मैं तो हिन्दी के बिना जी नहीं सकता -
आज 14 सितम्बर है,सारे देश में केन्द्र सरकार के दफ्तरों में हिन्दी दिवस का दिन है।सरकार की आदत है वह कोई काम जलसे के बिना नहीं करती। सरकार की नज़र प्रचार पर होती है वह जितना हिन्दीभाषा में काम करती है उससे ज्यादा ढ़ोल पीटती है। सरकार को भाषा से कम प्रचार से ज्यादा प्रेम है,हम लोग प्रचार को हिंदी प्रेम और हिंदी सेवा समझते हैं !
सवाल यह है दफ्तरी हिन्दी को प्रचार की जरूरत क्यों है ॽ जलसे की जरूरत क्यों है ॽ भाषा हमारे जीवन में रची-बसी होती है।अंग्रेजी पूरे शासनतंत्र में रची-बसी है,उसको कभी प्रचार की या हिन्दी दिवस की तरह अंग्रेजी दिवस मनाने की जरूरत महसूस नहीं हुई। भाषा को जब हम जलसे का अंग बनाते हैं तो राजनीतिक बनाते हैं। छद्म भाषायी उन्माद पैदा करने की कोशिश करते हैं।हिन्दी दिवस की सारी मुसीबत यहीं पर है।यही वह बिन्दु है जहां से भाषा और राजनीति का खेल शुरू होता है।भाषा में भाषा रहे,जन-जीवन रहे,लेकिन अब उलटा हो गया है। भाषा से जन-जीवन गायब होता जा रहा है।हम सबके जन-जीवन में हिन्दी भाषा धीरे धीरे गायब होती जा रही है,दैनंदिन लिखित आचरण से हिन्दी कम होती जा रही है।भाषा का लिखित आचरण से कम होना चिन्ता की बात है।हमारे लिखित आचरण में हिन्दी कैसे व्यापक स्थान घेरे यह हमने नहीं सोचा,उलटे हम यह सोच रहे हैं कि सरकारी कामकाज में हिन्दी कैसे जगह बनाए।यानी हम हिन्दी को दफ्तरी भाषा के रूप में देखना चाहते हैं ! मीडिया भाषा के रूप में देखना चाहते हैं।
हिन्दी सरकारी भाषा या दफ्तरी भाषा नहीं है। हिन्दी हमारी जीवनभाषा है,वैसे ही जैसे बंगला हमारी जीवनभाषा है।हम जिस संकट से गुजर रहे हैं ,बंगाली भी उसी संकट से गुजर रहे हैं।अंग्रेजी वाले भी संभवतः उसी संकट से गुजर रहे हैं।आज सभी भाषाएं संकटग्रस्त हैं।हमने विलक्षण खाँचे बनाए हुए हैं हम हिन्दी का दर्द तो महसूस करते हैं लेकिन बांग्ला का दर्द महसूस नहीं करते।भाषा और जीवन में अलगाव बढ़ा है।इसने समूचे समाज और व्यक्ति के जीवन में व्याप्त तनावों और टकरावों को और भी सघन बना दिया है।
इन दिनों हम सब अपनी -अपनी भाषा के दुखों में फंसे हुए हैं। यह सड़े हुए आदमी का दुख है।नकली दुख है।यह भाषा प्रेम नहीं ,भाषायी ढ़ोंग है।यह भाषायी पिछड़ापन है।इसके कारण हम समग्रता में भाषा के सामने उपस्थित संकट को देख ही नहीं पा रहे।हमारे लिए आज महत्वपूर्ण यह नहीं है कि भाषा और समाज का अलगाव कैसे दूर करें,हमारे लिए जरूरी हो गया है कि सरकारी भाषा की सूची में अपनी भाषा को कैसे बिठाएं।सरकारी भाषा का पद जीवन की भाषा के पद से ज्यादा महत्वपूर्ण हो गया है और यही वह बुनियादी घटिया समझ है जिसने हमें अंधभाषा प्रेमी बना दिया है।हिन्दीवाला बना दिया है।यह भावबोध सबसे घटिया भावबोध है।यह भावबोध भाषा विशेष के श्रेष्ठत्व पर टिका है।हम जब हिन्दी को या किसी भी भाषा को सरकारी भाषा बनाने की बात करते हैं तो भाषाय़ी असमानता की हिमायत कर रहे होते हैं।हमारे लिए सभी भाषाएं और बोलियां समान हैं और सबके हक समान हैं।लेकिन हो उलटा रहा है।तेरी भाषा-मेरी भाषा के क्रम में हमने भाषायी विद्वेष को पाला-पोसा है। प्रतिस्पर्धा पैदा की है।बेहतर यही होगा कि हम भाषायी विद्वेष से बाहर निकलें। जीवन में भाषा प्रेम पैदा करें।