर्फ हिन्दीभाषी क्षेत्र का साहित्य ही इतिहास में शामिल है । गैर हिन्दीभाषी क्षेत्र का हिन्दी साहित्य इस इतिहास का हिस्सा नहीं है। इसमें देशी-विदेशी हिन्दी साहित्य भी शामिल नहीं है।
हिन्दी साहित्य का इतिहास जब आया था तब से लेकर आज तक साहित्य के उपभोग का पैटर्न बदला है। विगत 75 सालों में सिनेमा और 1984 के बाद से टेलीविजन के द्वारा साहित्यिक कृतियों का जितने बड़े पैमाने पर उपभोग हुआ है उसने साहित्य के वर्गीकरण को प्रभावित किया है। जनप्रियता के मानक बदले हैं। आचार्य रामचन्द्रशुक्ल ने श्रेष्ठ और निम्नजन के साहित्य की केटेगरी को केन्द्र में रखकर इतिहास लिखा। बाजारू जनप्रिय साहित्य को साहित्य की कोटि में नहीं रखा,इसका आदर्श उदाहरण है देवकीनंदन खत्री के उपन्यासों को उपन्यास के रूप में स्वीकार न करना। किंतु प्रेस ने उपन्यास को जनप्रियता दी, सिनेमा ने नयी कलात्मक अभिव्यक्ति दी। बृहत्तर जनता को पाठक अथवा दर्शक के रूप में मुहैय्या कराया।
आज प्रेस ,सिनेमा और टीवी में जिस विधा का प्रयोग होने लगता है वही विधा बाद में किताब की शक्ल में साहित्यकारों और पाठकों की मेज पर दिखाई देती है। मसलन् व्यंग्य,संपादक के नाम पत्र,निजी पत्राचार, धारावाहिक उपन्यास, निजी डायरी, कॉमिक्स, भावानुवाद, भाषान्तरण,अनुवाद आदि ऐसे ही विधा रूप हैं जिन्हें मासमीडिया ने पैदा किया और आज ये सब साहित्य की शोभा बढ़ा रहे हैं। क्या इनके आधार पर इतिहास नहीं लिखा जाएगा ? आज पहले वाला साहित्य का वर्गीकरण,नामकरण अर्थहीन हो गया है।
एक जमाना था साहित्यकार और इतिहासकार दैनन्दिन जीवन के रूपायन को साहित्य नहीं मानते थे। उससे कुछ हटकर होने पर ही साहित्य बनता था,किंतु आज स्थिति एकदम विपरीत है आज दृश्य और श्रव्य माध्यमों से लेकर प्रिंट तक दैनन्दिन जीवन का रूपायन ही सबसे बड़ी अंतर्वस्तु है। दैनन्दिन जीवन ही साहित्य की अंतर्वस्तु का प्रमुख स्रोत है। साहित्य दैनन्दिन जीवन के रूपायन से किनाराकशी नहीं कर सकता।
आज हम इलैक्ट्रोनिक मीडिया और इंटरनेट के युग में हैं। इस दौर में तथ्य और कल्पना का अंतर खत्म हो जाता है। यह इंटरेक्टिव तकनीक का युग है ,इसके कारण पाठ पूरी तरह खुला और पारदर्शी है। बागी पाठ बड़ी मात्रा में सामने आ रहा है। परंपरागत इतिहास में अनुगामी पाठ सामने लाता है, मौजूदा युग में गैर अनुगामी पाठ सामने आ रहा है। यह ऐसा पाठ है जिसका निरंतर संशोधन और परिवर्द्धन किया जा सकता है। यह सुविधानुसार परिवर्तन की सीमा के परे का पाठ है। अब पाठ की हैसियत बदल गयी है। हाइपरटेक्स्ट इस दिशा में उठा सबसे बड़ा कदम है।
शुक्लजी का इतिहास प्रेस,पाठ और राष्ट्र-राज्य के परिप्रेक्ष्य में लिखा गया था। आजादी के बाद का इतिहास इलैक्ट्रोनिक मीडिया,सैटेलाइट और हाइपरटेक्स्ट के परिप्रेक्ष्य में पढ़ा जाना चाहिए। इतिहास के पुराने मानक अप्रासंगिक हो गए हैं। लेखक- पाठक के बीच का भेद पूरी तरह खत्म हो चुका है। शुक्लजी के यहां यह भेद है। इसके अलावा 'ग्रहण' और इतिहास की 'सीमाओं' को भी यह दौर पूरी तरह खारिज करता है।
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