शनिवार, 13 फ़रवरी 2010

स्त्री शरीर और प्रेम का साहित्यिक पहाड़ा




  स्त्री का शरीर न होता तो काव्य कैसा होता ? प्रेम कैसा होता ? क्या पुरुष स्त्री से प्रेम करता ?समाज कैसा होता ? वैषम्य की सारी जंग स्त्री शरीर या शरीर पर वर्चस्व बनाए रखने के साथ जुड़ी है। पितृसत्ता का सारा वैचारिक दांव स्त्री शरीर पर ही लगा है और हमारी आलोचना स्त्री शरीर को एकसिरे से ठुकरा रही है। कालिदास और सूरदास की महानता इस बात में नहीं है कि वे प्रेम को शारीरिक आकर्षण के दायरे से बाहर ले जाते हैं,बल्कि इन दोनों लेखकों की महानता इस तथ्य में निहित है कि वे स्त्री के तन और मन दोनों का वायवीय की बजाय ठोस चित्रण करते हैं,स्त्री को वायवीय नहीं बनाते, मानवीय बनाते हैं,स्त्री के शरीर को वैराग्य के हवाले नहीं करते,प्रेम के हवाले करते हैं। वैराग्य पितृसत्ता का अस्त्र है,प्रेम का शत्रु है।वैरागी प्रेमी नहीं हो सकता है।प्रेम के लिए वैराग्य से मुक्ति जरूरी है। कालिदास से लेकर तुलसी,सूर,मीराबाई आदि का साहित्य वैराग्य की शिक्षा नहीं देता।
     
स्त्री के शरीर का सामने आने का अर्थ है वैषम्य का सामने आना,सामाजिक वैषम्य का सामने आना, प्रेम में जब लेखक स्त्री शरीर को शामिल करता है तो वह जाने-अनजाने सामाजिक वैषम्य को सामने लाता है। संस्कृत काव्य के सभी लेखकों ने स्त्री के शरीर का वर्णन करते हुए स्त्री शरीर के  अग्रभाग को अपने चित्रण के केन्द्र में रखा है। पृष्ठभाग को चित्रण में ज्यादा महत्व नहीं दिया है। खासकर कालिदास ने यह काम काफी किया है।

कालिदास की रचनाओं के जो अंश द्विवेदीजी को पसंद नहीं हैं ये वे अंश हैं जो स्त्री शरीर और शारीरिक प्रेम से संबंधित हैं। द्विवेदी जी की आलोचना में इन्हीं हिस्सों की पुंसवादी व्याख्या भी पेश की गई है।इसीलिए उन्होंने लिखा '' जो प्रेम शारीरिक आकर्षण से उत्पन्न हुआ था, उसमे अशुभ भविष्य का बीज छिपा हुआ था।''  इस संदर्भ में बुनियादी सवाल यह है कि संस्कृत के रचनाकारों खासकर कालिदास वगैरह के यहां स्त्री के जिस रूप का चित्रण है अथवा श्रृंगार रस में स्त्री के जिस रूप का चित्रण है,उसे कैसे पढ़ें ? क्या उसकी स्त्रीवादी रीडिंग संभव है ?हमारे पास कामसूत्र से लेकर श्रृंगार रस तक सबकी पितृसत्तात्मक रीडिंग है किंतु स्त्रीवादी रीडिंग नहीं है।
स्त्री के शरीर को रचना और जीवन में पढ़ने या देखने अर्थ है स्त्री की अस्मिता को समझना,स्त्री का शरीर खासकर उसका अग्रभाग का वर्णन या चित्रण स्त्री की अस्मिता और पहचान का बड़ा आधार है।

स्त्री के अग्रभाग के चित्रण पर जोर देने का अर्थ है उसकी अस्मिता पर जोर देना,स्त्री और पुरुष के बीच जो वैषम्य है उसे स्वीकार करना, स्त्री के शरीर का अग्रभाग वैषम्य की अभिव्यक्ति है। यदि स्त्री के पृष्ठभाग को उभारा जाता है तो उससे भेद सामने नहीं आता। स्त्री के अलंकारों को उभारा जाता है तो उससे भेद सामने नहीं आता,स्त्री का शरीर अगर उसमें भी अग्रभाग उसकी पहचान का प्रतीक है।स्त्री का पृष्ठभाग उसकी पहचान को छिपाता है।

