सोमवार, 25 जनवरी 2010

गैर-क्रमिक रीडिंग और राईटिंग है हाइपर टेक्स्ट

टेड नेल्सन ने 'हाइपर टेक्स्ट' को गैर-क्रमिक रीडिंग और राईटिंग कहा है।जबकि स्कोविट्ज ने इसे 'लिंक' का विज्ञान और 'लिंक' का प्रबंधन माना है।जॉर्ज लनदोव ने इसमें साहित्य के निश्चित गुणों को देखा है।'हाइपर टेक्स्ट' और 'हाइपर मीडिया' की जो भी परिभाषा की जाए असल में 'लिंक' तो इसका हृदयकमल है।'लिंक' वेब का अन्य से संबंध बनाता है।यह अन्य से संबंध बनाने का संसाधन है।'लिंक' वस्तुत: अपने आरंभ से लेकर लक्ष्य की सीमा तक फैला हुआ है।इसका एक सिरा वह है जहां पाठ का अंश है,वहां से बात शुरू हो सकती है और हाइपर टेक्स्ट पर जाकर खत्म होती है।'लिंक' का क्षेत्र 'नोड' तक फैला है। वह इसका स्रोत है।यह भी संभव है कि ज्यों ही आप माउस में क्लिक करें तुरंत दूसरा छोर या अन्य सामग्री सामने आ जाए।आरंभ हमेशा विशेष रूप में सामने आता है। विशेष प्रतीक के जरिए सामने आता है।यही वजह है कि प्रत्येक क्म्प्यूटर पाठ का प्रतीक अलग-अलग होता है।'लिंक' का सामान्य तौर पर सामग्री को खोजने या संयोजित करने के लिए खूब इस्तेमाल किया जाता है।यह भी कह सकते हैं कि कंटेंट की इण्डिेक्सिंग में 'लिंक' का खूब इस्तेमाल किया जाता है।'लिंक' का दायरा सर्च इंजन से लेकर वेबसाइड की खोज तक फैला हुआ है।यहां तक कि सामाजिक नेटवर्क,आंदोलनों आदि तक इसका दायरा फैला है।इसी तरह 'हाइपर मीडिया' पदबंध का 'हाइपर टेक्स्ट' के लिए इस्तेमाल किया जाता है।किंतु इसका पाठ के संदर्भ में इस्तेमाल नहीं किया जाता।बल्कि इसमें ध्वनि, ग्राफिक्स,वीडियो आदि शामिल हैं।'हाइपर टेक्स्ट' और 'हाइपर मीडिया' ये दोनों अवधारणाएं हैं।इन्हें माल समझने की गलती नहीं करनी चाहिए।
     कायदे से हमें 'पुस्तक' और 'हाइपर टेक्स्ट' के अन्तस्संबध और अंतर पर गौर करना चाहिए।सतह पर इन दोनों में साम्य है।किंतु प्रस्तुति भिन्न रूप में होती है।मसलन् जरूरी नहीं है कि पुस्तक को रेखीय क्रम से ही पढ़ा जाए।रेखीय क्रम से ही लिखा जाए।आप चाहें तो टुकड़ों में,अंशों में भी अपनी बात लिख सकते हैं।कुछ हाइपर टेक्स्ट सिध्दान्तकारों के अनुसार उसे उद्धाटन करने वाला,तर्कवादी होना चाहिए।उसमें उपन्यास के तत्व भी होते हैं।मसलन् चरित्र और कहानीपन भी होता है।अधिकांश पुस्तकों में स्पष्टता होती है जिसके कारण पाठक उसे पेज-दर-पेज पढ़ता है।'पुस्तक' और 'हाइपर टेक्स्ट' में यह दबाव होता है कि उसे तार्किक ढ़ंग से पढ़ा जाए।तार्किक रूप में पेश किया जाए।पाठक जब पढ़ता है तो उसकी मांग और निष्कर्ष के बीच तनाव आता है।हाइपर टेक्स्ट उसके सामने मार्ग खोलता है।इन मार्गों पर जाकर वह खोज कर सकता है।जांच कर सकता है।
