शनिवार, 15 मई 2010

रामचरित मानस की अर्थ संरचनाएं



       रामचरित मानस लोक-महाकाव्य है। इसके उपयोग और दुरूपयोग की अनंत संभावनाए हैं।लोक-महाकाव्य एकायामी नहीं बल्कि बहुआयामी होता है,इसमें एक नहीं एकाधिक विचारधाराएं होती हैं। इसका पाठ संपूर्ण और बंद होता है किंतु अर्थ- संरचनाएं खुली होती हैं, इसके पाठ की स्वायत्तता पाठ की व्याख्या की समस्त धारणाओं के लिए आज भी चुनौती बनी हुई है। लोक-महाकाव्य का अर्थ कृति में नहीं सामाजिक के मन में होता है।पाठक के इच्छित-भाव की तुष्टि का यह सबसे बड़ा स्रोत है,इतिहास की रचना में इसका व्यापक इस्तेमाल होता है।साथ ही इच्छित इतिहास के निर्माण के लिए इसका व्यापक स्तर पर उपयोग और दुरूपयोग होता रहा है।

हिन्दी में आलोचना खूब लिखी जाती है,किंतु ज्यादातर आलोचना 'कला के लिए कला' की तरह 'आलोचना के लिए आलोचना ' की तर्ज पर लिखी जाती है,हिन्दी में आलोचना की पध्दति और सैध्दान्तिकी का शास्त्र हम आज तक नहीं बना पाए हैं। हमारे पास अभी तक एक भी आलोचना की मुकम्मल किताब नहीं है,आलोचना के बारे में सम्मानजनक ढ़ंग से कहने के लिए कुछ निबंध हैं,कुछ समीक्षाएं हैं,कुछ बहस के लिए लिखी गयी वकीलों जैसी दलीलें हैं,जिनमें हमारे आलोचकगण अपने मुवक्किल की पैरवी करते नजर आते हैं। मसलन् हमारे यहां तुलसीदास के बारे में टनों पन्नो लिखे गए हैं, इसके बावजूद लेवीस्त्रास जैसी एक आलोचना की किताब नहीं है।जिसमें तुलसी के मिथकों का खुलासा किया गया हो और सैध्दान्तिकी भी बनायी गयी हो।

हमारे यहां आलोचना अभी 'केजुअल' कर्म है,मनमाना कार्य है। हिन्दी के आलोचक जब किसी विषय पर लिखते हैं तो 'केजुअल वर्कर' की तरह पेश आते हैं, उन्हें सिलटाने में दिलचस्पी ज्यादा है।वे अभी तक आलोचना को नियमित सैध्दान्तिकी के दर्जे तक नहीं पहुँचा सके हैं। उसका शास्त्र नहीं बना पाए हैं।यही वजह है कि हिन्दी में आलोचना लिखने के लिए अंग्रेजी में लिखी आलोचना के पास जाना होता है, हिन्दी का आलोचना साहित्य हमें किसी भी किस्म की आलोचनात्मक मदद या सलाह नहीं देता।हमें इस समस्या पर गंभीरता से सोचना चाहिए कि आखिरकार ऐसा क्यों हुआ कि हमारी आलोचना अभी तक गंभीर नहीं हो पायी।अंग्रेजी,जर्मन,फ्रेंच,रूसी आदि भाषाओं में आलोचना के महत्वपूर्ण स्कूल मिल जाएंगे,सैध्दान्तिक मॉडल मिल जाएंगे,शोध में सहारे के लिए अच्छे सैध्दान्तिक उध्दरण मिल जाएंगे,किंतु हिन्दी में इन सबका अकाल पड़ा हुआ है। आखिरकार आलोचना के क्षेत्र में हमसे कहां चूक हुई है ?इतनी बड़ी चूक को व्यक्तिगत मामला कहकर टाला नहीं जा सकता।इस दुर्दशा के लिए निश्चित रूप से आलोचकगण जिम्मेदार हैं,किंतु मामले का आलोचक एक छोटा सा हिस्सा है। आलोचना के लिए जिस तरह के संस्थान,अनुसंधान संरचना,माहौल,विवेक, और पध्दति की जरूरत होती है, अकादमिक अनुशासन ,इन्फ्रास्ट्रक्चर ,और शोधार्थी तैयार करने की जरूरत होती है,शोध को गंभीर बनाने और उसका सम्मान करने की जरूरत होती है,उसकी ओर हमने कभी ध्यान नहीं दिया। जबकि हिन्दी में सबसे ज्यादा अनुसंधान होता है,सबसे ज्यादा पीएचडी लिखी जाती हैं,साहित्य के क्षेत्र में हिन्दी में सबसे ज्यादा शिक्षक हैं,किंतु एक भी ऐसा अनुसंधान केन्द्र नहीं है जहां शोध की पध्दति और उसका शास्त्र सिखाया जाता हो ,और गंभीरता से अनुसंधान कार्य किया जाता हो।