स्त्री के पृष्ठभाग के रुपायन का अर्थ है कि वह पेसिव है,समर्पित है, जिसे भाव या इशारे से बुलाया जा सकता है। कालिदास जैसे लेखकों की महानता का रहस्य प्रेम के वैराग्य वाले अथवा गैर-शारीरिक पक्ष में नहीं है। बल्कि कालिदास प्रेम की उस धारणा का खंडन करते हैं जिसमें प्रेम के एक ही रुप की चर्चा है।

कालिदास प्रेम को वायवीय अथवा आत्मा के दायरे की कैद से मुक्त करते हैं।प्रेम के एकाधिक रूपों का चित्रण करते हैं। प्रेम एक किस्म का नहीं होता,  उसके अनेक किस्म हैं। कोई लेखक जब ठोस रुप में शरीर को पेश करता है तो सामाजिक जीवन में मौजूद कामुक विभाजन को भी पेश करता है। पुरूष का यह गुण माना जाता है कि वह चीजों का सामना करे,मुकाबला करे,दूसरे पुरुष को देखे, पुरुष की आंखों में आंखें डालकर बातें करे,सार्वजनिक तौर पर बोले।

जबकि औरत को सार्वजनिक स्थान से दूर रखा गया,सार्वजनिक तौर पर अपने हाव-भाव की अभिव्यक्ति न करे, शर्माए।आप देखेंगे कि जब औरत सार्वजनिक स्थान में चलती है तो उसकी नजर नीचे गड़ी होती है।वह जब बोलती है तो अमूमन यही कहती है कि मैं नहीं जानती। कांपती आवाज में बोलती है अथवा भ्रमित भाव से बोलती है। इसके विपरीत पुरुष की आवाज निर्णायक,स्पष्ट और दावे से भरी होती है।

सवाल यह है कि क्या कालिदास इस तरह के स्त्री चरित्रों का निर्माण करते हैं ? क्या स्त्री के प्रति कालिदास का रूख मर्दवादी है ?कालिदास की रचनाओं की धुरी स्त्री है,उसका संसार है,मन है,यही स्थिति कमोबेश बाल्मीकि की है। श्रृंगार का सबसे सुंदर चित्रण करने वालों के यहां सबसे कम जिस तत्व या चीज पर शक्ति खर्च की गई है वह है संभोग का चित्रण। संभोग का क्षेत्र पुंस प्रभुत्व का क्षेत्र है।
           
श्रृंगार का चित्रण स्त्री के व्यक्तित्व की स्थापना का औजार है। स्त्री की अस्मिता सृजन में बनाए रखने का श्रेय श्रृंगार रस के लेखकों को है। हम चाहें या न चाहें किंतु यह सच है कि यदि परंपरा से श्रृंगार साहित्य को निकाल देंगे तो हमारे पास कुछ भी नहीं बचेगा।

श्रृंगार रस का एक पक्ष आनंद से जुड़ा है तो दूसरा स्त्री से जुड़ा है। श्रृंगार साहित्य के केन्द्र में स्त्री है और उसका शरीर है। हमें गंभीरता के साथ इस तथ्य पर विचार करना चाहिए कि आखिरकार ऐसा क्यों हुआ कि मध्यकाल में सामंती व्यवस्था में रहते हुए स्त्री को हम गायब नहीं कर पाए ? स्त्री सृजन के केन्द्र में बनी रही। श्रृंगार रस और कामसूत्र का असर अंतत: किसके विमर्श को केन्द्र में लाता है ? स्त्री को केन्द्र में लाता है।स्त्री के वैषम्य को,उसकी अस्मिता,इच्छा और अधिकारों को केन्द्र मे लाता है। श्रृंगार रस में खासकर कालिदास जैसे लेखकों के यहां स्त्री गतिशील है,अगतिशील नहीं है।

नामवर सिंह ने 'दूसरी परंपरा की खोज' में लिखा है, ''प्रेम का ही दूसरा नाम माधुर्य भाव है।'' समस्या पर्यायवाची शब्द की नहीं है। समस्या यह है कि क्या स्त्री के लिए 'माधुर्य' का अर्थ वही है जो पुरूष के लिए है ? स्त्री के लिए सब दशाओं में दमनीय होने का अर्थ है माधुर्य। अर्थात् स्त्री का वह रुप जो हर समय सुंदर लगे। इसके विपरीत पुरुष के लिए माधुर्य का अर्थ है घबराहट के क्षणों में भी न घबड़ाना।

