मंगलवार, 9 फ़रवरी 2010

नामवरजी की आलोचना भक्तों की दासी है




 नामवर सिंह की आलोचना की सामान्य विशेषता है सच से पलायन। भक्तों को परेशानी हो सकती है। दो ही उदाहरण काफी हैं। कुछ साल पहले अलका सरावगी को जब साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला था तब नामवर जी ने कहा था विगत 50 सालों में ऐसा शानदार उपन्यास नहीं लिखा गया, हाल ही में अपने शिष्य पुरुषोत्तम अग्रवाल की किताब के लोकार्पण के अवसर पर कहा कि आलोचना में यह किताब हजारीप्रसाद द्विवेदी की लिखी कबीर किताब के बाद की सबसे श्रेष्ठ आलोचना किताब है। ये दोनों बयान तथ्य और आलोचना के अनुसार गलत हैं।सच यह है आलोचना में गलतबयानी के लिए नामवरजी जाने जाते हैं।
  सवाल यह है कि आलोचक की गलतबयानी का आलोचना पर क्या असर होता है ? गलतबयानी अफवाह है, इससे फासीवाद या प्रतिक्रियावाद का सामाजिक-वैचारिक आधार तैयार होता है। नामवरी टिप्पणियां यह काम सुंदर ढ़ंग से करती रही हैं। नामवरजी का इस तरह का चलताऊ भाव चेलों को मोटा बना सकता है,आलोचना को नहीं। यह ज्ञान का शासकीय तर्कशास्त्र है। इसका दूसरी परंपरा से कोई संबंध नहीं है। जरा नामवरजी अपने गुरुवर को याद करें शायद रास्ता नजर आए।
           
साम्राज्यवादी चिंतकों का मानना था सभ्यता और संस्कृति का प्रकाश भारत में तब आया जब उनका शासन आया, द्विवेदीजी ने इस धारणा का अपनी अनेक कृतियों में बार-बार खण्डन किया है। स क्रम में संस्कृति के विमर्श को औपनिवेशिकता और साम्राज्यवाद के पैराडाइम के बाहर ले जाते हैं। संस्कृति को साम्राज्यवादी निर्मिति नहीं मानते। संस्कृति के विमर्श को साम्राज्यवादी हमले और वर्चस्व के दायरे के बाहर ले जाकर विश्लेषित करते हैं। संस्कृति को औपनिवेशिक परिवेश के बाहर रखते हैं। साम्राज्यवादी विचारधारा के द्वारा किए गए लिंगभेद को भी नहीं मानते।

लिंगभेद की साम्राज्यवादी समझ है कि लिंगभेद स्वाभाविक है। वह जैसा है उसे वैसा ही मानो,बनाए रखो। साम्राज्यवादी विचारकों ने संस्कृति के विमर्श को लिंगभेद,राष्ट्रवाद, नस्ल, बॉयोलॉजी आदि के साथ जोड़कर पेश किया।संस्कृति के साथ ये सारे पदबंध द्विवेदीजी अस्वीकार करते है।संस्कृति को मानवीय विकास की ऐतिहासिक प्रक्रिया में रखकर परिवर्तनीय रूप में देखते हैं। बल्कि अनेक स्थानों पर संस्कृति को कारण और प्रभाव के दायरे से आगे ले जाकर ज्यादा जटिल रूप में देखते हैं।

द्विवेदीजी के लिए संस्कृति ज्ञान का आधार है,ज्ञान अर्जित करने का प्रकार है। इस क्रम में वे संस्कृति और ज्ञान के अन्तस्संबंध को उद्धाटित करते हैं। इसका प्रधान कारण यही है कि साम्राज्यवादी विचारकों के द्वारा संस्कृति के बहाने हमारे ज्ञान को ही प्रदूषित करने ,विकृत करने, साधारण जनता को ज्ञान से वंचित करने का प्रयास किया था,संस्कृति हमारे सांस्कृतिक रूपों का ही खजाना नहीं है,बल्कि ज्ञान का भी खजाना है,संस्कृति को जानने का अर्थ है नॉलेज सोसायटी में दाखिल होना।

