शनिवार, 3 अप्रैल 2010

कारपोरेट मीडिया संस्कृति की देन है लोकतंत्र में कठमुल्लापन

         जिस तरह सामंतकाल में रुढ़िवाद था वैसे ही पूंजीवाद में भी रुढ़िवाद होता है। पूंजीवाद में ऱुढ़िवाद का प्रधान रुप है चीजों,वस्तुओं,विचारों संस्थानों आदि को देवत्व प्रदान करना,उन्हें पूजा की चीज बना देना।अपरिवर्तनीय और अपरिहार्य बना देना। 
        रुढ़िवाद का एक रुप यह भी है कि आप किसी बात की अतिरिक्त पुनरावृत्ति करने लगें। बहुलतावाद के नाम पर पूजा करने लगें। हमने लोकतंत्र के साथ यही किया है। हमने लोकतंत्र को लोचदार या उदार बनाने की बजाय कठमुल्ला बनाया है। कठमुल्ला लोकतंत्र अंततः अनुदारवादी ताकतों की सेवा करता है। लोकतंत्र को अनुदार बनाने में मीडिया के पूजाभाव और पुनरावृत्ति की केन्द्रीय भूमिका है। लोकतंत्र के कठमुल्लेपन का कारपोरेट मीडिया संस्कृति के विकास के साथ गहरा संबंध है।कारपोरेट मीडिया का जितना विकास होगा उसी गति से लोकतंत्र में कठमुल्लापन भी बढ़ेगा।सानिया मिर्जा की शादी का सवाल हो या सर्वखाप पंचायतों या ऐसा ही पंचायती न्याय हो ,इस तरह के प्रसंग आना और मीडिया का उन्हें महिमामंडित करना,एक अंतहीन कठमुल्लावाद को जन्म देता है। कारपोरेट मीडिया खबरों की आजादी के नाम पर सामान्य को असामान्य, साधारण को असाधारण,मूल्यवान को मूल्यहीन,बेवकूफ को महान,घटिया को बढ़िया, तर्क को अतर्क में बदल रहा है। यह समूची प्रक्रिया लोकतंत्र को कठमुल्लातंत्र में तब्दील कर रही है।  

      लोकतंत्र को पढ़ने के कई तरीके प्रचलन में हैं, एक तरीका परंपरावादी है जो यह मानकर चलता है कि जनतंत्र का अर्थ सभी के लिए जनतंत्र,बोलने की आजादी,मनमाफिक काम करने की आजादी,सबके लिए समान स्थान,अवसर आदि है। जनतंत्र का यह नजरिया सबसे बोगस नजरिया है इसका जनतंत्र विरोधी ताकतें अपने हितों के विस्तार के लिए इस्तेमाल करती रही है। इसी को हम जब आलोचना में रूपान्तरित होते देखते हैं तो हमारे हाथ-पैर फूलने लगते हैं हर किस्म की आलोचना अपने को आलोचना मानने लगी है, पत्र-पत्रिका में छपने वाला प्रत्येक लेख आलोचना की कोटि में रखा जाने लगा है।

आलोचना में लोकतंत्र का एक रूप वह भी है जो पिछले दिनों वैचारिक आग्रह के साथ सामने आया है जिसमें हर चीज और प्रत्येक क्षेत्र में जनतंत्र की मांग को सर्वोपरि स्थान दे दिया गया। इसमें बड़े ही फूहड़ ढ़ंग से जनतंत्र में प्रचलित राजनीतिक कोटियों और अवधारणाओं को आलोचना के मानक के रूप में यांत्रिक रूप से इस्तेमाल किया गया, इस वर्ग के आलोचकों ने जनतंत्र के दैनन्दिन क्रिया-कलापों के साथ साहित्यालोचना का रिश्ता इस कदर नत्थी किया कि इससे आलोचना की समीक्षा से विदाई हो गयी ,आलोचना की भाषा राजनीतिक भाषा में तब्दील हो गयी। हो सकता है इस तरह के प्रयासों में कोई ईमानदार कोशिश भी रही हो,किंतु समग्रता में देखें तो आलोचना की क्षति हुई है।

बगैर भावुक हुए विचार करें कि क्या जनवादी आलोचना के नाम पर जो बहस चली है उससे आलोचना समृद्ध हुई है ? आलोचना में जनतंत्र का अर्थ राजनीतिक जनतंत्र की कोटियों और अवधारणाओं का यांत्रिक प्रयोग नहीं है। यह तो भौंड़ी आलोचना है। यांत्रिक जनवादी समीक्षा है। इस तरह की आलोचना विगत वर्षों में बहुत लिखी गयी है।

आलोचना में लोकतंत्र का अर्थ अनालोचनात्मक ढ़ंग से सब कुछ स्वीकार कर लेना नहीं है। सबको संतुष्ट करना,वोट बैंक की राजनीति करना इसका लक्ष्य नहीं है। बल्कि आलोचना में लोकतंत्र का अर्थ है आलोचना में आत्मालोचनात्मक विवेक पैदा करना,आलोचना की अवधारणाओं का सही ढ़ंग से प्रयोग करना, आलोचना के बृहत्तर सैद्धान्तिक प्रश्नों को उठाना,साहित्य और जीवन में सही और गलत का फर्क करने का बोध पैदा करना। साहित्य और आलोचना को पारदर्शी बनाना, उसके आंतरिक तत्वों को ज्यादा लोचदार और पारदर्श बनाना,पाठक को शिरकत का अवसर देना,असहमति को जगह देना,आलोचना में लोकतंत्र का अर्थ है साहित्य और आलोचना के प्रति अभिरूचि पैदा करना,कृति ,कृतिकार और पाठक के बीच जनतांत्रिक संबंध बनाना।

मजेदार बात यह है कि हमने साहित्य में जनतंत्र का बिगुल बजाया ,किंतु आलोचना में जनतंत्र के प्रति कोई जगह नहीं छोड़ी। इस समस्या को रखने का अर्थ किसी वाद या आलोचकों के समूह की आलोचना करना नहीं है,अपितु उस बृहत्तर प्रश्न की ओर ध्यान खींचना है जिससे हम भाग रहे हैं।

आलोचना में लोकतंत्र का अर्थ काफी व्यापक है इसका मूलाधार है जनतंत्र ,पाठक और संचार तकनीकी । इनकी सही समझ ही हमें इसकी जटिलताओं को खोलने में मदद करेगी। हमने जनतंत्र की आधी-अधूरी समझ तो पैदा की है,किंतु पाठक और तकनीकी,खासकर मीडिया और संचार तकनीक की समझ अभी तक नहीं बना पाए हैं,बल्कि सच तो यह है कि इनसे भागते रहे हैं।








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