सभी भाषाओं और बोलियों को समान दर्जा दें।किसी भी भाषा की निंदा न करें,किसी भी भाषा के प्रति विद्वेष पैदा न करें।दुख की बात है हमने भाषा विद्वेष को अपनी संपदा बना लिया है,हम सारी जिन्दगी अंग्रेजी भाषा से विद्वेष करते हैं और अंग्रेजी का ही जीवन में आचरण करते हैं।हमने कभी सोचा नहीं कि विद्वेष के कारण भाषा समाज में आगे नहीं बढ़ी है। प्रतिस्पर्धा के आधार पर कोई भी भाषा अपना विकास नहीं कर सकती। भाषा का विकास शिक्षा से होता है। शिक्षा में हिंदी पिछड़ गयी है।फलत: समाज में भी पिछड़ गयी है।
मेरे लिए हिन्दी जीवन की भाषा है।इसके बिना मैं जी नहीं सकता।मैं सब भाषाओं और बोलियों से वैसे ही प्यार करता हूँ जिस तरह हिन्दी से प्यार करता हूँ।हिन्दी मेरे लिए रोजी-रोटी की और विचारों की भाषा है।भाषा का संबंध आपके आचरण और लेखन से है।राजनीति से नहीं।भाषा में विचारधारा नहीं होती।भाषा किसी एक समुदाय,एक वर्ग,एक राष्ट्र की नहीं होती वह तो पूरे समाज की सृष्टि होती है। यहां मुझे रघुवीर सहाय की कविता "भाषा का युद्ध " याद आ रही है। उन्होंने लिखा-
"जब हम भाषा के लिये लड़ने के वक़्त
यह देख लें कि हम उससे कितनी दूर जा पड़े हैं
जिनके लिये हम लड़ते हैं
उनको हमको भाषा की लड़ाई पास नहीं लाई
क्या कोई इसलिये कि वह झूठी लड़ाई थी
नहीं बल्कि इसलिए कि हम उनके शत्रु थे
क्योंकि हम मालिक की भाषा भी
उतनी ही अच्छी तरह बोल लेते हैं
जितनी मालिक बोल लेता है
वही लड़ेगा अब भाषा का युद्ध
जो सिर्फ़ अपनी भाषा बोलेगा
मालिक की भाषा का एक शब्द भी नहीं
चाहे वह शास्त्रार्थ न करे जीतेगा
बल्कि शास्त्रार्थ वह नहीं करेगा
वह क्या करेगा अपने गूंगे गुस्से को वह
कैसे कहेगा ? तुमको शक है
गुस्सा करना ही
गुस्से की एक अभिव्यक्ति जानते हो तुम
वह और खोज रहा है तुम जानते नहीं ।"
जब बाजार में कम्प्यूटर आया तो मैंने सबसे पहले उसे खरीदा,संभवतःबहुत कम हिन्दी शिक्षक और हिन्दी अधिकारी थे जो उस समय कम्प्यूटर इस्तेमाल करते थे।मैंने कम्प्यूटर की कोई औपचारिक शिक्षा नहीं ली।मैं कम्प्यूटर के तंत्र को नहीं जानता,लेकिन मैंने अभ्यास करके कम्प्यूटर पर लिखना सीखा ,अपनी लिखने की आदत बदली,कम्प्यूटर पर पढ़ने का अभ्यास डाला।कम्प्यूटर आने के बाद से मैंने कभी हाथ से नहीं लिखा,अधिकांश समय किताबें भी डिजिटल में ही पढ़ता हूँ।जब आरंभ में लिखना शुरू किया तो उस समय यूनीकोड फॉण्ट नहीं था,कृति फॉण्ट था,उसमें ही लिखता था।बाद में जब पहलीबार ब्लॉग बनाया तो पता चला कि इंटरनेट पर यूनीकोड फॉण्ट में ही लिख सकते हैं और फिर मंगल फॉण्ट लिया,फिर लिखने की आदत बदली,और आज मंगल ही मंगल है।कहने का आशय यह कि हिन्दी या किसी भी भाषा को विकसित होना है तो उसे लेखन के विकसित तंत्र का इस्तेमाल करना चाहिए। भाषा लेखन से बदलती है,समृद्ध होती है।भाषा बोलने मात्र से समृद्ध नहीं होती।
भाषा समृद्ध होती है लिखने से,लिखो और खासकर यूनीकोड फॉण्ट के जरिए हिन्दी पढ़ो- लिखो।तब हिंदी का प्रसार होगा।
हिन्दी के अधिकांश मास्टर और हिन्दी अधिकारी हिन्दी में एसएमएस तक नहीं करते,मोबाइल में आधार भाषा के रूप में हिन्दी का प्रयोग तक नहीं करते। मोबाइल का भाषा सिस्टम बदलो,हिन्दी को ताकतवर बनाओ।
हिन्दी के 11 कटु सत्य
1.हिन्दीभाषी अभिजन की हिन्दी से दूरी बढ़ी है ।