हिन्दी में आलोचना का इन्फ्रास्ट्रक्चर तैयार करने की पहली शर्त है कि आलोचना और हिन्दी विभागों को गंभीरता से चेले बनाने,पट्ठे बनाने,पालने,उनकी नियुक्ति कराने के धंधे से मुक्त किया जाए,हिन्दी के विभागों में अकादमिक क्षमता और उसके आधार पर शोध के नए क्षेत्रों को खोला जाए,गंभीरता के साथ शोध की पध्दति और सैध्दान्तिकी के निर्माण की दिशा में प्रयास किए जाएं।

रामकथा के ऊपर विचार करते हुए रवीन्द्रनाथ टैगोर ने प्रश्न उठाया है कि 'राम का चरित्र ऊँचा है कि नीचा,लक्ष्मण का चरित्र हमें अच्छा लगता है कि बुरा,यह आलोचना काफी नहीं है।मौन होकर श्रध्दा के साथ विचा करना होगा कि समस्त भारतवर्ष में हजारों साल से इन्हें किस प्रकार ग्रहण किया है।' यानी रामकथा को किस प्रकार ग्रहण किया है।टैगोर ने लिखा है ' राम का चरित्र मनुष्य का चरित्र होने के नाते ही महिमा से मंडित है।' ... 'रामायण उसी नर चन्द्रमा की कथा है देवता की कथा नहीं।' रामायण में 'देवता ने अपने को छोटा करके मनुष्य को छोटा नहीं बनाया,मनुष्य ही अपने गुण से देवता हो उठा है।' इसी क्रम में रामकथा के एक नए आयाम को उद्धाटित करते हुए टैगोर ने लिखा 'रामायण की प्रधान विशेषता है कि उसने घर की बात को ही बड़ा करके दिखाया है।इसमें केवल कवि का परिचय ही नहीं ,भारतवर्ष का परिचय मिलता है।इससे समझ में आएगा कि गृह और गृहधर्म को भारतवर्ष कितना महत्व देता है।हमारे देश में गृहस्थ-आश्रम का जो इतना ऊँचा स्थान था,इस काव्य में उसी को प्रमाणित किया गया है।गृहस्थाश्रम हमारे सामने सुख के लिए सुविधा के लिए न था। गृहस्थाश्रम पूरे समाज को समेटकर रखता था और मनुष्य को सच्चे अर्थों में मनुष्य बनाता था।गृहस्थाश्रम भारतवर्षीय आर्य समाज की भित्तिा है।' इसी तरह मुक्तिबोध ने लिखा है, ' तत्कालीन मानव संबंध,विश्व-दृष्टि तथा जीवन-मूल्यों के सर्वोच्च प्रतीक राम की मानवता हमें प्रभावित करती है।'भक्ति- आंदोलन की तरह ही रामचरित मानस की केन्द्रीय अभिव्यक्ति प्रेम और ज्ञान केन्द्रित है। इन दोनों ही तत्वों का सामंतवाद से सीधा अन्तर्विरोध है।ज्ञान और प्रेम का संदेश आधुनिक बोध पैदा करता है।तुलसीदास को रामचरित मानस लिखने की प्रेरणा धर्मग्रंथों या देवोपासना से नहीं मिली थी,बल्कि दरिद्रता,भूख और सामाजिक उत्पीडन देखकर प्रेरणा मिली थी। आत्म सम्मान के साथ जीना और मनुष्य के आगे हाथ नहीं पसारना तुलसी की चिंताधारा का मुख्यबिंदु है।रामविलास शर्मा के अनुसार तुलसी की दृष्टि में सबसे बड़ा धर्म है दीनों की सेवा,सबसे बड़ा पाप है उनका उत्पीड़न।वे दुखानुभूति का साधारणीकरण करते हैं।

