आज हम रोम की महानता के गुण गाते हैं किंतु यह भूल जाते हैं कि रोम की महानता का आधार अंधविश्वास था। रोम की महानता के बारे में पोलिबियस ने लिखा कि मैं साहसपूर्वक यह बात कहूंगा कि संसार के शेष लोग जिस चीज का उपहास करते हैं, वह रोम की महानता का आधार है और उस चीज का नाम अंधविश्वास है। इस तत्व का उसके निजी और सार्वजनिक जीवन के सभी अंगों में समावेश कराया गया है और इसने ऐसी खूबी से उनकी कल्पनाशक्ति को आक्रांत कर लिया है कि उस खूबी को बेहतर नहीं बनाया जा सकता। संभवत: बहुत से लोग इसकी विशेषता समझ नहीं पाएंगे, लेकिन मेरा मत है कि ऐसा लोगों को प्रभावित करने के लिए किया गया है। यदि किसी ऐसे राज्य की संभावना होती, जिसके सभी नागरिक तत्वज्ञ होते तो इस तरह की चीज से हम बचे रह सकते थे। लेकिन सभी राज्यों में जनता अस्थिर है, निरंकुश भावनाओं, अकारण क्रोध और हिंसक आवेगों से ग्रस्त है। इसलिए केवल यही किया जा सकता है कि जनता को अदृश्य के भय से, और इसी किस्म के पाखंडों से काबू में रखा जाए। यह अकारण नहीं, बल्कि सुविचारित चाल थी कि पुराने जमाने के लोगों ने जनता के दिमाग में देवताओं और मृत्यु के बाद के जीवन की बातें बैठाईं। हमारी मूर्खता और विवेकहीनता यह है कि हम इस प्रकार की भ्रांतियों को दूर करना चाहते हैं।
इसके अलावा जिस विधा का निर्माण किया गया वह है चमत्कारवर्णन और दंतकथा। चमत्कारवर्णन और दंतकथाओं ने अंधविश्वासों को आम जनता के जीवन में उतारने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। किसी भी दर्शनवेत्ता और धर्मशास्त्री के उपदेशों के द्वारा पुरुषों और औरतों के समूहों को श्रध्दा, भक्ति और विश्वास की ओर नहीं मोड़ा जा सकता था। इनको प्रभावित करने के लिए अंधविश्वास का लाभ उठाना पड़ता था। यह कार्य चमत्कारवर्णन और दंतकथाओं के बिना संभव नहीं था। कालांतर में इसने नागरिक जीवन की प्राचीन व्यवस्था और साथ ही, वास्तविक सृष्टि संबंधी स्थापनाओं में मिथकशास्त्र के रूप में सम्मानजनक स्थान प्राप्त कर लिया।
कौटिल्य का अंधविश्वास में विश्वास नहीं था किंतु उन्होंने राज्य के कौशल के तौर पर अर्थशास्त्र में अंधविश्वास की चर्चा की है। उनका न तो राजा के दैवी अधिकार और उसकी सर्वज्ञता की सच्चाई में विश्वास था और न वे यह चाहते थे कि स्वयं शासक इस तरह की वाहियात बात को सच मानें। वे सुझाव देते हैं कि राज्य को अपनी आंतरिक और बाह्य स्थितियों को सुदृढ़ करने के लिए सामान्य लोगों की अंधमान्यताओं का लाभ उठाना चाहिए।
कौटिल्य अर्थशास्त्र में अनेक ऐसे सुझाव देते हैं जो अंधविश्वासों पर आधारित हैं। संयोग से जिन उपायों को सुझाया गया है वे थोड़े फेरबदल के साथ अब भी लागू किए जाते हैं। कौटिल्य ने कुछ ऐसे साधनों को अपनाने की सलाह दी जो बहुत ही भद्दे थे और जिनका दोहरा उद्देश्य था। वे न केवल जनता के बीच अंधविश्वासमूलक भय उत्पन्न करते थे, बल्कि अंधविश्वास के विरोध में यथार्थ और ठोस कदम उठाने वाले प्रचारकों का शारीरिक रूप से सफाया करने की ओर भी लक्षित थे।
अंधविश्वास के साथ-साथ पुनर्जन्म और कर्मफल की प्राप्ति की धारणा का भी व्यापक पैमाने पर इस्तेमाल किया गया। इसका साहित्य पर भी गहरा प्रभाव पड़ा। हजारीप्रसाद द्विवेदी के अनुसार साहित्य में काव्य-रूढ़ियों का चलन शुरू हुआ।
यह मान लिया गया कि जो कुछ हो रहा है उसका उचित कारण है ज़िस कार्य में असामंजस्य है, वह अवश्य भविष्य में करने वाले को दंड देने का साधन बनेगा। इस विचार ने भारतीय साहित्य में सामंजस्यवादी दृष्टिकोण की प्रतिष्ठा की है। समाज की विषमताओं और अनमेल परिस्थितियों को कभी विद्रोही दृष्टि से नहीं देखा गया।
यह मान लिया गया नाटक दुखांत नहीं होना चाहिए। असंतोष और विद्रोह के अभाव में कवि की बुध्दि अधिकाधिक सूक्तियों और चमत्कारों में उलझती गई। साहित्य में सिर्फ रस और रस में भी सिर्फ श्रृंगार रस की रचनाओं का बाहुल्य इस मार्ग के अनुसरण का स्वाभाविक परिणाम था।
उल्लेखनीय है रस की अवधारणा की उत्पत्ति का समय तकरीबन वही है जब अंधविश्वास, पुनर्जन्म और कर्मफल की प्राप्ति के सिध्दांत का जन्म हुआ। रसों में हमारे प्राचीन लेखकों ने सिर्फ श्रृंगार रस पर ही मुख्यत: जोर दिया और अन्य रसों की उपेक्षा की।
तात्पर्य यह है कि अंधविश्वास के साथ आनंदमूलक मनोरंजन, कामुकता, स्त्री के सौंदर्यमूलक हाव-भावों का गहरा संबंध है। यह संबंध मध्यकाल से विकसित हुआ और आधुनिक काल तक चला आया है। अंधविश्वास के समूचे कार्य-व्यापार को यदि इस परिप्रेक्ष्य में देखें तो पाएंगे कि समाज में कलाओं में नकल की प्रवृत्ति वस्तुत: अंधविश्वास के प्रति सहिष्णु भाव पैदा करती है।
अंध विश्वास को आप ने बहुत नए सन्दर्भ में प्रस्तुत किया है आप बधाई के पात्र है परन्तु आलेख की पूर्णता अभी बाकी है,.
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