बहिणाबाई चौधरी (1880-1905) महाराष्ट्र के जलगाँव जिले की कपास की खेती करनेवाली किसान स्त्री थी। बहिनीबाई की कविताएँ मूलतः किसानी के श्रम के दौरान लिखी गई कविताएँ हैं। भारत के अन्य हिस्सों में स्त्रियों की रचनात्मकता उनके जीवन के कार्यव्यापार के बीच से फूटी है , बहिणाबाई की कविताएँ भी उसी तरह से रची गई हैं। बहिणाबाई पढ़ी-लिखी नहीं थीं लेकिन जीवन के गाढ़े अनुभव के दर्शन उनके गीतों में बिखरे हैं। मराठी के ओवी छंद में खानदेसी और वर्हाडी बोलियों में बहिनीबाई के गीत मिलते हैं। जो चीज ज्यादा आकर्षित करती है वह है परंपरा और रूढ़ियों के बीच से जगह बनाने की कोशिश। जीवन के प्रति ललक। भाग्य से संघर्ष की इच्छा। इस कविता में एक विधवा स्त्री की तकलीफ और परिस्थितियों से संघर्ष के साथ- साथ जीवन को सुंदर बनाने की इच्छा शामिल है।
मैं अब अपने लिए
मेरी आँखों से बहनेवाले आंसूओं का अंत नहीं।
बहुत रो चुकी हूँ
आंसू सूख चुके हैं
केवल सिसकियाँ बाकि हैं।
आंसू ,
सारे देकर दिलासा बह चुके हैं ;
ऐ मेरे दिल
बिना आंसूओं के मत रो।
कहो ओ धरती माँ
यह सब कैसे हुआ ?
वह पेड़ कैसे नष्ट हुआ
अपनी छाया पीछे छोड़कर ?
देवता सब कूच कर गए हैं,
अपने अपने स्वर्गिक घरों को ;
दो नन्हें शिशु हंसते हैं ,
आँखों के सामने ;
मत रो, ओ मेरे दिल।
मत रो,
रोना तुम्हारे लिए प्राथमिक नहीं है ;
अपने आंसूओं को जरा
हंसने दो !
यही दुनिया में जीवन को जीने लायक
बनाएगा।
मेरे माथे से
सिंदूर की रेखा
पुछ गई है,
केवल निशान बाकि हैं
भाग्य का स्वागत करने के लिए।
चूड़ियाँ टूट गईं हैं
पर
कलाइयाँ अब भी भाग्य से पंजा
लड़ा सकती हैं।
मंगलसूत्र गले में नहीं है
पर प्रतिज्ञाबद्ध हूँ अब भी,
महसूस करती हूँ बाहों के घेरे को,
गले के आस-पास।
नहीं,
मेरी प्यारी सखी
मेरे लिए न रो ,
मैं अब निर्बाध शान्ति में हूँ ;
यह अब मेरे और हृदय के बीच का
मामला है।
(प्रस्तुति और अनुवाद सुधा सिंह, एसोसिएट प्रोफेसर, हिन्दी विभाग, दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली-7)
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