'पुस्तक' अपने मुद्दे,तर्क,प्रतिपक्ष की राय,फुटनोट आदि को सीधे पेश करती है।जबकि 'हाइपर टेक्स्ट' इन सबको संक्षेप में पेश करता है।'हाइपर टेक्स्ट' में रूपरेखा या 'आडट लाइन' रहती है। संक्षेप में तर्क रहते हैं।कुछ विषयों पर विस्तार भी होता है जो ठोस स्थानों और बहुत सारी इमेजों के साथ होता है।ये वे बातें होती हैं जिन्हें पुस्तक में बताया गया होता है।मूलत: यहां प्रथम व्यक्ति का वर्णन ही उपलब्ध होता है।यहां पाठक को लगता है कि वह ज्यादा आत्मसजग और आत्मालोचक है।हाइपर टेक्स्ट के अनेक रूप उपलब्ध हैं।यहां पाठ को व्यवस्थित करने,उसमें परिवर्तन करने के अनेक रूप उपलब्ध हैं।जिसके कारण पाठ की रीडिंग के समय ध्यान खींचा जा सकता है।आज 'पुस्तक' का'हाइपर टेक्स्ट' पर बहुत सारा दबाव है।इसके बावजूद 'हाइपर टेक्स्ट' को पुस्तक नहीं कहा जा सकता।दोनों का लक्ष्य है पाठक के सामने विषय का नए रूप में उद्धाटन।ज्यादा व्यापक पाठ का उद्धाटन।'हाइपर टेक्स्ट' में ऐसे भी पाठ हो सकते हैं जिनका कोई निष्कर्ष ही न हो।इस तरह के पाठ विभिन्न किस्म के पाठकों के सामने खुले होते हैं।वे पुस्तक से ज्यादा चीजें पेश करते हैं।इन्हें पढ़कर आश्चर्य की सृष्टि होती है।यह कार्य वे तर्क के संकीर्ण दायरे के फोकस को तोड़ते हुए करते हैं।वे पाठक को घोषित निष्कर्ष से परे ले जाते हैं।कितु समस्या यह है कि पाठक के अनुभवों को 'हाइपर टेक्स्ट' किस हद तक अभिव्यक्ति दे पाता है।लिखित और रचनात्मक रीडिंग में जब खेल होता है तब क्या होगा ?इसका परिणाम अंतत: व्यापक हाइपर टेक्स्ट ही होगा।यह पुस्तक के रूप से ज्यादा बड़ा होगा।सवाल यह है कि आपकी उम्मीदेंे किस तरह की हैं ?क्या लेखक के पास लम्बे पाठ का पाठक मौजूद है ?'हाइपर टेक्स्ट' की सबसे मुश्किल समस्या यह है कि प्रत्येक पाठ को कुछ खास 'नोडस' पर जाना होगा।उसे 'नोडस' का सामना करना होगा।'हाइपर टेक्स्ट' स्वयं प्रतिबिम्बित हो इसके लिए जरूरी है कि वह 'मल्टी नोडस' में अपना तर्क पेश न करे।तर्क और उद्धाटन के लिए जरूरी है कि ढ़ांचा हो, यह ढ़ंाचा रेखीय होना चाहिए।जिससे चीजों का क्रमश: जबाव दिया जा सके।उन्हें क्रमबध्द रूप में रखा जा सके।उन्हें ऐसे लिखा जाए जैसे दार्शनिक पाठ लिखा जा रहा हो।कुछ लेखक इस पध्दति को लागू करते हैं।किंतु कुछ लेखक पुस्तक में पाठक के आश्चर्य को शांत करने लिहाज से विशेष ढ़ंग के तर्क देते हैं। मसलन् किसी बात पर कबीर को उध्दृत करेंगे तो उसके समर्थन में तुलसी को पेश करेंगे। इस तरह की लेखकीय प्रवृत्ति दर्शन में नहीं मिलेगी।खासकर 19वीं शताब्दी के छोटे निबंधों में यह प्रवृत्ति एकदम गायब है।

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