मंगलवार, 16 फ़रवरी 2010

हिन्दी के शत्रु हैं नोट्स-कुंजी और भोंदू प्रोफेसर

 साहित्य की नयी आलोचना और इतिहास दृष्टि के निर्माण के लिए जरूरी है कि साहित्य की नयी धारणा बनायी जाय।साहित्य की नयी धारणा नयी सामाजिक परिस्थितियों के गर्भ से पैदा होती है। 

हजारीप्रसाद द्विवेदी ने साहित्य की प्रचलित मान्यताओं से भिन्न साहित्य की एकदम नयी धारणा दी। यह धारणा ऐसे दौर में आई जब सारी दुनिया में मानवाधिकारों का व्यापक हनन हो रहा था,मानवतावाद पर हमले हो रहे थे। 

उस समय साहित्य के बारे में यह माना साहित्य जाता था कि वह जनता से जुड़ा है,उसकी चित्तवृत्ति का प्रतिबिम्ब है,साहित्य समाज का दर्पण है,इत्यादि।द्विवेदीजी ने इन सब धारणाओं से आगे जाकर साहित्य की नयी धारणा दी ,साहित्य के नए सरोकार तय किए, मनुष्य,मानवतावाद और सामंजस्य ये तीन प्रधान तत्व है जो साहित्य की नयी धारणा की धुरी हैं। 

द्विवेदीजी के शब्दों में '' सारे मानव-समाज को सुन्दर बनाने की साधना का ही नाम साहित्य है। सौन्दर्य को ठीक से समझने से ही आदमी सौन्दर्य का प्रशंसक और स्रष्टा बन सकता है।'' साहित्य का काम पहले मनोरंजन देना था,प्रतिबिम्बन करना था, किंतु नयी भूमिका आदमी बनाने की है। 

मनुष्य तब ही मनुष्य बनता है जब वह पाशविक वृत्तियों से अपने को मुक्त कर ले। द्विवेदीजी ने मनुष्य को व्यक्ति के रूप में सम्बोधित करने की बजाय 'मनुष्य जाति' के रुप में सम्बोधित किया। द्विवेदीजी ने लिखा '' बड़ी चीज वह है,जो मनुष्य को आहार-निद्रा आदि पशु-सामान्य मनोवृत्तियों से ऊपर उठाती है,जो उसे देवता बनाती है।साहित्य का कार्य यही है।''

 इसी प्रसंग में एक और महत्वपूर्ण तथ्य की ओर द्विवेदी जी ने ध्यान खींचा है,लिखा है '' जो कुछ घटता है वह सत्य ही नहीं होता-सभी तथ्य सत्य नहीं होते।''

 साहित्य की नयी परिभाषा बनाते समय यह बात द्विवेदीजी के पहले किसी के दिमाग में नहीं आयी कि साहित्य को अपने पाठकवर्ग का भी निर्माण करना होता है। साहित्य की उनकी परिभाषा असल में पाठक केन्द्रित है। अभी तक कृति केन्द्रित अथवा लेखक केन्द्रित या अमूर्त रूप में समाज केन्द्रित परिभाषा का प्रचलन था। पहलीबार आलोचना में पाठक केन्द्रित परिभाषा और पाठक के निर्माण की जरूरत के अहसास को किसी आलोचक ने सामने रखा।

द्विवेदीजी ने लिखा '' आज की सबसे बड़ी समस्या यह नहीं है कि अच्छी बात कैसे कही जाय; बल्कि अच्छी बात को सुनने और मानने के लिए मनुष्य को कैसे तैयार किया जाय।'' द्विवेदीजी प्रतिक्रियावादियों की तरह हिन्दीवादी नहीं थे,वे हिन्दी के उत्थान के नाम पर साधारण जनता को हिन्दी-हिन्दी का राग अलापने और उत्तोजित करने के पूरी तरह खिलाफ थे। हिन्दी की सेवा के नाम पर होने वाली धंधेखोरी और भावुकता से उन्हें सख्त नफरत थी।

 हिन्दीवादी तत्वों को ध्यान में रखकर द्विवेदीजी ने लिखा '' हम लोग जब हिन्दी 'सेवा' की बात सोचते हैं तो प्राय: भूल जाते हैं कि यह लाक्षणिक प्रयोग है।हिन्दी की सेवा का अर्थ है उस मानव- समाज की सेवा,जिसके विचारों के आदान-प्रदान का माध्यम हिन्दी है।मनुष्य ही बड़ी चीज है ,भाषा उसी की सेवा के लिए है।''

 इसी प्रसंग में एक अन्य महत्वपूर्ण बात की ओर ध्यान खींचा, लिखा, '' जब कभी आप किसी विकट प्रश्न के समाधान का प्रयत्न कर रहे हों तो इन्हें सीधे देखें।अमरीका में या जापान में ये समस्याएँ कैसे हल हुई हैं, यह कम सोचें;किन्तु असल में ये हैं क्या और किस या किन कारणों से ये ऐसे हो गए हैं,इसी को अधिक सोचें।''

 '' हिन्दी की उन्नति का अर्थ उसके बोलने और समझने वालों की उन्नति है।'' हिन्दी के लेखकों,आलोचकों और प्राध्यापकों में एक सामान्य बीमारी है कि वे हिन्दी साहित्य,हिन्दी भाषा का ही अहर्निश राग अलापते रहते हैं। वे अन्य चीजों से बेखबर रहते हैं,साहित्य के नाम पर परंपरागत विधाओं का ही जाप करते रहते हैं। ज्ञान-राशि के नाम पर इसकी ही व्याख्या में लगे रहते हैं।

हमारे समाज में साहित्य साधना का यह रुप काफी पुराना है,हम अभी तक साहित्य साधना की पुरानी रूढ़ि से अपने को मुक्त नहीं कर पाए हैं।नए किस्म की साधना के लिए इससे मुक्ति जरूरी है। द्विवेदीजी ने इस तरह की समस्या को ही ध्यान में रखकर लिखा था, '' आज साहित्य को कल्पना-विलास की सामग्री समझना खतरनाक है।नवीन साहित्यकारों को ज्ञान-विज्ञान के सभी क्षेत्रों में रस-संग्रह की आवश्यकता है।ज्ञान-विज्ञान -जो देश और काल में व्याप्त है। कबीरदास ने ऐसे ही साधक को शूर कहा था जो आठों पहर मस्त बना रहता है और अतीत और वर्तमान में संचित होनेवाली ज्ञान-राशि का सार ग्रहण करता है,उसे सहज बनाकर दुनिया को देता है। जो ऐसा नहीं कर सकता उसकी साधना अधूरी है।नवयुग के साहित्यकारों को इस तत्व को बराबर स्मरण रखना चाहिए।'' 

हिन्दी के प्राध्यपकों में प्रतिस्पर्धात्मक प्रतियोगिताओं और साहित्य के अध्ययन-अध्यापन के शार्टकट के रुप में 'नोटस' और 'कुंजी की प्रथा चल निकली है। द्विवेदीजी ने लिखा '' नोटों और कुंजियों को उत्पन्न करनेवाली मनोवृत्ति का निर्दयतापूर्वक दमन कर देना चाहिए।'
      



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