इसी तरह अन्य शब्दों के संदर्भ में भी हमें विचार करना चाहिए। संस्कृत साहित्य में ऐसे बहुत सारे शब्द और भाव हैं जो लिंग की पहचान से जुड़े हैं। यह कैसे संभव है कि भाषा ,विचार और भाव को लिंग से अलग करके देखा जाए।

साहित्य में व्यक्त विचार, भाव और भाषा का लिंग की पहचान के साथ गहरा संबंध है। लिंग की पहचान के साथ संबंध के कारण इनमें बुनियादी अर्थभेद पैदा हो जाता है। हमारी आलोचना का नजरिया लिंग के परिप्रेक्ष्य में सिर्फ पुंसवादी है अथवा एकायामी है। हमारी आलोचना ने प्रेम अथवा श्रृंगार को कभी स्त्री के नजरिए से नहीं देखा, पुंसवादी अथवा पितृसत्ता के विरोध की विचाराधारा के रूप में नहीं देखा।

कालिदास की रचनाएं प्रेम और पितृसत्ता के अन्तर्विरोधों को एक ही साथ अभिव्यक्ति देती हैं। श्रृंगार रस के माध्यम से विलासिता और कामुकता के तत्वों पर इस कदर जोर दिया गया कि लेखक यह भूल ही गया कि वास्तविक जीवन में स्त्री को कोई अधिकार नहीं हैं। ऐसी स्थिति में प्रेम की रचनाएं स्त्री को वायवीय बना देती हैं।वायवीय प्रतिरोध को व्यक्त करती हैं।इससे सत्ता को कोई चुनौती नहीं मिलती।

कामुकता और प्रेम का इतने बड़े पैमाने पर कृतियों में उत्पादन यह संकेत भी देता है कि रचनाकार सामाजिक तौर पर विच्छिन्न है। स्त्री के शरीर और नख-शिख वर्णन में इस कदर खो गया  कि उसका वास्तविक जीवन से कोई संबंध ही नही रह गया। इसके कारण वह ज्यादा से ज्यादा परफेक्शन की ओर गया,स्त्री का परफेक्शन के चरम क स्पर्श करते-करते अवस्था यह हुई कि स्त्री गायब हो गई और लेखक के हाथ में निर्वैयक्तिक शिल्प और काम-क्रीड़ाएं ही रह गयीं।

 प्रेम या काम के जो रूप उसने रचे वे अंतर्विरोध रहित हैं,वे उसकर निर्वैयक्तिक कारीगरी के नमूने हैं। यह उसके रचनाशिल्प का इकतरफा रूप है। हजारीप्रसाद द्विवेदी ने कुमारसंम्भव का मूल्यांकन करते हुए जो निष्कर्ष निकाला है,वह पितृसत्तात्मक आलोचना का आदर्श नमूना है।

 जबकि स्त्रीवादी नजरिए से कुमारसंभव में उमा और शिव का प्यार स्त्री -पुरुष की रहस्यात्मक एकता और भेद को व्यक्त करता है। यहां प्यार में संतुष्टि अथवा असंतोष की भावना व्यक्त नहीं हुई बल्कि एक-दूसरे की इच्छाएं स्वायत्त रुप में  व्यक्त हुई हैं। इच्छाओं का स्वायत्त रूपायन यह दर्शाता है कि वे एक-दूसरे को अच्छी तरह जानते हैं। इस तरह के प्यार में जोखिम भी नही होता।

प्यार इस तरह की रचनाओं में अकस्मात् व्यक्त होता है।इससे लेखक की ऊर्जा बढ़ती है और आत्मनियंत्रण में वृध्दि होती है। जब लेखक ने उमा-शिव के अंतर को पेश किया तो वह वस्तुत: प्रेमी-प्रेमिका के शारीरिक अंतर को ही दर्शा रहा था। यह भी बताया कि प्रेम की संवेदना अलग-अलग होती है पर लक्ष्य एक ही होता है । संस्कृत की रचनाओं में प्रेमिका की पीड़ा का वर्णन अधिक हुआ है किंतु कालिदास ने विरह में पुरूष की पीड़ा का वर्णन करते हुए पूरा एक महाकाव्य ही रच डाला,जिसे हम मेघदूत के नाम से जानते हैं।
     



कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें