रविवार, 14 फ़रवरी 2010

गोरों का मायालोक और आनंद का गद्य






हजारीप्रसाद द्विवेदी के मन पर ब्रिटिश शासन का सकारात्मक असर था। सामान्यत: हमने उनके अंग्रेजी शासन के प्रति रूख के बारे में कभी ध्यान ही नहीं दिया। यह सच है कि उनके लेखन और आलोचना में अनेक सकारात्मक तत्व हैं,उनकी आलोचना आज भी रोशनी देती है,अवधारणाओं का खजाना है। इसके बावजूद ब्रिटिश शासन की भूमिका की समग्र समझ का अभाव है। यह उनके लेखन की सबसे बड़ी कमजोरी है।

'हिंदी साहित्य: उद्भव और विकास' (1952) में उन्होंने लिखा है '' सन 1860 के बाद देश में पूर्ण रूप से शांति और व्यवस्था कायम हो गई।'' सवाल उठता है कि क्या 1857 के बाद देश में शांति स्थापित हो गई थी ? क्या देश में कहीं बगावत नहीं हुई ? जी नहीं, तथ्य द्विवेदीजी के इस निष्कर्ष की पुष्टि नहीं करते।

इसके अलावा यह सवाल भी पूछा जाना चाहिए कि 1857 के प्रति द्विवेदीजी का रूख क्या है ? वे किसके साथ हैं ? यह साल 1857 के स्वाधीनता संग्राम का शताब्दी वर्ष है और द्विवेदीजी का भी जन्म शताब्दी वर्ष है। द्विवेदीजी का मानना है कि 1860 के बाद देश में शांति और व्यवस्था स्थापित हो गई। इस संदर्भ में सिर्फ एक ही तथ्य का जिक्र करना समीचीन होगा।

सन् 1859 में सरकार की तरफ से व्यापारियों,डाक्टरों,वकीलों आदि पर लाइसेंस टैक्स का प्रस्ताव पेश किया गया,इस प्रस्ताव का सारे देश में जमकर विरोध हुआ था।इस विरोध के अग्रवर्ती गैर-ब्रिटिश लोग थे। एक अगस्त 1860 से आयकर कानून सारे देश में लागू कर दिया गया, इस कानून का उस समय नाम रखा गया 'गदर कर'

इस कानून के खिलाफ विरोध किस कदर बढ़ गया था,इसका अंदाजा लगाने के लिए उस जमाने के कुछ वक्तव्य हमें संकेत देते हैं। पायनियर ने 3 जनवरी 1871 को लिखा '' भारत में ब्रिटिश सत्ता को पिछले नौ महीनों में लोगों की दुर्भावनाओं के कारण जितना धक्का लगा है ,वह रणक्षेत्र की आधा दर्जन पराजयों से ज्यादा है।'' पत्र ने स्वीकार किया कि ब्रिटिश भारत में सब वर्ग और जातियां एक हो गई हैं।''

 कलकत्ता के 'इंडियन डेली न्यूज' ने 22 नवंबर 1870 को स्वीकार किया कि ''कर विरोधी आंदोलन ने 1857 से ज्यादा एकता कायम कर दी है। 1857 में बंबई और मद्रास प्रेसीडेंसी ने दिल्ली और लखनऊ का साथ न दिया था,लेकिन जाति,भाषा,धर्म और स्वार्थों की विषमता आयकर के मोहन मंत्र के सामने शक्तिहीन हो गयी है। ... आयकर ने साम्राज्य की देशी जातियों को एकता का एक साधारण बिंदु दे दिया है;ऐसी बात जो भारत के इतिहास में पहले कभी नहीं पाई गई है।'' 

कलकत्ता के ही इंग्लिशमैन ने 30 जून 1870 को लिखा '' सरकार के खिलाफ इतना असंतोष पहले कभी नहीं देखा गया।ब्रिटिश शासकों को सारे देश में विद्रोह की आशंका दिखाई पड़ने लगी। उन्होंने मुल्ला- मौलवियों, पंडा-पुरोहितों से फतवे निकलवाए कि ब्रिटिश राज के खिलाफ जेहाद करना अनुचित है।'' क्या इन अखबारों के वक्तव्यों के बावजूद यह कह सकते हैं कि 1860 के बाद देश में शांति स्थापित हो गई थी ?

