किताब को जीवन के सत्य के आधार पर परखा गया। लेखकों,बुध्दिजीवियों और दार्शनिकों में सत्य को जानने की प्रवृत्ति का तेजी से विकास हुआ। सत्य क्या है ? सत्य वह है जिसे नहीं जानते। किताब का यही मूल काम था,किताब हमें वह चीज बताती है जिसे हम नहीं जानते। इसके बाद से यह सिलसिला चल निकला कि प्रत्येक किताब में सत्य होता है अथवा सत्य का अंश होता है। सत्य एक-दूसरे की पुष्टि करता है। यानी किताब के द्वारा सत्य की और सत्य के द्वारा किताब की पुष्टि होने लगी।
भारतीय तर्क परंपरा का यह मॉडल रहा है कि उसमें मध्य नहीं होता। साहित्य में भी मध्य नहीं होता। बल्कि रचना सीधे संकट में दाखिल होती है। संकट को केन्द्र में रखने का अर्थ है अन्तर्विरोधों को रखना। एक-दूसरे के अन्तर्विरोधों को सामने रखना। ऐसी अवस्था में अनेक चीजें सत्य हों और अनेक किस्म के अन्तर्विरोध भी हों। इसके बावजूद किताब सत्य बोलती है। चाहे एक-दूसरे के बीच अन्तर्विरोध हों। रामायण और महाभारत को लेकर हमारा यही रूख है। किताब जब सत्य बोलती है तो प्रत्येक शब्द को विभ्रम और रूपक में आना चाहिए। वे जो कहते हैं ,जो दिखाई देता है ,उससे भी ज्यादा कहते हैं। दृश्य से अधिक की पाठ में मौजूदगी की तलाश में भाष्य और टीका का समस्त संसार सामने आया। प्रत्येक किताब में ऐसा संदेश है जिसे पहले कभी नहीं देखा गया। इसका उद्धाटन व्याख्या और भाष्य के क्रम में ही हुआ ।
इन किताबों के अन्तर्निहित अर्थ को आप सिर्फ किताब विशेष के आधार पर ही उद्धाटित नहीं कर सकते। जरूरत इस बात की है कि रहस्यमय संदेशों को मानवीय अभिव्यक्तिं के दायरे के परे ले जाकर देखा जाए। क्योंकि ये किताबें भगवानरचित होने का दावा करती हैं। इन्हें विजन,स्वप्न और देववाणी के रथ के रूप में इस्तेमाल किया गया। जितने रहस्यों का उद्धाटन भाष्य और व्याख्या के क्रम में हुआ वैसा पहले कभी नहीं हुआ। ये किताबें गोपनीय ज्ञान के उद्धाटन का आधार बन गयीं और इस क्रम में किताब भी गोपनीय ज्ञान के उद्धाटन का औजार बन गयी।
यह माना गया गोपनीय ज्ञान महत्वपूर्ण होता है। सतह पर जो नहीं दिखता वह गोपनीय है। यह गोपनीय लंबे समय तक छिपा रहा। फलत: सत्य वह माना गया जो कहा नहीं गया। अथवा कहीं प्रच्छन्न भाव से कहा गया जिसकी खोज करनी है। यही वजह है सत्य को आज भी गोपनीय माना जाता है। सत्य के साथ गोपनीयता का संबंध बना हुआ है। गोपनीय ज्ञान को गंभीर ज्ञान माना जाता है। फलत: सत्य वह है जो कहा नहीं गया है जो पाठ की सतह पर नजर नहीं आता। पहले भगवान बोलते थे। सब कुछ ईश्वर वचन के रूप में लिया जाता था। आजकल व्यक्ति बोलता है।
मध्यकाल के आरंभ में भक्तिकाल के कवियों और उनके पहले दार्शनिकों में एक साझा तत्व है प्राचीन के प्रति अनास्था। भक्तकवियों और दार्शनिकों ने प्राचीन सत्य का विकल्प तैयार किया,इस विकल्प को तैयार करने के लिए जरूरी था प्राचीन परंपराओं के प्रति अनास्था व्यक्त की जाए। फलत: बड़े पैमाने पर प्राचीन परंपराओं के प्रति अनास्था व्यक्त की गई। प्राचीन परंपराओं के प्रति अनास्था व्यक्त किए बिना विकल्प निर्मित नहीं कर सकते थे। किसी भी किस्म का सत्यज्ञान पुराना होता है। सभ्यता में छिपा रहता है। कहा जाता है हम सत्य के साथ उसके आरंभ से ही जी रहे हैं। लेकिन हम उसे भूल गए थे। किसी ने हमारे लिए उसकी रक्षा जरूर की होगी। किंतु उनके शब्दों को हम समझ नहीं पाते हैं। ऐसा ज्ञान विजातीय होता है।
जुंग ने ऐसी अवस्था के बारे में लिखा है जब भगवान की इमेज ज्यादा चिरपरिचित हो जाती है तो वह अपने रहस्य को खो देती है। तब हम अन्य सभ्यता की इमेजों की ओर लौटते हैं,क्योंकि सिर्फ विजातीय प्रतीकों में गोपनीयता के आभामंडल को बनाए रखने की क्षमता होती है। फलत: यह गोपनीय ज्ञान ऋषियों,मुनियों, दार्शनिकों आदि के पास चला गया। गोपनीय ज्ञान के वे ही ज्ञाता थे। साधारण लोगों के पास गोपनीय ज्ञान नहीं था। ऋषियों का काम था 'वायदा करना' और 'गोपनीय का उद्धाटन करना'। वे कोशिश करते थे उनका ज्ञान किसी विदेशी के हाथ न पड़ जाए। कोई विदेशी उनकी भाषा न जान ले। हमारे ऋषिगण सत्य को छिपाकर बताते थे। अथवा उसे गोपनीय बताकर छिपाते थे।
