बुधवार, 10 फ़रवरी 2010

साम्राज्यवादी चौहद्दी के परे देखने की कला






हजारीप्रसाद द्विवेदी ने चार महत्वपूर्ण उपन्यास लिखे हैं। ये उपन्यास पाठात्मकता (टेक्स्चुएलिटी) के देशज रूपों को सामने लाते हैं। पाठात्मकता के जिन रूपों का उन्होंने अपने उपन्यासों में इस्तेमाल किया है। उसमें उपन्यास के ढ़ांचे के बारे में प्रचलित साम्राज्यवादी अथवा औपनिवेशिक आधारों को एकसिरे से अस्वीकार किया है। उपन्यास का पाठ और चरित्र या कहानी सार्वभौम होती है,इस धारणा को खंडित किया है। द्विवेदीजी के चारों उपन्यास 'सार्वभौमत्व' की अवधारणा के खिलाफ सशक्त हस्तक्षेप हैं।

'सार्वभौमत्व' की धारणा औपनिवेशिक विमर्श का हिस्सा है, प्रतिनिधि पात्र और प्रतिनिधि परिस्थितियों के चित्रण का नजरिया औपनिवेशिकता का हिस्सा है, इन सबको अस्वीकार करते हुए द्विवेदीजी उपन्यास को विशिष्ट धरातल पर ले जाते हैं। द्विवेदीजी के उपन्यासों का कथानक, पात्र,चित्रण आदि किसी भी किस्म के औपनिवेशिक केटेगरी के दायरे में नहीं आता। एक आलोचक के नाते वे उपन्यासों में जिस तरह के कथानक को उठाते हैं उसमें कहानी और स्मृति का सुगठित रूप सामने आता है। कहानी और स्मृति का आधार क्षणिक आवेग की अनुभूतियां नहीं हैं,किसी घटना विशेष को आधार नहीं बनाया गया है बल्कि कहानी के बहाने स्मृति के सुचिंतित विमर्श को सामने लाते हैं।
     
हजारी प्रसाद द्विवेदी के चारों उपन्यासों में प्रेम कथा मूल में है। इसमें शासक और शासित का फर्क नजर नहीं आता,प्रेमकथा के तानेबाने में सारे पात्र और मुख्य कथानक में समान रूप से शिरकत करते हैं। पुराने आख्यान को उपन्यास के रूप में पेश करते हुए वे कहीं पर भी कथानक में 'अन्तनिर्भरता' के तत्व का इस्तेमाल नहीं करते,खासकर मुख्य पात्र और कथानक का मुख्य हिस्सा शासकों पर निर्भर नहीं है। कथानक में 'अन्तनिर्भरता' के तत्व को खत्म करके द्विवेदी जी ने पात्रों और कथानक के माध्यम से साम्राज्यवादी 'अन्तनिर्भरता' को चुनौती दी है। 'वर्चस्व' की धारणा को चुनौती दी है।

मजेदार बात यह है कि चारों उपन्यास हिंसा से एकदम मुक्त हैं। किसी भी किस्म के हिंसाचार को कथानक में न आने देना साम्राज्यवादी हिंसाचार का प्रत्युत्तर है। वे प्रेम को प्रतिवाद की भाषा में पेश करते हैं। संस्कृति और उसके विमर्श को मानवीय अस्तित्व का बुनियादी आधार बनाते हैं।

साम्राज्यवादी विचारकों ने भारतीय परंपरा में भिन्नता या भेदों को व्यापक रूप में उभारा था, इसके प्रत्युत्तर में द्विवेदीजी ने सांस्कृतिक आदान-प्रदान,अनुभवों के आदान- प्रदान, साझेपन पर ज्यादा जोर दिया है,द्विवेदीजी के पात्र मतभिन्नता से ज्यादा मतैक्य की ज्यादा बातें करतें हैं, इनमें एक-दूसरे के प्रति 'शेयरिंग' का भाव है।

द्विवेदीजी के उपन्यासों में कहानी पुरानी है, किंतु सरोकार और भावबोध नया है,रवैयया नया है। इन चारों उपन्यासों के जरिए वे किसी भी किस्म का नॉस्टेल्जिया पैदा नहीं करते।बल्कि अतीत को नये उभरते जगत की संगति में निर्मित करते हैं। वे क्रमश: अपने द्वारा निर्मित विमर्शों को अपदस्थ करते जाते हैं।

बाणभट्ट की आत्मकथा से लेकर अनामदास का पोथा तक का औपन्यासिक विमर्श अदस्थीकरण के तत्व का इस्तेमाल करता है। इस क्रम में वे लगातार नए विमर्श उठाते हैं। इन चारों उपन्यासों में कोई न तो आदर्श पात्र है और न आदर्श विचार है। 'आदर्श' अथवा आइडियल का इस तरह विखण्डन अन्यत्र दुर्लभ है।

