सोमवार, 8 मार्च 2010

औरत क्या है ?

     औरत क्या है ? इस सवाल को तरह -तरह से व्याख्यायित किया गया है। जूलिया कृस्त्वा ने लिखा है कि औरत क्या है ? इस सवाल का कोई जबाव नहीं दिया जा सकता। औरत नाम की कोई चीज नहीं होती। यह विषय हमेशा प्रक्रिया में सामने आता है फलत: उसकी पहचान के अनेक रूप हैं। उस पर पिता के मनमाने कानून थोप दिए जाते हैं यही वजह है कि वह उसके प्रति ही जबावदेह है। वह अनेक विषयों के लिए खुली है, अनेक संभावनाओं के लिए खुली है।
     कृस्त्वा ने स्त्रीत्व की धारणा के इस्तेमाल पर जोर दिया है। मोनिका वीटिंग की राय है  औरत  पदबंध में कोई सकारात्मक तत्व नहीं है।बल्कि यह गुलाम का समानार्थी है। इरीगरी का मानना है कि औरत तो मर्द की सृष्टि है। हमारे समाज में औरत ऐसी वस्तु है जिसका मर्दों के द्वारा इस्तेमाल किया जाता है और वे ही उसका विनिमय करते हैं। उसका स्थान बाजारू माल की तरह है। औरत सिर्फ मर्द की कामुक पहचान की पुष्टि करने वाला तत्व है।

      औरत क्या है ? यह सवाल ही गलत है। बार-बार उसकी व्याख्या के द्वारा यही बताया गया है कि उसमें क्या कमी है,अभाव है,उसकी क्या सीमाएं हैं।उसकी हमेशा नकारात्मक छवि बनायी गयी है। इरीगरी औरत की धारणा निर्मित करने की बजाय सेक्सुअल डिफरेंस में स्त्री के लिए सुरक्षित जगह खोजती है। इरीगरी अंत तक यह नहीं बताती कि औरत क्या है। फलत: शिश्नकेन्द्रित व्यवस्था में ही लौट जाती है।
उत्तर आधुनिकतावादी स्त्रीवाद मानता है कि स्त्री को मातहत बनाने या उसके शोषण का कोई एक कारण नहीं है। वे यह भी मानते हैं कि जेण्डर सामाजिक निर्मिति है और इसे भाषा के जरिए बनाया जाता है। जेण्डर सार्वभौम नहीं है।इस मसले को देखने की या उसके समाधान का कोई एक नजरिया नहीं है।
  सिकसाउस मानती है कि औरतों को भिन्न तरीके से सोचना चाहिए। अपने इतिहास के बारे में भिन्न तरीके से सोचना चाहिए। उन्हें सिर्फ अपने उदय के बारे में ही पता नहीं करना चाहिए बल्कि भाषा के नजरिए से भी सोचना चाहिए। इसी के गर्भ से स्त्रियों का वैकल्पिक इतिहास जन्म लेगा। यह ऐसा इतिहास होगा जो सत्ता की कहानियों,दमन और असमानता के दायरे के बाहर होगा। सत्ता,दमन और असमानता के केन्द्र में अब तक हमारा शरीर और भाषा रही है।
    सिकसाउस ने रेखांकित किया कि स्त्री का लेखन एक शारीरिक कर्म है। शरीर से उसके लेखन को अलग नहीं किया जा सकता। स्त्री के लेखन को उसके वास्तव शरीर ने रचा है। लेखन एक शारीरिक कर्म है। इसके बारे में अभी तक बहुत ज्यादा नहीं कहा गया है।
         लेखन प्रारंभ करने के लिए खास तरह के संस्कार की जरूरत होती है। व्यक्ति पहले अपने को भाषा में व्यक्त करता है। ऐसे में उसे भाषा का प्रयोग करना आना चाहिए। इसके बाद उसे प्रामाणिक संस्कारों की जरूरत पड़ती है। लेखन एक शारीरिक प्रयास है।
      सिकसाउस ने स्त्री लेखन को बच्चा पैदा करने जैसा कर्म माना है।बच्चा पैदा करने वाले रूपक के माध्यम से यह बताने की कोशिश की है कि स्त्री के पास व्यापक कलात्मक संसाधन होते हैं। स्त्री लेखन में माँ की इमेजरी शरीर,दूध,आवाज आदि का व्यापक प्रयोग होता है। सिकसाउस ने लिखा कि मैं अंदर से लिखती हूँ। मेरा लिखा पेज मेरे आंतरिक से जुडा है।वह इसी वजह से मेरे शरीर से जुड़ा है। मेरा पेज मेरे अंदर है। बाहर मेरा बहुत कम है। मेरा शरीर मेरे कागज में लिपटा हुआ है। लेखन में सिर्फ मनस्थिति ही नहीं आती अपितु शरीर, आकांक्षा और भाषा भी आती है सिकसाउस ने लिखा कि यह हमारा सौभाग्य है कि हमारे पास भाषा है।यह दुनिया की सबसे कीमती चीज है। भाषा के बिना आदमी कुछ भी नहीं कर सकता।
      सिकसाउस ने लिखा,'स्त्रियों को अपने बारे में लिखना चाहिए ,स्त्रियों के बारे में लिखना चाहिए। स्त्रियों को लिखने के लिए उत्प्रेरित करना चाहिए।उन्हें उनके शरीर से हिंसक ढ़ंग से अलग किया गया है।'' ,''लिखो,खूब लिखो,लेखन तुम्हारे लिए है, तुम लेखन के लिए हो और लेखन तुम्हारे लिए है,तुम अपने लिए हो,तुम्हारा शरीर तुम्हारा है,इसे ले लो।'' सिकसाउस के लिए लेखन बहुत शक्तिशाली हथियार था। वह इसके माध्यम से परिवर्तन की संभावनाओं को देख रही थी। स्त्री के आनंद को उसके शारीरिक सशक्तिकरण का अस्त्र माना। सर्जक स्त्री वह नहीं है जो सूखा सैध्दान्तिक लेखन करे। स्त्री लेखन वह है जो वर्गीकरण का प्रतिरोध करे।अस्तव्यस्त करे। उसका प्रसार करे।परंपरागत विवेकपूर्ण पाठ की आलोचना करे।तभी वह शारीरिक आनंद देता है।







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