एक जगह द्विवेदीजी ने फोर्ट विलियम कालेज की स्थापना के बारे में लिखा ''  अंग्रेज अफसरों ने गंभीरतापूर्वक इस देश की भाषाओं के अध्ययन का प्रयत्न किया।''  सवाल यह है कि क्या फोर्ट विलियम कॉलेज का लक्ष्य सिर्फ उतना ही था जितना द्विवेदीजी बता रहे हैं ? द्विवेदीजी ने यह भी लिखा है '' देश में नवीन युग का आरंभ हो गया था,यह यूरोपियन संपर्क का फल था।''

 इसके अलावा आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी का 1857 के संग्राम के प्रति जो नजरिया है वह संतुलित नहीं है,उन्होने लिखा है ,'' और 1857 ई. में सारी भारतीय जनता विदेशी शासन-नीति से  ऊबकर विद्रोह कर बैठी।'' सवाल पैदा होता है कि क्या भारतीय जनता ने 'ऊबकर' विद्रोह किया था ?

आगे लिखा है, ''एक तरफ तो अंग्रेजों का देशी राज्यों पर अनुचित अधिकार और दूसरी तरफ ईसाई धर्म का इस प्रकार सोत्साह प्रचार,इन दो बातों ने भारतीय जनता को सशंक कर दिया,और शुभ वृध्दि से किए जाने वाले सुधारों के प्रति भी उनके चित्त में संदेह उत्पन्न कर दिया। इसका विस्फोट सन् 1857 ई. के विद्रोह के रूप में हुआ था।इस विद्रोह की प्रेरणा किसी बड़े लक्ष्य से प्राप्त नहीं हुई थी,इसीलिए इसका परिणाम भी किसी बड़े फल के रूप में नहीं  प्रकट हुआ।वह केवल भारतीय जनता के विक्षोभ को प्रकट करके समाप्त हो गया।''

क्या 1857 के संग्राम के पीछे कोई कारण अथवा लक्ष्य नहीं था ? क्या इस विद्रोह का कोई परिणाम नहीं निकला ? क्या भारतीय जनमानस को इस विद्रोह ने कोई प्रेरणा नहीं दी ? ''हिन्दी साहित्य:उद्भव और विकास'' में द्विवेदीजी का अंग्रेजों के प्रति आकर्षण साफ देखा जा सकता है।

सन् 1857 के प्रथम स्वाधीनता-संग्राम को रामविलास शर्मा ने 'महान् जन-क्रान्ति' कहा है। रामविलास शर्मा ने लिखा है, '' यह संघर्ष जनक्रान्ति इसलिए था कि सारा युध्द जनता को आधार बनाकर चला था।''

'' इस क्रान्ति की मूल धारा अंग्रेजी राज्य के विरूध्द थी।उसका मूल उद्देश्य राजनीतिक था-अंग्रेजों को निकालकर देश में अपनी सत्ता कायम करना।इस राजनीतिक उद्देश्य के अन्तर्गत और भी सामाजिक उद्देश्य थे।''

'' क्रान्ति ने गरीब आदमियों को सबसे अधिक आन्दोलित किया।''[1] '' इस क्रान्ति में उच्च वर्णों के अलावा निम्न वर्णों ने भी भाग लिया।'' रामविलास शर्मा ने इसके मूल कारणों पर रोशनी डालते हुए लिखा , '' क्रान्ति का मूल कारण अंग्रेजों की भूमि व्यवस्था, उनका शोषण और लूट ,उनकी न्याय-व्यवस्था थी। इस व्यवस्था से उत्पन्न क्षोभ ही जनता को एक कर रहा था। यह गहरा असन्तोष हिन्दुओं और मुसलमानों को अंग्रेजों के विरूध्द संयुक्त मोर्चा बनाने के लिए प्रेरित कर रहा था,यह तथ्य भुलाया नहीं जा सकता।''

