हाइपरटेक्स्ट का एक अन्य महत्वपूर्ण पहलू है 'लिंक' अथवा स्रोत। 'लिंक ' के बिना हाइपरटेक्स्ट संभव नहीं है। जितने ज्यादा लिंक अथवा स्रोत हों उतना ही सुंदर हाइपरटेक्स्ट होता है। इसी अर्थ में हाइपरटेक्स्ट को लिंक का विज्ञान अथवा लिंक का प्रबंधन भी कहा गया है।
द्विवेदीजी ने '' हिन्दी साहित्य का आदिकाल'' और ''मध्यकालीनबोध का स्वरूप'' नामक कृतियों में प्रत्येक व्याख्यान में जिस तरह रोचक और आकर्षक ढ़ंग से लिकों को पेश किया गया है वह दुर्लभ है। ऐसा सिर्फ इंटरनेट पर उपलब्ध हाइपरटेक्स्ट में ही देख सकते हैं।
लिंक अन्य से संबंध बनाने का संसाधन है।'लिंक' वस्तुत: अपने आरंभ से लेकर लक्ष्य की सीमा तक फैला हुआ है।इसका एक सिरा वह है जहां पाठ का अंश है,वहां से बात शुरू हो सकती है और हाइपर टेक्स्ट पर जाकर खत्म होती है। 'लिंक' का क्षेत्र 'नोड' तक फैला है। वह इसका स्रोत है।यह भी संभव है कि ज्यों ही आप माउस में क्लिक करें तुरंत दूसरा छोर या अन्य सामग्री सामने आ जाए।
हजारीप्रसाद द्विवेदी अपने व्याख्यानों में पाठ की महाव्यवस्था यानी ग्राण्डसिस्टम बनाते हैं। यह सिस्टम पहले कभी किसी ने नहीं बनाया और बाद में भी किसी हिन्दी लेखक के गद्य में इस महाव्यवस्था के दर्शन नहीं होते। इस परिप्रेक्ष्य में देखें तो द्विवेदी जी पाठ की व्यवस्था का अतिक्रमण करके हाइपरटेक्स्ट अथवा महापाठ की महाव्यवस्था का निर्माण करते हैं। यह महाव्यवस्था आज इंटरनेट रूपी महामीडिया का बुनियादी आधार है।
हाइपरटेक्स्ट और हजारीप्रसाद द्विवेदी के पाठ में एक और समानता है कि इन दोनों का चरित्र राजनीतिक है। जिस तरह हाइपरटेक्स्ट हमेशा राजनीतिक होता है उसी तरह हजारीप्रसाद द्विवेदी का पाठ भी हमेशा राजनीतिक होता है। हजारीप्रसाद द्विवेदी की उल्लिखित दोनों किताबें मूलत: हिन्दी के पाठ का परंपरा के उन रूपों से संबंध जोड़ती हैं जिनके बारे में पहले जानकारी नहीं थी। फलत: इतिहास का पैराडाइम ही बदल जाता है।
हाइपरटेक्स्ट के निर्माता जिस तरह साहित्य की सैध्दान्तिकी के साथ उसका संबंध जोड़ रहे हैं तकरीबन यही काम अपने व्याख्यानों के जरिए द्विवेदीजी ने किया है। वे अपने व्याख्यानों के जरिए साहित्य की सैध्दान्तिकी का एक नया पैराडाइम बनाते हैं। इस पैराडाइम का आधार पाठक है।
द्विवेदीजी के पाठ में युध्दोत्तर दौर में पैदा हुए नई वैचारिक संरचनाओं के लक्षण अथवा फिनोमिना भी देख सकते हैं। युध्दोत्तर दौर में तीन बातें हैं जो खासतौर पर उभरकर आई हैं, ये चारों तत्व डिजिटल युग की विशेषताएं भी हैं, ये हैं- 1. विकेन्द्रीकरण, 2. सद्भाव और 4. सशक्तिकरण। ये तीनों तत्व ''हिन्दी साहित्य का आदिकाल'' में साफतौर पर देखे जा सकते हैं।
यहीं पर हमें 'पुस्तक' और 'हाइपरटेक्स्ट' के अन्तस्संबध और अंतर पर गौर करना चाहिए। सतह पर इन दोनों में साम्य है।किंतु प्रस्तुति भिन्न रूप में होती है।मसलन् जरूरी नहीं है कि पुस्तक को रेखीय क्रम से ही पढ़ा जाए। रेखीय क्रम से ही लिखा जाए। आप चाहें तो टुकड़ों में,अंशों में भी अपनी बात लिख सकते हैं।
कुछ हाइपरटेक्स्ट सिध्दान्तकारों के अनुसार हाइपरटेक्स्ट को उद्धाटन करने वाला,तर्कवादी होना चाहिए। उसमें उपन्यास के तत्व भी होते हैं। मसलन् चरित्र और कहानीपन भी होता है।अधिकांश पुस्तकों में स्पष्टता होती है जिसके कारण पाठक उसे पेज-दर-पेज पढ़ता है।
'पुस्तक' और 'हाइपर टेक्स्ट' में यह दबाव होता है कि उसे तार्किक ढ़ंग से पढ़ा जाए। तार्किक रूप में पेश किया जाए। पाठक जब पढ़ता है तो उसकी मांग और निष्कर्ष के बीच तनाव आता है। हाइपर टेक्स्ट उसके सामने मार्ग खोलता है।इन मार्गों पर जाकर वह खोज कर सकता है।जांच कर सकता है।