द्विवेदीजी के पात्रों में 'असहमति' के तत्व का व्यापक रूप में इस्तेमाल किया गया है,इसके लिए उन्होंने सबसे पहले वर्चस्व की संरचनाओं को कमजोर बनाया है।वर्चस्व को अस्वीकार किया है। विभिन्न पात्र किसी न किसी तरह वर्चस्व को अस्वीकार करते हैं,असहमति के स्वर में बोलते हैं। 'वर्चस्व' का अस्वीकार और 'असहमति' के तत्व का व्यापक इस्तेमाल औपनिवेशिकता और उत्तर औपनिवेशिकता का अस्वीकार है। साथ ही उनके पात्र औपनिवेशिक युग में निर्मित केटेगरी का भी निषेध करते हैं।

मसलन् नए और पुराने ,आधुनिकता बनाम प्राचीनता ,विज्ञान बनाम पोंगापंथ,विज्ञान बनाम बर्बरता का भेद नहीं है। कहने का तात्पर्य यह है कि 'भेद' की केटेगरी को किसी भी रूप में द्विवेदीजी ने अपने उपन्यासों की संरचना में इस्तेमाल नहीं किया है। उपन्यास को संरचनात्मक तौर पर 'भेद' की केटेगरी के बाहर ले जाने का मूल मकसद है औपनिवेशिक विमर्श को चुनौती देना।

हमारे समाज में 'जातिभेद' सबसे बड़ा 'भेद' है। इस 'भेद' का उल्लेख करने से कोई नहीं बचा है। सवाल यह है कि क्या साहित्य कृति या इतिहास में 'जाति' का उल्लेख 'भेद' के औपनिवेशिक दायरे में ले जाता है या नहीं ? यहां यह देखना रोचक होगा कि आचार्य रामचन्द्र शुक्ल अपने इतिहास में लेखक के संदर्भ में 'जाति' का इस्तेमाल करते हैं,जबकि आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी लेखक के संदर्भ में 'जाति' का इस्तेमाल नहीं करते।

'जाति' हमारे यहां 'भेद' का हिस्सा है,द्विवेदीजी अपनी रचनाओं में 'भेद' के परे जाते हैं। प्रेमचंद ने अपनी रचनाओं में 'जाति' को 'भेद' से जोड़ा, 'व्यवस्था' से जोड़ा,द्विवेदीजी इसके परे जाते हैं। भारत के इतिहासकारों ने इतिहास लिखते समय 'जाति' को इतिहास का हिस्सा बनाकर पेश किया,जाति का इतिहास का हिस्सा बन जाने से समस्या और भी जटिल हुई है। जाति का जनगणना का हिस्सा बन जाने से जाति व्यवस्था पहले से ज्यादा पुख्ता हुई है।

औपनिवेशिकता ने 'जाति' को भारतीय संस्कृति का अनिवार्य हिस्सा बनाया ,संस्कृति का मर्म बताया,आचार्य द्विवेदीजी ने संस्कृति के विमर्श में जाति को कभी मर्म तो दूर की बात है, हाशिए पर भी जगह नहीं दी है।बल्कि उपन्यासों में एथनिक पहचान का इस्तेमाल जरूर किया है।

द्विवेदीजी के यहां 'जाति' प्रमुख नहीं है,पेशा प्रमुख है, व्यक्ति के गुण प्रमुख हैं। जबकि प्रेमचंद के यहां जाति और गुण का चित्रण है साथ ही जाति वर्चस्व के रूपों का चित्रण है। इसका अर्थ यह नहीं है कि प्रेमचंद 'जातिप्रथा' के समर्थक थे,बल्कि इसका अर्थ यह है कि प्रेमचंद औपनिवेशिक केटेगरी के परे जाकर सोच नहीं पाते,द्विवेदीजी इस दायरे का अतिक्रमण कर जाते हैं। इसी से जुड़ी एक और समस्या है वह है 'जातिभेद' का उद्धाटन क्या साम्राज्यवाद के पक्ष में जाता है या विपक्ष में ? रामचन्द्र शुक्ल और प्रेमचंद के पक्षधरों को इस सवाल के पेंच खोलने चाहिए।

'जातिभेद' के प्रश्नों को खोलने में देरिदा के 'डिफरेंस' से भी कोई मदद नहीं मिलेगी। इसका प्रधान कारण यह है कि 'डिफरेंस' में निरंतर स्थगन का भाव है। इसका अर्थ है ' डिफरेंस' का निरंतर बने रहना। 'अदर' की संरचनात्मक अनुपस्थिति। 'अदर' या 'डिफरेंस' की धारणा असंपूर्ण धारणा है। इससे 'अदर' की मुक्ति संभव नहीं है।