2.राजभाषा हिन्दी के नाम पर केन्द्र सरकार करोड़ों रूपये खर्च करती है लेकिन उसका भाषायी,सांस्कृतिक,अकादमिक और प्रशासनिक रिटर्न बहुत कम है।
3.इस दिन केन्द्र सरकार के ऑफिसों में मेले-ठेले होते हैं और उनमें यह देखा जाता है कि कर्मचारियों ने साल में कितनी हिन्दी लिखी या उसका व्यवहार किया। हिन्दी अधिकारियों में अधिकतर की इसके विकास में कोई गति नजर नहीं आती।संबंधित ऑफिस के अधिकारी भी हिन्दी के प्रति सरकारी भाव से पेश आते हैं। गोया ,हिन्दी कोई विदेशी भाषा हो।
4.केन्द्र सरकार के ऑफिसों में आधुनिक कम्युनिकेशन सुविधाओं के बावजूद हिन्दी का हिन्दीभाषी राज्यों में भी न्यूनतम इस्तेमाल होता है।
5.हिन्दीभाषी राज्यों में और 10 वीं और 12वीं की परीक्षाओं में अधिकांश हिन्दीभाषी बच्चों के असंतोषजनक अंक आते हैं. हिन्दी भाषा अभी तक उनकी प्राथमिकताओं में सबसे नीचे है।
6.राजभाषा संसदीय समिति और उसके देश-विदेश में हिन्दी की निगरानी के लिए किए गए दौरे भारतीय लोकतंत्र के सबसे बड़े अपव्ययों में से एक है.
7. विगत 74 सालों में हिन्दी में पठन-पाठन,अनुसंधान और मीडिया में हिन्दी के बौद्धिक स्तर में तेजी से गिरावट आई है।
8.राजभाषा संसदीय समिति की सालाना रिपोर्ट अपठनीय और बोगस होती हैं।
9.केन्द सरकार के किसी भी मंत्रालय में मूल बयान कभी हिन्दी में तैयार नहीं होता। सरकारी दफ्तरों में हिन्दी मूलतः अनुवाद की भाषा है ।
10.हिन्दी दिवस के बहाने भाषायी प्रतिस्पर्धा को बढ़ावा मिला है इससे भाषायी समुदायों में तनाव पैदा हुआ है। हिन्दीभाषीक्षेत्र की अन्य बोलियों और भाषाओं की उपेक्षा हुई है।
11.सारी दुनिया में आधुनिकभाषाओं के विकास में भाषायी पूंजीपतिवर्ग या अभिजनवर्ग की बड़ी महत्वपूर्ण भूमिका रही है। हिन्दी की मुश्किल यह है कि हिन्दीभाषी पूंजीपतिवर्ग का अपनी भाषा से प्रेम ही नहीं है।जबकि यह स्थिति बंगला,मराठी,तमिल.मलयालम,तेलुगू आदि में नहीं है।वहां का पूंजीपति अपनी भाषा के साथ जोड़कर देखता है।हिन्दी में हिन्दीभाषी पूंजीपति का परायी संस्कृति और भाषा से याराना है।
हमारी हिंदी / रघुवीर सहाय
हमारी हिंदी एक दुहाजू की नई बीबी है
बहुत बोलने वाली बहुत खानेवाली बहुत सोनेवाली
गहने गढ़ाते जाओ
सर पर चढ़ाते जाओ
वह मुटाती जाए
पसीने से गन्धाती जाए घर का माल मैके पहुँचाती जाए
पड़ोसिनों से जले कचरा फेंकने को लेकर लड़े
घर से तो ख़ैर निकलने का सवाल ही नहीं उठता
औरतों को जो चाहिए घर ही में है
एक महाभारत है एक रामायण है तुलसीदास की भी राधेश्याम की भी
एक नागिन की स्टोरी बमय गाने
और एक खारी बावली में छपा कोकशास्त्र
एक खूसट महरिन है परपंच के लिए
एक अधेड़ खसम है जिसके प्राण अकच्छ किये जा सकें
एक गुचकुलिया-सा आँगन कई कमरे कुठरिया एक के अंदर एक
बिस्तरों पर चीकट तकिए कुरसियों पर गौंजे हुए उतारे कपड़े
फ़र्श पर ढंनगते गिलास
खूंटियों पर कुचैली चादरें जो कुएँ पर ले जाकर फींची जाएँगी
घर में सबकुछ है जो औरतों को चाहिए
सीलन भी और अंदर की कोठरी में पाँच सेर सोना भी
और संतान भी जिसका जिगर बढ गया है
जिसे वह मासिक पत्रिकाओं पर हगाया करती है
और ज़मीन भी जिस पर हिंदी भवन बनेगा
कहनेवाले चाहे कुछ कहें
हमारी हिंदी सुहागिन है सती है खुश है
उसकी साध यही है कि खसम से पहले मरे
और तो सब ठीक है पर पहले खसम उससे बचे
तब तो वह अपनी साध पूरी करे ।