एक ऐसी परंपरा भी विकसित हुई जिसने इस बात पर जोर दिया कि सत्य को छिपाने की नहीं बताने की जरूरत है। दर्शन में यह नास्तिकों की चार्वाक परंपरा थी। वे सत्य और ज्ञान को छिपाने की बजाय बताने पर जोर देते थे। सत्य और ज्ञान को बताने वाली परंपरा के सबसे बड़े आरंभिक लोग चार्वाक हैं जबकि साहित्य में वेदव्यास,बाल्मीकि,भरत हैं, चिकित्सा में सुश्रुत और ज्योतिष में आर्यभट्ट आदि हैं। हमारे सर्जनात्मक साहित्य की परंपरा सत्य को छिपाने की बजाय सत्य को बताने पर ,ज्ञान को छिपाने की बजाय ज्ञान को बताने पर जोर देती है। ज्ञान और सत्य के सार्वभौम और विशिष्ट दोनों रूपों पर जोर देती है। इसके आधार पर सार्वभौम और विशिष्ट सहानुभूति और समर्थन अर्जित किया गया। इस क्रम में अन्तर्विरोधहीनता के सिध्दान्त को खारिज किया गया। हमारी आरंभिक रचनाएं पूरी तरह अन्तर्विरोधों को उजागर करती हैं। इस तथ्य पर प्रकाश डालती हैं कि प्रत्येक चीज में अन्तर्विरोध होते हैं।
एक सवाल बार-बार सामने आया है कि ईश्वर को व्याख्यायित नहीं किया जा सकता। ईश्वर को परिभाषित करने में जितनी शक्ति लगायी गयी है उससे ज्यादा शक्ति ईश्वर अव्याख्येय है इस पर खर्च की गई है। इसका अर्थ यह है कि हमारे पास ईश्वर को परिभाषित करने की भाषा नहीं थी। ईश्वर का अव्याख्येय होना भाषा की कमी का द्योतक है। जादुई विचार यह रेखांकित करते हैं कि हमारी भाषा ज्यादा अस्पष्ट और बहुअर्थी है। इसमें संकेतों और रूपकों का ज्यादा प्रयोग मिलता है। यह ऐसी भाषा है जिसमें जो विरोध में है, पराया है उसको भी अपना बनाकर पेश किया जाता है। विपरीत को दुर्घटना अथवा अचानक उत्पन्न मान लिया गया है। खुदा की कुदरत मान लिया गया है। इसके कारण पहचान के सिध्दान्त का लोप हो जाता है। भारतीय दर्शन की भाषा में अपने विरोधी अथवा विपरीत को अपने अंदर समाहित कर लेने की पध्दति को सहज ही देखा जा सकता है। इसके कारण दर्शन के एक-दूसरे स्कूल के बीच में अंतर करने में असुविधाओं का सामना करना पड़ता है।संस्कृत काव्यशास्त्र में भी यही पध्दति अपनायी गयी है। फलत: एकाधिक या अनंत व्याख्याओं की परंपरा चल निकली।
यदि आप किसी चीज को अंतिम अर्थ पर पहुँचना चाहते हैं तो ऐसी जगह पर पहुँच जाएंगे जिसका कोई अंत नहीं है। इस समूची प्रक्रिया में यह तथ्य संप्रेषित हुआ है कि प्रत्येक चीज में कोई न कोई रहस्य छिपा होता है। प्रत्येक बार इस गोपनीय रहस्य को खोजने के लिए व्याख्या और पुनर्व्याख्या की जरूरत पड़ी । किंतु अंतिम रहस्य जैसी कोई चीज नहीं होती। भाष्य और टीकाओं की परंपरा इसी आधार पर विकसित हुई है कि हमें गोपनीय रहस्य को सामने लाना है किंतु इसके अंतिम बिंदु तक ये लोग कभी नहीं पहुँच पाए। यह कभी नहीं बताया गया यह अंतिम रहस्य है।
भाष्य या टीका का लक्ष्य रहा है गोपनीय का उद्धाटन । इसी अर्थ में इको ने कहा था भाष्य में गोपनीयता का तत्व खोखला है। प्रत्येक ने उसे खोलने की कोशिश की है। रहस्य को खोलने के चक्कर में भाष्यकारों-टीकाकारों ने ज्ञान के समस्त नाटक को भाषाविज्ञान के फिनोमिना में तब्दील कर दिया। एक-एक शब्द की अनेक व्याख्याओं को पेश किया। साथ ही भाषा की कम्युनिकेशन की शक्ति को अस्वीकार किया। मसलन् ब्रह्म और माया,आत्मा और शरीर, स्वर्ग और नरक, इहलोक और परलोक,ईश्वर और मनुष्य आदि को लेकर जितना व्यापक भाष्य तैयार किया उसने भाष्य को एम्प्टी या खोखला बना दिया। इसने भाषा की कम्युनिकेशन की शक्ति को अस्वीकार किया। किंतु इस क्रम में बुद्धि की क्षमता को प्रदर्शित करने का अवसर जरूर मिला। बुद्धि को रहस्य का वासस्थान बना दिया। बुद्धि के जरिए ही रहस्यों के उद्धाटन की संभावना बनी ।
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