जिस समय हिन्दी भाषी क्षेत्र में आर्यसमाज के नेतृत्व में समाज-सुधार की लहर चल रही थी,उस समय स्वामी दयानंद सरस्वती की धूम मची हुई थी,सनातनियों के तर्कों का खण्डन करने के लिए उन्होंने उस समय एक किताब प्रकाशित की जिसका नाम था ''सत्यार्थप्रकाश'', इस किताब के अंत में स्वामीजी ने अस्पृश्य किताबों की एक सूची जारी की थी,इसमें तुलसीदास की कृति ''रामचरित मानस'' का पहला नम्बर था,यानी आर्यसमाज के नेता ''रामचरित मानस'' को समाज -सुधार में सबसे बड़ी बाधा मानते थे, वहीं दूसरी ओर आचार्य रामचन्द्र शुक्ल को अपनी इतिहास दृष्टि के लिए सबसे बड़े कवि के रूप में तुलसीदास और कृति के रूप में ''रामचरित मानस'' महत्वपूर्ण लगा।प्रगतिशीलों में रामविलास शर्मा को तुलसी सबसे प्रिय हैं,जबकि रांगेय राघव के लिए सबसे अप्रिय लेखक हैं।मुक्तिबोध को तुलसी का रामचरित मानस सवर्णों के वर्चस्व का औजार लगा और भक्ति-आन्दोलन की निम्नवर्णोंन्मुख धारा को पलटने वाली कृति।उन्होंने तुलसी को सवर्णों के वैचारिक प्रतिनिधि के रूप में व्याख्यायित किया ।

हिन्दी आलोचना की नजर में रामचरित मानस एक ऐतिहासिक पाठ है,ऐतिहासिक पाठ के रूप में ही उसे देखने और व्याख्यायित करने की परंपरा है।मजेदार बात यह है कि 'रामचरित मानस' को जो आलोचक ऐतिहासिक पाठ मानते हैं,वे पाठालोचन के सिध्दान्तों का पालन नहीं करते,यह स्थिति कमोबेश सबके यहां है। हम यह भी कह सकते हैं हिन्दी की आलोचना को उत्पादन के प्रति जितना आकर्षण है,उतनी आलोचना निर्माण,आलोचना पध्दति के निर्माण में उतनी दिलचस्पी नहीं है।यही वजह है कि हिन्दी में पाठालोचन का अकादमिक जगत में एक भी स्कूल निर्मित नहीं हो पाया। बल्कि इसके विपरीत अकादमिक आलोचना के प्रति खास तरीके से घृणा पैदा की गयी।जिससे आलोचना अपनी कमियों से ध्यान हटा सके।

हिन्दी में अकादमिक आलोचना को सम्मान की बजाय घृणा की नजर से देखा गया। दूसरी ओर अकादमिक जगत ने भी इस स्थिति को दुरूस्त करने के लिए कोई उल्लेखनीय कार्य नहीं किया। आलोचना के कठमुल्लेपन का ही यह परिणाम निकला कि जब नामवर सिंह ने 'दूसरी परंपरा' की बात कही तो रामविलासजी भड़क पड़े। यदि कोई व्यक्ति परंपरागत रामचन्द्र शुक्ल-रामविलास शर्मा पंथी आलोचना से इतर नयी साहित्य सैध्दान्तिकी के सहारे किसी कृति को पढ़ना चाहता है तो उसे त्याज्य घोषित कर दिया जाता है।आलोचना की इस मनोदशा में व्याख्या और पुनर्व्याख्या की दृष्टि से भिन्न खास किस्म का सामंतीभाव है जिसमें अन्य किस्म के नजरिए के लिए कोई जगह नहीं है।

हिन्दी में प्रगतिशील आलोचना में एक स्कूल ऐसे विचारकों का रहा है जिनके प्रतिनिधि रांगेय राघव हैं तो दूसरा ग्रुप रामविलास शर्मा का है,हिन्दी में रांगेय राघव की मूल्यांकन दृष्टि में तुलसी को गरियाने का भाव था,तुलसी को खारिज करने का भाव था,उपहास का भाव था,इसी के प्रत्युत्तर में रामविलास शर्मा ने अपने तुलसी संबंधी नजरिए का विकास किया और 'साहित्य समाज का दर्पण है' और 'साहित्य प्रतिबध्द' होता है ,इन दो धारणाओं के आधार पर तुलसी संबंधी अपने मूल्यांकन की आधारशिला रखी, इस क्रम में हिन्दी में मानस के बारे में प्रचलित अध्यात्मवादी मूल्यांकन और संकीर्णतावादी दृष्टियों का जमकर विरोध किया और तुलसी को लोकवादी और जन-जन के पक्षधर कवि के रूप में प्रतिष्ठित किया।

