निजी जीवन के विशिष्ट अनुभवों की सार्वजनिक अभिव्यक्ति पर जोर दिया जाता है। किंतु विशिष्ट निजी का उदय तब तक संभव नहीं है जब तक निजी परिवेश का नया रूप पैदा न हो। पितृसत्तात्मक सद्भावनापूर्ण परिवार का आंतरिक संसार सामने आ जाता है,निजी जैसी कोई चीज नहीं बचती।इस प्रक्रिया को सघन बनाने में व्यक्तिवाद की बड़ी भूमिका है। फलत: ऑडिएंस केन्द्रित निजी व्यक्ति को बढ़ावा दिया गया। ऑडिएंस केन्द्रित निजी व्यक्ति को बढ़ावा देने का सीधा संबंध संस्कृति के वस्तुकरण की प्रक्रिया से है, यह प्रक्रिया बहस का माहौल बनाती है। निजी मसलों को बहसतलब बनाती है और इसी के अनुरूप राजनीतिक संस्कृति भी पैदा करती है।
नया वातावरण का मूल तत्व है आत्मप्रशंसा अथवा निजी गुणगान। कथासाहित्य में आत्मगत भावनाओं की अभिव्यक्ति में इसका व्यापक प्रसार सहज ही देखा जा सकता है। अभिव्यक्ति का यह रूप प्रेस की प्रकृति में आसानी से फिट बैठता है। यही साहित्य में भी अपील बनाता है। इससे साहित्य को बृहत्तार पाठकवर्ग तक पहुँचने में मदद मिलती है।
आजादी के बाद का जो सार्वजनिक वातावरण बना है उसकी सबसे बड़ी उपलब्धि है समानता की अवधारणा का जनप्रिय होना और संविधान की नजर में सबको समानता प्राप्त है,इस चीज का जनप्रिय बनना। आजादी के पहले वैषम्य के प्रचार पर जोर था। आजादी के बाद समानता पर जोर है। आज हमारे देश में समानता मूल्य का रूप अर्जित कर चुकी है। आप किसी भी जाति,धर्म आदि के हों,कोई भी सामाजिक हैसियत रखते हों ,संस्थान की नजरों में समान हैं। दूसरा बड़ा परिवर्तन यह आया है कि अनेक सामाजिक समुदायों ने अपने को धर्म की पकड़ या गिरफ्त से बाहर कर लिया है। ये लोग नए साझा मीडियाजनित तार्किक और वाचिक संचार के आधार पर संवाद और संपर्क कर रहे हैं। तीसरा बड़ा परिवर्तन यह हुआ है कि आप चाहे जितना छिपाएं कोई भी चीज छिपने वाली नहीं है। आमलोगों में चर्चा के केन्द्र में रहेगी और उसके तथ्यों और तर्कों से वे वाकिफ होंगे। अब प्रत्येक के जीवन में व्यक्ति शिरकत कर सकता है। प्रत्येक चीज प्रचार के केन्द्र होगी और सार्वभौम और विशिष्ट होगी।
निजी परिवेश का बहुत गहरा संबंध निजी संपत्ति संबंधों से है। व्यक्ति की निजता और निजी संपत्ति के बीच गहरा संबंध है। यह संबंध ही है जो बुर्जुआ परिवेश के मॉडल में तनाव बनाए रखता है। अमूर्त नैतिक तर्कों और ठोस तार्किकता के बीच फांक बनाए रखता है। प्राइवेसी और परिवार के साथ बाजार की जरूरतों के अनुसार संबंध बनता है। व्यक्ति की निजी अस्मिता जो सार्वजनिक जीवन में दिखाई देती है,उसको मानवीयता के आधार पर नहीं बल्कि संपत्ति और हैसियत के आधार पर देखा जाता है।
संपत्ति,आय,साक्षरता,सांस्कृतिक पृष्ठभूमि आदि मुख्य बाधाएं हैं जिनके कारण लोग सार्वजनिक बुर्जुआ परिवेश में शिरकत करने में बाधाएं महसूस करते हैं। इसके कारण औरत,अल्पसंख्यक और दलित की शिरकत भी प्रभावित होती है। ये असल में आधुनिकता के छंटनी के उपकरण हैं। फलत: बुर्जुआ सार्वजनिक वातावरण में समानता और शिरकत के क्षेत्र में आंशिक सफलता मिलती है। कल्याणकारी पूंजीवाद में हमें उन पक्षों पर सोचना चाहिए जो छांट दिए जाते हैं अथवा अचर्चित हैं।
छंटनी के बिना आधुनिकता तैयार नहीं होती। छंटनी आधुनिकता की धुरी है। आधुनिकता में किसी चीज का शामिल होना अपने आप में बड़ी चीज नहीं है बल्कि छंटनी बड़ी चीज है। हिन्दी आलोचना में छंटनी के उपकरण् व्यापक प्रयोग मिलता है। यह उपकरण आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के जमाने से ही जमकर इस्तेमाल होता रहा है। छंटनी के उपकरण का अंतत: असर यह हुआ कि आज आलोचना और आलोचक पूरी तरह हाशिए पर चले गए हैं। अब ज्यादा बेहतर आलोचना वे लोग लिख रहे हैं जो पेशेवर आलोचक नहीं हैं, साहित्य के पेशेवर रक्षक अथवा संरक्षक नहीं हैं।
बढ़िया कथ्य है.
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