संस्कृति के जरिए अवधारणा,वस्तु,विचार,मूल्य आदि के निर्माण की प्रक्रिया का ज्ञान होता है। यही वजह है कि वे सांस्कृतिक रूपों को प्रतिरोध के रूपों के तौर पर विकसित करते हैं। साम्राज्यवादी विचारकों ने संस्कृति को नस्ल,साम्प्रदायिकता, धर्म, राष्ट्रवाद और जीवन शैली से जोड़ा,इसके प्रत्युत्तर में द्विवेदीजी ने संस्कृति को ज्ञान और प्रतिरोध से जोड़ा।ज्ञान और प्रतिरोध उनकी अस्मिता की धुरी हैं। साम्राज्यवादी अस्मिता की धारणा में सब कुछ अनालोचनात्मक रूप से स्वीकार कर लेने का भाव है। जबकि द्विवेदीजी द्वारा वर्णित या निर्मित अस्मिता में आलोचनात्मक विवेक मूलाधार है।

इसके अलावा अस्मिता के लिए परिप्रेक्ष्य की धारणा का महत्व है। परिप्रेक्ष्य के आधार पर ही वे साम्राज्यवादी आधुनिकता से अपने को  अलगाते हैं। साम्राज्यवादी आधुनिकता में परिप्रेक्ष्य का कोई महत्व नहीं है।जो परंपरा में है वह सब कुछ स्वीकार्य है। जबकि द्विवेदीजी परिप्रेक्ष्य और चयन की धारणा का इस्तेमाल करते हैं। साम्राज्यवादी धारणा में संस्कृति के प्रति प्रभुत्व और उल्लंघन अथवा अवमानना  का भाव है। जबकि द्विवेदीजी के यहां संस्कृति के क्षेत्र में प्रभुत्व के विचार का अभाव है,वे एक नहीं अनेक संस्कृतियों की ओर संकेत करते हैं,सबके प्रति समान नजरिया अपनाते हैं। वे संस्कृति के निर्माण की प्रक्रिया में सत्ता की भूमिका को ज्यादा महत्व नहीं देते। इसके विपरीत संस्कृति की अन्तर्क्रियाओं को उद्धाटित करते हैं। संस्कृति की खोज में साम्राज्यवादी विचारकों के द्वारा सामाजिक और ऐतिहासिक अनुमानों का सहारा लिया गया है ,इसके विरीत द्विवेदीजी अनुमान की बजाय तर्क और प्रमाण को ज्यादा महत्व देते हैं।
     
साम्राज्यवादी चिन्तकों के यहां 'डिशकवरी' या खोज पर जोर है,अनुमान इसकी धुरी है। इसके विपरीत द्विवेदीजी आलोचना पध्दति के रूप में 'डिशकवरी' की धारणा की उपेक्षा करते हैं।इसके प्रत्युत्तर में ऐतिहासिक नजरिए से संस्कृति की व्याख्या और परिवर्तनों को सामने लाते हैं, वे जाने-अनजाने यह संदेश भी देते हैं कि संस्कृति हमारी स्मृति और विलुप्त स्मृति है। इसे खोज के जरिए नहीं बल्कि ऐतिहासिक नजरिए से परंपरा की निरंतरता के क्रम में ही पढ़ा जाना चाहिए। द्विवेदी जी भारतीय समाज और संस्कृति की इमेज को भारतीय अवधारणाओं, इमेजों,प्रतीकों आदि में पेश करते हैं।
क्या नामवरजी आरंभ में उल्लिखित लेखकों के संदर्भ में ऐसा कुछ भी करते हैं ? जी नहीं, नामवरजी ने आलोचना को भक्तों की दासी बना दिया है।

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