इस क्रम रामविलास शर्मा ने प्रगतिशील लेखक संघ के 1936 और 1938 के घोषणापत्रों में व्यक्त मध्यकालीन साहित्य संबंधी दृष्टिकोण्ा का भी खण्डन किया है। निश्चित रूप से आचार्य रामचन्द्र शुक्ल की आलोचना के पैराडाइम को बदलने में रामविलास शर्मा का महत्वपूर्ण अवदान है।वहीं दूसरी ओर नामवर सिंह ने 'दूसरी परंपरा की खोज' में कबीर को प्रतिष्ठित करने के बहाने आलोचना के परंपरागत रूझान को परंपरा से ही काटने की कोशिश की,नामवर सिंह इस अर्थ में भिन्न हैं कि उन्होंने आलोचना में लकीर के फकीर बने रहने से इंकार किया।यह मूलत: भिन्नता का मार्ग है।

परंपराओं के मूल्यांकन की एकाधिक पध्दतियों को स्वीकार करने का दुस्साहस है,किंतु इसकी भी सीमाएं हैं,इसकी सबसे बड़ी सीमा है द्विवेदीजी के प्रति अनालोचनात्मक भाव।

रामविलास शर्मा के यहां परंपरा एक ही है,नामवर सिंह साहस करके 'दूसरी परंपरा' तक पहुँचते हैं,किंतु इसमें उन्हें अपने गुरू हजारीप्रसाद द्विवेदी से भिन्न परंपरा दिखाई नहीं देती,वरन यह कैसे हो सकता है कि परंपरा का सारा विवाद शुक्ल -द्विवेदी जी के इर्द-गिर्द ही परिक्रमा कर रहा है।दोनों आलोचकों में कई बुनियादी साम्य हैं,पहला साम्य यह है कि दोनों मिथकीय आधार पर दो काव्य धाराएं मानते हैं,रामभक्ति और कृष्णभक्तिधारा। निर्गुण और सगुण और राम और कृष्णभक्ति काव्य परंपरा के नाम पर स्त्री-दलित विरोधी पैराडाइम तैयार किया गया,इस पैराडाइम की धुरी है पितृसत्तात्मक विचारधारा।इस पैराडाइम को समग्रता में उद्धाटित करने की जरूरत है। हिन्दी की पहली और दूसरी परंपरा को तरह-तरह से खाद -पानी देने का काम हिन्दी आलोचना करती रही है।कायदे से हिन्दी में साहित्य,दलित साहित्य और स्त्री साहित्य ये तीन परंपराएं मिलती हैं।इनका स्वतंत्र आधार है साथ ही इनमें संपर्क भी है।रामविलास शर्मा-नामवर सिंह की आलोचना में दूसरा साम्य यह है कि दोनों स्त्री और दलित काव्य परंपरा को अस्वीकार करते हैं, तीसरा साम्य यह है दोनों ने विचारधारा के रूप में पितृसत्ता की उपेक्षा की है।मजेदार बात यह है एक को तुलसी पसंद है तो दूसरे को कबीर, दोनों ने मीराबाई को केन्द्र में नहीं रखा, कबीर को महान् बनाने के नाम पर कबीर को दलित परंपरा के बाहर ले जाकर हजम करने का प्रयास किया गया,कबीर को साहित्य के पैराडाइम पर रखकर परखा गया,जबकि कबीर को दलित साहित्य के पैराडाइम पर रखकर देखा जाना चाहिए। सवाल यह है कि क्या साहित्य की आलोचना का धर्मनिरपेक्ष आधार स्त्री,दलित और पितृसत्ता के बिना तैयार होता है ?जी नहीं,धर्मनिरपेक्ष आलोचना परंपरा के निर्माण के लिए स्त्री,दलित और पितृसत्ता की उपेक्षा संभव नहीं है। इन तीनों से रहित आलोचना को धर्मनिरपेक्ष आलोचना नहीं कहा जा सकता है।

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