रामविलास शर्मा ने व्यापक परिप्रेक्ष्य बनाते हुए लिखा '' सन सत्तावन की भारतीय राज्य क्रांति उन युध्दों की श्रृंखला की सबसे महत्वपूर्ण कड़ी है जिन्हें उपनिवेशों की जनता ने उन्नीसवीं शताब्दी में यूरोप के आतताइयों के विरूद्ध छेड़ा था।'' 
इस क्रांति की सबसे बड़ी सफलता है '' अंग्रेज शासक वर्ग और भारतीय जनता में ''परस्पर विश्वास'' फिर कभी कायम नहीं हुआ।सन् सत्तावन की राज्यक्रांति की यह सबसे बड़ी सफलता थी।''

 आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने 1857 के विद्रोह का परवर्ती हिन्दी साहित्य पर कोई प्रभाव भी दर्ज नहीं किया है। जबकि समकालीन साहित्य पर इस विद्रोह ने गहरी छाप छोड़ी। 

इसके बावजूद एक महत्वपूर्ण तथ्य द्विवेदीजी ने रेखांकित किया है और यह वह तथ्य है जिसको रामविलास शर्मा नहीं मानते। द्विवेदीजी ने लिखा है , '' रेल तो सन् सत्ताावन के विद्रोह का प्रमुख कारण थी और तार उस विद्रोह को दबाने का सफल अस्त्र साबित हुआ था।''

हजारीप्रसाद द्विवेदी के 1857 संबंधी नजरिए का मूल्यांकन करने का यह निष्कर्ष न निकाला जाए कि वे अंग्रेजभक्तथे,ब्रिटिशपरस्त थे। द्विवेदीजी पर बंगाल के प्रभाव का यह नकारात्मक पहलू है।

बंगाल के प्रभाव के अनेक सकारात्मक पक्षों की नामवर सिंह ने 'दूसरी परंपरा की खोज' में चर्चा की है। किंतु 1857 के संबंध में द्विवेदीजी के नजरिए के बारे में वे किनारा करके निकल गए हैं। 1857 वाले सवाल को छोड़ दें तो द्विवेदीजी के इतिहासबोध में साम्राज्यवाद विरोधी संघर्ष के सैंकड़ों तीर भरे पड़े हैं।

द्विवेदीजी की आलोचना पध्दति का खासकर सबसे ज्यादा महत्व है। वे आलोचना या इतिहास लिखते समय सिर्फ सकारात्मक तत्व पर नजर रखते हैं, नकारात्मक तत्व की अमूमन उपेक्षा करते हैं अथवा हाशिए पर रखते हैं या चलताऊ ढ़ंग से जिक्र करते हैं। 

द्विवेदीजी ने भारतेंदु के बारे में जो बातें लिखी हैं ,उनमें से अनेक बातें स्वयं द्विवेदीजी पर घटती हैं,उन्होंने लिखा है कि  '' उनमें एक विचित्र प्रकार की अंतर्दृष्टि और सहजबोध था।'' भारतेंदु ने यदि जीवन्त साहित्य की रचना की तो दविवेदीजी ने जीवन्त आलोचना की रचना की,ऐसे गद्य की सृष्टि की जिसे आप पढ़ते जाइए और सिर्फ पढ़ते जाइए,आप कभी बोर नहीं होंगे।

रोलां बार्थ के शब्दों में यह 'पाठ का आनंद' है। भारतेंदु की तरह ही उनकी आलोचना में दानशीलता का वर्चस्व है। वे अपना सर्वोत्तम लुटाना चाहते हैं। सर्वोत्तम देकर भी जाते हैं।

''दूसरी परंपरा की खोज'' में दिए गए विवरण बताते हैं कि द्विवेदीजी काफी सहज और सरल स्वभाव के थे। भारतेंदु के बारे में वे लिखते हैं '' जो व्यक्ति सहज होता है ,वही महान् होता है। क्रूरता और वक्रता मनुष्य को सामयिक सफलता देती है,परंतु उनसे स्थायी लाभ नहीं होता।'' द्विवेदीजी ने भारतेंदु के जिन तीन गुणों की चर्चा की है वे स्वयं उनमें कूट-कूटकर भरे थे। 





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