'पुस्तक' अपने मुद्दे,तर्क,प्रतिपक्ष की राय,फुटनोट आदि को सीधे पेश करती है। जबकि 'हाइपर टेक्स्ट' इन सबको संक्षेप में पेश करता है। 'हाइपर टेक्स्ट' में रूपरेखा या 'आउट लाइन' रहती है। संक्षेप में तर्क रहते हैं। कुछ विषयों पर विस्तार भी होता है जो ठोस स्थानों और बहुत सारी इमेजों के साथ होता है। ये वे बातें होती हैं जिन्हें पुस्तक में बताया गया होता है। मूलत: यहां प्रथम व्यक्ति का वर्णन ही उपलब्ध होता है।यहां पाठक को लगता है कि वह ज्यादा आत्मसजग और आत्मालोचक है। हाइपर टेक्स्ट के अनेक रूप उपलब्ध हैं। यहां पाठ को व्यवस्थित करने,उसमें परिवर्तन करने के अनेक रूप उपलब्ध हैं। जिसके कारण पाठ की रीडिंग के समय ध्यान खींचा जा सकता है।
आज 'पुस्तक' का'हाइपर टेक्स्ट' पर बहुत सारा दबाव है।इसके बावजूद 'हाइपर टेक्स्ट' को पुस्तक नहीं कहा जा सकता। दोनों का लक्ष्य है पाठक के सामने विषय का नए रूप में उद्धाटन। ज्यादा व्यापक पाठ का उद्धाटन।
'हाइपर टेक्स्ट' में ऐसे भी पाठ हो सकते हैं जिनका कोई निष्कर्ष ही न हो। इस तरह के पाठ विभिन्न किस्म के पाठकों के सामने खुले होते हैं। वे पुस्तक से ज्यादा चीजें पेश करते हैं। इन्हें पढ़कर आश्चर्य की सृष्टि होती है। यह कार्य वे तर्क के संकीर्ण दायरे के फोकस को तोड़ते हुए करते हैं। वे पाठक को घोषित निष्कर्ष से परे ले जाते हैं। कितु समस्या यह है कि पाठक के अनुभवों को 'हाइपर टेक्स्ट' किस हद तक अभिव्यक्ति दे पाता है। लिखित और रचनात्मक रीडिंग में जब खेल होता है तब क्या होगा ?इसका परिणाम अंतत: व्यापक हाइपर टेक्स्ट ही होगा।यह पुस्तक के रूप से ज्यादा बड़ा होगा।
सवाल यह है कि आपकी उम्मीदें किस तरह की हैं ?क्या लेखक के पास लम्बे पाठ का पाठक मौजूद है ?'हाइपर टेक्स्ट' की सबसे मुश्किल समस्या यह है कि प्रत्येक पाठ को कुछ खास 'नोडस' पर जाना होगा। उसे 'नोडस' का सामना करना होगा। 'हाइपर टेक्स्ट' स्वयं प्रतिबिम्बित हो इसके लिए जरूरी है कि वह 'मल्टी नोडस' में अपना तर्क पेश न करे। तर्क और उद्धाटन के लिए जरूरी है कि ढ़ांचा हो, यह ढ़ांचा रेखीय होना चाहिए। जिससे चीजों का क्रमश: जबाव दिया जा सके। उन्हें क्रमबध्द रूप में रखा जा सके। उन्हें ऐसे लिखा जाए जैसे दार्शनिक पाठ लिखा जा रहा हो।कुछ लेखक इस पध्दति को लागू करते हैं। किंतु कुछ लेखक पुस्तक में पाठक के आश्चर्य को शांत करने लिहाज से विशेष ढ़ंग के तर्क देते हैं।
मसलन् किसी बात पर कबीर को उध्दृत करेंगे तो उसके समर्थन में तुलसी को पेश करेंगे। इस तरह की लेखकीय प्रवृत्ति दर्शन में नहीं मिलेगी। खासकर 19वीं शताब्दी के छोटे निबंधों में यह प्रवृत्ति एकदम गायब है। किंतु द्विवेदीजी के व्याख्यानों में इस पध्दति का व्यापकतौर पर इस्तेमाल किया गया है।
'हाइपर टेक्स्ट' पाठ चारों ओर से खुला और फैला होता है। लिखित रूपरेखा से भिन्न दिशा में ले जाता है। अन्तर्संबंधित विषयों की ओर ले जाता है। इसके कारण इसके नरेटिव में भी अन्तर संबंध होता है। कुछ बातें ऐसी भी लिखी मिल जाएंगी जो लिखित रूपरेखा के बाहर हो सकती हैं।इन अंशों तक जाने के लिए नोडस के संपर्क में जाना होगा। खुली एप्रोच से काम लेना होगा। निष्कर्ष निकाले बगैर पढ़ना होगा। चाहें तो बाद में निष्कर्ष निकाल सकते हैं।जब आप कोई छोटा सा हाइपरटेक्स्ट निबंध पढ़ते हैं तो उसमें अनेक अन्तर-संबंधित क्षेत्रों के लिंक दिए रहते हैं। ये विभिन्न नोड्स में होते हैं।इन्हें आप जाकर खोलिए तो आपको किसी न किसी मुद्दे पर सामग्री मिल जाएगी।यहां अनेक रास्ते हैं। अनेक बिन्दु हैं जिनके साथ आप तर्क कर सकते हैं।
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