         द्विवेदी जी के उपन्यासों में 'सार्वभौम' की धारणा का व्यापक रूप से निषेध मिलता है। सार्वभौम की धारणा संकुचित धारणा है,यह यूरोप के प्रतिगामी सोच से उपजी धारणा है भारत जैसे वैविध्यपूर्ण देश के लिए यह धारण एकसिरे से अप्रासंगिक है। सच यह है कि यथार्थ के जिस सार्वभौम रूप की हम अभी तक पूजा करते रहे हैं उसमें यथार्थ के वैविध्य का नकार छिपा है। सार्वभौम यथार्थ से भिन्न यथार्थ का कैनवास काफी बड़ा है।यथार्थ का एक रूप सार्वभौम हो सकता है किंतु यथार्थ का वही एकमात्र आदर्श मानक नहीं हो सकता। साहित्य में यथार्थ के उतने ही मानक होंगे जितने व्यक्ति समाज में हैं,अत: यथार्थ की सार्वभौम केटेगरी बेकार और संकुचित केटेगरी है।
         
 इसी तरह नैतिकता का कोई सार्वभौम मानक नहीं हो सकता, एक जैसी नैतिकता नहीं हो सकती है, सार्वभौम के बहाने हमारे साहित्य में औपनिवेशिकता ने जिस तरह स्वातत्रत्तर आलोचना में प्रवेश किया है उससे मुक्त होने का रास्ता द्विवेदीजी के यहां से निकलता है। 'सार्वभौम' की खोज के आधार पर प्रेमचंद का टालस्टाय,लु शुन आदि के साथ तुलनात्मक अध्ययन किया गया,जो गलत है।

कालान्तर में यथार्थवाद संबंधी बहस के दौरान भी आलोचकों ने 'सार्वभौम' के तत्व के आधार पर साहित्य की आलोचना की। इसके कारण समूची बहस बहुत ही संकुचित दायरे में केन्द्रित होकर रह गयी। यथार्थ वही नहीं है जो किसी बड़े लेखक ने चुना है और बहस के केन्द्र मे है, साहित्य वह भी है जो सार्वभौम नहीं है ,अज्ञात है और बहस के दायरे के बाहर है।

द्विवेदीजी के उपन्यासों में नायक या हीरो कोई नहीं है,उनके उपन्यासों की समूची संरचना इस तरह तैयार की गई है कि उसमें वे हीरो की अवधारणा को ही खंडित करते नजर आते हैं। हीरो वह है जिसके अनुयायी भी हैं,यानी हीरो और अनुयायी ये दो केटेगरी उपस्थित होनी चाहिए। दोनों में भेद होना चाहिए। द्विवेदीजी के यहां हीरो और अनुयायी में भेद नहीं है। द्विवेदीजी के पात्र व्यक्ति और समुदाय की अनुभूतियों को व्यक्त करते हैं। द्विवेदीजी के उपन्यासों का वैशिष्टय यह है कि इन्हें आप जब भी पढ़ते हैं तो लेखक की मंशा से भिन्न व्याख्या करने लगते हैं।
   
द्विवेदी के उपन्यासों में सांस्कृतिक प्रतिरोध का नया मुहावरा रचा गया है। पहला मुहावरा उपन्यासों की भाषा में छिपा है,संस्कृतनिष्ठ हिन्दी के जरिए अपनी बात कहने का साहस और उसमें जनप्रिय मसलों को पेश करने की शैली विलक्षण है।

संस्कृतनिष्ठ हिन्दी का गद्य इस तरह रचा गया है कि आप सिर्फ भाषा में आनंद की अनुभूति कर सकते हैं।यह जातीयभाषा के दायरे के पहले की भाषिक संरचना है।यह जातीय भाषा के विवादास्पद दायरे को अस्वीकार करने वाली भाषा है। इस भाषा में उन तमाम भाषिक पक्षों का प्रतिवाद किया गया है जिनमें जातीयभाषा उलझती है।

इस भाषा का अपना आनंद है,इस गद्य को पढ़ते चले जाने से विचार और भाषा की अनंत भूख पैदा होती है।यह ऐसी भाषा है जो 'पूर्व प्रिंट युग' से जुड़ी है। द्विवेदीजी के उपन्यासों ने इस भाषा को एक नयी पहचान दी है। संस्कृतनिष्ठ भाषा का आनंददायी खेल प्रतिरोध के दूसरे चरण में नये किस्म के ताकतवर कथानक के साथ दाखिल होता है। द्विवेदीजी इसके बहाने कथानक की नयी स्टायल या शैली का निर्माण करते हैं,यह स्टाइल पहले कभी किसी उपन्यासकार ने इस्तेमाल नहीं की। इस कथाशैली के जरिए इतिहास के अछूते और उपेक्षित पहलुओं को द्विवेदीजी सामने लाते हैं। इस क्रम में वे स्वयं की कल्पना को भी मुक्त करते हैं। द्विवेदीजी के प्रतिरोधी स्वर का तीसरा आयाम है मानवता की मुक्ति और मानव समुदाय की मुक्ति। मानव जाति की अपनी परंपरा हैं,टिकाऊ जीवनशैली है,विचारों में वैविध्य है, जीवनशैली में वैविध्य है। किसी भी किस्म की इकसारता उनके चिन्तन का हिस्सा नहीं है।
        





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